कहा जाता है कि गुरिल्ला लड़ाई में उसका कोई सानी नहीं. उसके पास न सिर्फ कैलेश्निकोव से लैस अनुशासित लड़ाके हैं बल्कि ऐसे समर्पित आत्मघाती हमलावर भी हैं जो उसके एक इशारे पर अपने शरीर को मानव मिसाइल बनाने के लिए तैयार रहते हैं. पाकिस्तान के नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस के हिस्से वजीरिस्तान में पले-बढ़े इस शख्स का नाम आज पूरी दुनिया में कुख्यात हो चुका है. ये शख्स है बैतुल्ला महसूद जिसे नया ओसामा भी कहा जा रहा है.
आखिर कौन ये ये बैतुल्ला और आखिर क्यों उसकी उस शख्स से तुलना की जा रही है जिसने आठ साल पहले अमेरिका पर हमला कर सारी दुनिया को स्तब्ध कर दिया था?
करीब 35 साल के बैतुल्ला ने जिस तरह पाकिस्तान में एक के बाद एक आतंकी हमले करवाए हैं वह बताता है कि उसके पास कितनी ताकत है. अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी भी ये बात मानती है. टाइम मैगजीन ने दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली नेताओं और क्रांतिकारियों की जो सूची बनाई है उसमें बैतुल्ला का भी नाम है. एक दूसरी मशहूर मैगजीन न्यूजवीक ने उसे ओसामा से भी ज्यादा खतरनाक करार दिया है. हाल ही में अमेरिकी विदेश विभाग ने तहरीक-ए-तालिबान के इस बड़े नेता पर पचास लाख डॉलर का ईनाम घोषित किया है. यूएस ब्यूरो ऑफ पब्लिक अफेयर्स में कहा गया है,‘महसूद को पाकिस्तान में दक्षिण वजीरिस्तान के कबायली इलाकों में अल कायदा के अहम मददगारों में से एक माना जाता है. पाकिस्तानी अधिकारी मानते हैं कि जनवरी 2007 में इस्लामाबाद के मैरिएट होटल पर आत्मघाती हमला करने वाले लोग भी बैतुल्ला के लोग थे. पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या के पीछे भी उसका हाथ बताया जाता है. इसके अलावा बैतुल्ला अमेरिका पर हमला करने की बात भी कह चुका है. उसने सीमापार से अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों पर हमले करवाए हैं और इस क्षेत्र में अमेरिकी सैनिकों और हितों के लिए वह खतरा है.
पचास लाख डॉलर छोटी रकम नहीं होती. बैतुल्ला भी छोटा आदमी नहीं है. पाकिस्तान का ओसामा कहे जाने वाले इस शख्स पर घोषित ईनाम अलकायदा के मुखिया जितना ही है. पेशावर में बिकने वाली माचिसों पर ओसामा की तस्वीर छपी होती है और उर्दू में ये लिखा होता है कि अमेरिकी सरकार ओसामा का पता बताने वाले को 50 लाख डॉलर देगी.
आखिर कौन ये ये बैतुल्ला और आखिर क्यों उसकी उस शख्स से तुलना की जा रही है जिसने आठ साल पहले अमेरिका पर हमला कर सारी दुनिया को स्तब्ध कर दिया था? बैतुल्ला की निजी जिंदगी के बारे में ज्यादा कुछ आज भी पता नहीं है. जो थोड़ी-बहुत जानकारियां मिलती हैं उनसे पता चलता है कि वह कुछ समय के लिए एक जिम में इंस्ट्रक्टर रहा. ये भी कहा जाता है कि उसे डायबिटीज है और वह पब्लिसिटी पसंद नहीं करता. शायद यही वजह है कि उसके एकाध फोटो ही उपलब्ध हो पाते हैं.
