कुछ दिन पहले राजग के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी ने कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार मनमोहन सिंह को कमजोर बताते हुए अमेरिकी स्टाइल में टीवी पर डिबेट के लिए ललकारा. सामने से इस मांग को तो नकारा गया ही, आडवाणी पर भी कुछ इल्जाम ठोंक दिए गए. आडवाणी ने जवाब में सुझाव दे डाला कि यदि मनमोहन ऐसा करने में अक्षम हैं तो जिसके पास असली ताकत है वो बहस कर ले. इसके बाद दोनों तरफ से न जाने क्या-क्या कहा गया. प्रधानमंत्री भी आडवाणी पर एक के बाद एक प्रहार किए जा रहे हैं. मजे की बात ये है कि हो ये सब टीवी पर ही रहा है मगर आमने सामने की बहस के लिए न तो प्रधानमंत्री तैयार हैं और न ही उनकी पार्टी.
अमेरिकी बहसों के इतिहास को देखें तो पता चलता है कि कई बार बहुत नजदीक वाले चुनावों को इस या उस पार करने में टीवी बहसों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है
देश में शायद ही कोई ऐसा हो जो ऐसी बहस होते नहीं देखना चाहेगा. मगर इसमें अमेरिका का उदाहरण देने की क्या तुक है! भारत और अमेरिका दोनों भले ही लोकतंत्र हो किंतु इन दोनों में जमीन-आसमान का अंतर हैं. अमेरिका में राष्ट्रपति शासन प्रणाली है और वहां का संविधान राजनीतिक दलों की तो बात ही नहीं करता. यानी कि आदर्श स्थिति में वहां कहीं से भी राष्ट्रपति के उम्मीदवार निकल कर आ सकते हैं और उनके बारे में पहले से ज्यादा पता न होने की स्थिति में वो कैसे हैं, जानने का टीवी पर बहस एक अच्छा जरिया हो सकती है. मगर व्यावहारिक रूप में वहां एक बेहद मजबूत दो-पार्टी-तंत्र – डेमोक्रेट और रिपब्लिकन – विकसित हो चुका है. किंतु दोनों की नीतियों और योजनाओं में कोई खास अंतर तो है नहीं. तो ऐसे में जीत काफी-कुछ उम्मीदवारों के निजी व्यक्तित्व, सोच आदि पर भी निर्भर करती है. इसके अलावा चूंकि अमेरिका में कोई भी व्यक्ति अधिकतम दो बार ही राष्ट्रपति बन सकता है इसलिए अक्सर चुनावों में दो बिल्कुल ही नये चेहरे दिखाई दे जाते हैं जैसे कि इस बार ओबामा और जॉन मैक्केन थे. ऐसे में पहले से उनके बारे में ज्यादा कुछ न पता होना टीवी डिबेट की जरूरत को अच्छे से रेखांकित कर देता है.
हमारे यहां की बात की जाए तो यहां राजनीतिक दलों पर आधारित संसदीय लोकतंत्र है जिसमें इन दलों की एक निश्चित विचारधारा और नीतियां होती हैं. ऐसे में ज्यादातर इन राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों की व्यक्तिगत सोच आदि का कोई खास महत्व नहीं होता. और अगर किसी उम्मीदवार में कुछ चुंबकीय आकर्षण होता भी है तो उसके और उसकी सोच के बारे में पहले से ही समूचे देश को पता होता है. ऐसे में आमने-सामने की बहस से उनके मूल्यांकन की जरूरत शायद ही रह जाती हो.
अमेरिकी बहसों के इतिहास को देखें तो पता चलता है कि कई बार बहुत नजदीक वाले चुनावों को इस या उस पार करने में टीवी बहसों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. इस परिप्रेक्ष्य में कैनेडी और रीगन की जीत को देखा जा सकता है. शायद यही वजह है कि कांग्रेस पार्टी टीवी पर मनमोहन बनाम आडवाणी के लिए तैयार नहीं हो रही.
मगर अमेरिका में तो दोनों दलों के उम्मीदवार भी ऐसी ही बहसों से चुने जाते हैं. परंतु हमारे यहां एक पार्टी को अपना उम्मीदवार विरासत में या उसके द्वारा थोपा हुआ मिलता है और दूसरी का फैसला नागपुर में होता है.
संजय दुबे