मगर उसकी आतंकी गतिविधियों के बारे में जानकारियों की कोई कमी नहीं. बैतुल्ला 9/11 के बाद फरार आतंकी मुल्ला उमर से काफी प्रभावित था. जिहाद का रास्ता उसने तब चुना जब अमेरिका ने आतंक के खिलाफ अपनी लड़ाई छेड़ी और इसमें पाकिस्तान भी उसके साथ हो गया. जब जॉर्ज बुश ने मुशर्रफ से कहा कि आप या तो हमारे साथ हैं या हमारे खिलाफ तो घबराए मुशर्रफ ने तुरंत अफगानिस्तान और तालिबान को लेकर अपनी नीति से यू टर्न ले लिया. अब पाकिस्तान उसी तालिबान से लड़ रहा था जिसे कभी उसने ही जन्म दिया था. मुशर्रफ के इस कदम से अपने देश में उनकी लोकप्रियता गिरती चली गई और आखिरकार उन्हें गद्दी छोड़नी पड़ी. यही वह वक्त था जब बैतुल्ला ने दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा.
बैतुल्ला को मिलने वाले मजबूत समर्थन की वजह ये भी है कि वह जिस कबीले से ताल्लुक रखता है वह दक्षिणी और उत्तरी वजीरिस्तान की कुल आबादी के 70 फीसदी हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है
बैतुल्ला का ताल्लुक दक्षिणी वजीरिस्तान से है. ये हिस्सा 1980 के जमाने से ही आतंकियों का अहम सप्लाई रूट रहा है जब वे सोवियत फौजों का मुकाबला करने के लिए यहां से अफगानिस्तान की सीमा में दाखिल होते थे. बैतुल्ला को मिलने वाले मजबूत समर्थन की वजह ये भी है कि वह जिस कबीले से ताल्लुक रखता है वह दक्षिणी और उत्तरी वजीरिस्तान की कुल आबादी के 70 फीसदी हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है.
कबीलाई वफादारी के अलावा बैतुल्ला ब्रांड जिहाद के कुछ और पहलू भी हैं. तालिबान का जनक कहे जाने वाले पूर्व आईएसआई मुखिया हामिद गुल कहते हैं, ‘9/11 से पहले तक उसे कोई नहीं जानता था मगर अब वह किसी विश्व स्तर के कमांडो जैसा लगता है जिसमें वे क्षमताएं भी हैं जो कबीलों के लड़ाकों में होती हैं. वह पश्तून है और पश्तूनों की जिंदगी में अपना सम्मान कायम रखने के लिए बदले का बड़ा महत्व होता है. वह बदले की भावना को आधार बनाकर अफगानिस्तान में मौजूद अमेरिकी फौजों से लड़ रहा है. पश्तून हमलावरों के लिए बहुत क्रूर साबित होते हैं.’
पाकिस्तानी पत्रकारों के मुताबिक बैतुल्ला ने औपचारिक तौर पर पढ़ाई नहीं की और उसकी शिक्षा-दीक्षा मदरसे में ही हुई जहां वह तालिबान की विचारधारा से प्रेरित हुआ. इस्लाम की तालिबानी व्याख्या का उस पर बहुत गहरा असर पड़ा. ये उसके द्वारा दिए गए कई साक्षात्कारों से साफ हो जाता है. वह अक्सर कहता है, ‘पवित्र कुरान में 480 मौकों पर अल्लाह ने मुसलमानों से जिहाद छेड़ने को कहा है. हम सिर्फ अल्लाह के आदेश का पालन करते हैं. सिर्फ जिहाद ही दुनिया में अमन कायम कर सकता है.’
सवाल उठता है कि सभी तालिब तो यही पढ़ते हुए बड़े होते हैं तो फिर बैतुल्ला में ऐसा क्या खास था कि बराक ओबामा की टीम आज उस पर ध्यान देने को मजबूर हो गई है. जवाब है कि वह राजनीति और रणनीति में भी माहिर है. स्थानीय होने की वजह से वह इस क्षेत्र अच्छी तरह वाकिफ है. पाकिस्तान स्थित एक रणनीतिक विश्लेषक ले. जनरल(सेवानिवृत्त) तलत मसूद कहते हैं, ‘उसमें नेतृत्व के गुण हैं. अमेरिकी मौजूदगी ने राष्ट्रवादी भावनाओं का एक ज्वार उमड़ा है और बैतुल्ला इस मौजूदगी के विरोध का एक लोकप्रिय चेहरा बन गया है. ड्रोन हमलों का पाकिस्तानियों की भावनाओं पर काफी बुरा असर पड़ा है.’
बैतुल्ला ने इन भावनाओं को भुनाया. अब वह न सिर्फ अमेरिकी और नाटो फौजों के खिलाफ हमलों की अगुवाई कर रहा है बल्कि पाकिस्तान के लिए ही सबसे बड़ा खतरा बन गया है. वह कहता है कि अगर अमेरिका के पास हवाई ताकत है तो हमारे पास फिदायीन हैं. हाल ही में उसने एक नाटकीय चेतावनी दे डाली कि पाकिस्तान में हर हफ्ते दो हमले होंगे. ऐसे कई उदाहरण हैं जो बताते हैं कि उसके पास समर्पित कैडर और पर्याप्त संख्या में फिदायीन हैं. कुछ समय पहले लाहौर स्थित पुलिस अकादमी पर हुए हमले में 20 लोगों की मौत और 100 अन्य के घायल होने के बाद आंतरिक मामलों में प्रधानमंत्री के सलाहकार रहमान मलिक ने जब कहा कि बैतुल्ला पांच से 15 लाख रुपए देकर आत्मघाती हमलावरों को भर्ती कर रहा है तो हर कोई चौंका था.
तहरीक-ए-तालिबान का औपचारिक मुखिया बनने के बाद बैतुल्ला अब सिर्फ पाकिस्तान की ही चिंता नहीं है जो धीरे-धीरे अराजकता की तरफ बढ़ रहा है
बैतुल्ला का जिहाद का सफर शरीया लागू करने की कोशिश से शुरू हुआ था. इसके बाद उसने अलकायदा से लड़ रही अमेरिका की अगुवाई वाली पश्चिमी फौजों से मुकाबला करने के लिए अपने लड़ाकों को वजीरिस्तान से अफगानिस्तान भेजा और आज वह तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान का नेतृत्व कर रहा है. अगर दक्षिण एशिया में अब भारत-पाकिस्तान की जगह अफगानिस्तान-पाकिस्तान की बात हो रही है तो इसके लिए बैतुल्ला और उसके करीब 18,000 लड़ाके जिम्मेदार हैं. विडंबना देखिए कि पाकिस्तानी तालिबान की औपचारिक स्थापना दिसंबर 2007 यानी सिर्फ डेढ़ साल पहले ही हुई थी.
मगर तहरीक-ए-तालिबान का जन्म होने से पहले ही बैतुल्ला की तूती बोलने लगी थी. सेना के दबाव में नॉर्थवेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस की सरकार ने कई ऐसे शांति समझौते किए जिनमें दूसरे पक्ष की तरफ से बैतुल्ला की अहम भूमिका थी. वह इन समझौतों के लिए सौदेबाजी करता था और इन पर उसके दस्तखत भी होते थे. वजीरिस्तान में अलकायदा के सदस्यों को शरण देने के लिए वांछित बैतुल्ला ने 2005 में सरकार के साथ एक समझौते पर दस्तखत किए. इस समझौते में उसने वादा किया था कि न वह अलकायदा को शरण देगा और न ही पाकिस्तानी सेना के खिलाफ अभियान चलाएगा. सरकार, बैतुल्ला के साथ समझौता कर रही थी इस बात ने ही उसे इस कबायली इलाके का अगुवा नेता बना दिया. जैसा कि हामिद गुल कहते हैं, ‘मसूद का रसूख बढ़ गया क्योंकि कबायली इलाके में उसे एक ऐसे शख्स के तौर पर देखा जाने लगा जो सरकार जितनी ही हैसियत रखता था.’
मगर बैतुल्ला ने अपना वादा नहीं निभाया. दरअसल देखा जाए तो इस तरह के शांति समझौतों का इस्तेमाल वह अपने फायदे के लिए करता था. समझौते के बाद उसे ढील मिल जाती थी और वह अपनी ताकत बढ़ा लेता था.
बैतुल्ला के उत्थान का मुशर्रफ की खुल्लमखुल्ला अमेरिकापरस्ती से गहरा संबंध है. इस्लामाबाद की लाल मस्जिद पर सेना की कार्रवाई के बाद मुशर्रफ अपने ही लोगों के बीच अलग-थलग पड़ गए. यही वह वक्त था जब बैतुल्ला ने अपना कुछ ध्यान अफगानिस्तान से हटाकर पाकिस्तानी सरकार की तरफ केंद्रित किया. जून 2007 में लाल मस्जिद पर सैन्य कार्रवाई हुई थी. इसका बदला लेने के लिए दो महीने के भीतर ही बैतुल्ला ने दक्षिण वजीरिस्तान में करीब ढाई सौ पाकिस्तानी सैनिकों को बंधक बना लिया. समझौता बैतुल्ला की शर्तों पर हुआ और पाक सरकार को सैनिकों के एवज में उन 25 आतंकियों को छोड़ना पड़ा जो मुशर्रफ के ही शब्दों में प्रशिक्षित आत्मघाती हमलावर थे. मुशर्रफ के लिए ये काफी बड़ी शर्मिंदगी थी. इसके बाद दिसंबर 2007 में आयोजित पाकिस्तानी तालिबान की बैठक में बैतुल्ला का मुखिया चुना जाना सिर्फ औपचारिकता ही रह गया था. इस बैठक में बैतुल्ला ने एक बार फिर अपने एजेंडे को जोरदार तरीके से सामने रखा. ये एजेंडा था अफगानिस्तान से गठबंधन सेनाओं को खदेड़ना. एक आंख पाकिस्तान पर रखते हुए उसने ये भी मांग की कि लाल मस्जिद के मौलवी सहित सभी कैदियों को छोड़ दिया जाए. उसकी ये भी मांग थी कि पाकिस्तानी सेना स्वात घाटी से हट जाए जिसे कभी पाकिस्तान का स्विटजरलैंड कहा जाता था.
आईएसआई के रिटायर्ड अधिकारी पाकिस्तानी तालिबान की मदद कर रहे हैं और वे लश्कर से बड़े लश्कर बन गए हैं.तहरीक-ए-तालिबान का औपचारिक मुखिया बनने के बाद बैतुल्ला अब सिर्फ पाकिस्तान की ही चिंता नहीं है जो धीरे-धीरे अराजकता की तरफ बढ़ रहा है. पूर्व अमेरिकी विदेशमंत्री मैडलिन अलब्राइट के शब्दों में कहें तो बैतुल्ला आज सबसे भयंकर अंतर्राष्ट्रीय सिरदर्द है. 2007 में जारी हुई संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट बताती है कि अफगानिस्तान में होने वाले आत्मघाती हमलों में से 80 फीसदी के पीछे बैतुल्ला का हाथ होता है. बैतुल्ला से जुड़ी कई बातें बड़ी चर्चित हैं. मसलन कहा जाता है कि पत्थरों या कोड़ों से पिटाई कर मौत की सजा सुनाना उसके लिए आम है. उसके राज में संगीत, टीवी और फोटोग्राफी पर प्रतिबंध है. इतना ही नहीं लोगों के मुताबिक सरकारी जासूसों को वह एक सुई और धागा भिजवाकर वह उन्हें 24 घंटे का नोटिस देता है ताकि वे अपने कफन का बंदोबस्त कर सकें.
पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ा खतरा ये है कि वहां की सेना में ही बैतुल्ला के लिए बहुत ज्यादा सहानुभूति है. गुल इसके पीछे की वजह ये बताते हैं कि पश्तून पाकिस्तान का दूसरा सबसे बड़ा समुदाय हैं. इसका मतलब ये है कि कहीं न कहीं पाकिस्तानी सेना न सिर्फ बैतुल्ला का समर्थन करती है बल्कि वह अपने लोगों से लड़ना भी नहीं चाहती. 2005 के विफल शांति समझौते के बाद बैतुल्ला और उसके लड़ाकों ने सेना को दक्षिणी वजीरिस्तान से लगभग बाहर खदेड़ दिया है. तालिबान पर किताब लिखने वाले सामरिक विशेषज्ञ अहमद राशिद कहते हैं, ‘आईएसआई के रिटायर्ड अधिकारी पाकिस्तानी तालिबान की मदद कर रहे हैं और वे लश्कर से बड़े लश्कर बन गए हैं.’ यहां तक कि आईएसआई के वर्तमान मुखिया भी पत्रकारों से अनौपचारिक बातचीत में बैतुल्ला को देशभक्त पाकिस्तानी बताते हैं.
साफ है कि बैतुल्ला का तालिबान पाकिस्तान के लिए बड़ा खतरा है. उधर, जरदारी के नेतृत्व वाली पीपीपी की सरकार अपना साल भर पूरा करने के बावजूद आतंकवाद से ठीक से निपटने में विफल रही है. तलत मसूद कहते हैं, ‘कई सरकारें मैसूद से बात कर चुकी हैं मगर बात नहीं बनी. सरकार को इस दिशा में मजबूती दिखाने की जरूरत है मगर समस्या ये है कि हमारा नेतृत्व बहुत कमजोर है. सैन्य शासन ने संस्थाओं ने लोकतंत्र को मजूबत बनाने वाली संस्थाओं को पंगु बनाया और अब जिहादी सरकार को पंगु बना रहे हैं. अंतर्राष्ट्रीय नीति निर्माता भी बहुत मददगार साबित नहीं हो रहे क्योंकि वे आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए पाकिस्तान पर कुछ ज्यादा ही दबाव डाल रहे हैं.’ साफ है कि अमेरिका द्वारा छेड़ी गई ये लड़ाई, जो अब ओबामा के एजेंडे में सबसे ऊपर है, पाकिस्तान में कट्टरपंथ की आग को हवा दे रही है. तहलका को दिए गए विशेष साक्षात्कार में पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ कहते हैं, ‘ड्रोन हमले तुरंत बंद होने चाहिए’ (देखें इंटरव्यू).
अगर पाकिस्तान में किसी बात पर सहमति है तो वह बात ये है कि किस तरह इसका अमेरिका को समर्थन अब देश को भीतर से ढहता जा रहा है. मसूद कहते हैं, ‘पाकिस्तान कभी भी इतना संवेदनशील नहीं लगा था.’ अमेरिका की लड़ाई लड़ता पाकिस्तान अब अपने आप को खुद के साथ लड़ता पा रहा है. हल क्या हो इस पर हामिद गुल कहते हैं, ‘हमें अपनी अमेरिकापरस्त नीति को बदलना होगा.’
पाकिस्तान में ज्यादातर लोग उनसे इत्तफाक रखते होंगे और यही वजह भी रही कि लोगों ने मुशर्रफ को सत्ता से उखाड़ फेंका. अब और भी अहम सवाल ये है कि क्या जरदारी या कोई लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री (या फिर तानाशाह ही सही), इतने बड़े नीतिगत बदलाव को झेल पाएगा?
सरकार इस नीति को लागू नहीं कर सकती. ये सच से मुंह चुराने की आदत हो, दुनिया की महाशक्ति के खिलाफ न जा सकने की मजबूरी या इच्छाशक्ति की कमी, यही बैतुल्ला मैसूद के वजूद को ताकत देती है. रही उसकी बात तो उसके पास तो इच्छाशक्ति भी है और आत्मघाती दस्ते भी.