बढ़िया प्रोफेसर मगर क्लास खाली

16 मई को चुनाव परिणामों का लेखा-जोखा कुछ भी हो, मनमोहन सिंह को कम से कम ये संतोष तो होगा ही कि वे अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा करने वाले प्रधानमंत्रियों की फेहरिस्त में जगह बनाने में कामयाब रहे. ये कोई छोटी बात नहीं है. अंतरात्मा की आवाज सुनने के बाद जब सोनिया गांधी ने सात रेसकोर्स रोड से दूर रहने का फैसला कर मनमोहन को प्रधानमंत्री मनोनीत किया था तो कम ही लोगों ने सोचा था कि यूपीए सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी और अगर करेगी भी तो पूरे कार्यकाल के दौरान मनमोहन प्रधानमंत्री बने रहेंगे. बल्कि सरकार बनने के शुरुआती महीनों में तो भाजपा में कुछ ने इस भविष्यवाणी पर बड़ी उम्मीद लगा रखी थी कि सितंबर या अक्टूबर 2004 तक सरकार गिर जाएगी. विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने तो जोरदार तरीके से डॉएचे बैंक की एक रिपोर्ट भी दिखाई थी जिसका कहना था कि सरकार साल भर से ज्यादा मुश्किल से ही टिक सकेगी.

मनमोहन ने हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि वे नेताओं के लिए किसी तरह का खतरा न लगें और बदले में उन्हें भी किसी ने परेशान नहीं किया

इसलिए मनमोहन के कार्यकाल के किसी भी आकलन में इस उपलब्धि को जरूर स्थान दिया जाना चाहिए कि अब तक हुए प्रधानमंत्रियों में से सबसे ज्यादा अराजनीतिक ये प्रधानमंत्री अपने सामने खड़ी सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती से पार पाने में सफल रहा. मनमोहन ने पूरी पारी खेली और वह भी नॉट आउट. ये माना जा सकता है कि ऐसा होने की सबसे बड़ी वजह रही रोजमर्रा की राजनीति से ज्यादा सरोकार न रखने की पूर्वनियोजित नीति से उनका न भटकना. मनमोहन ने हमेशा इस बात का ध्यान रखा कि वे नेताओं के लिए किसी तरह का खतरा न लगें और बदले में उन्हें भी किसी ने परेशान नहीं किया. अगर बीच राह उनमें कुछ राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पैदा हो जातीं, जो कि ऐसी कुर्सी तक पहुंचने पर अक्सर पैदा हो जाती हैं, तो निश्चित रूप से उनका नाम अपना कार्यकाल पूरा न कर सकने वाले प्रधानमंत्रियों की सूची में होता.

मनमोहन के मनोनयन और कार्यकाल की अनोखी परिस्थितियों पर नजर डाली जाए तो पिछले पांच साल को उनका दौर कहना ठीक नहीं होगा. उनके कार्यकाल के लगभग बीच की अवधि के दौरान एक ब्रिटिश पत्रिका ने टिप्पणी की थी कि प्रधानमंत्री के पास कार्यालय तो है पर सत्ता नहीं. देखा जाए तो ये सही बात थी. मनमोहन के पास कभी भी पूरी ताकत या अधिकार नहीं रहे. कमान हमेशा यूपीए की मुखिया सोनिया गांधी के पास रही और कैबिनेट के मंत्री एक तरह से अपनी मर्जी के मालिक रहे. दूसरी सरकारों में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण प्रधानमंत्री कार्यालय इस सरकार के दौरान महत्वहीन हो गया. यहां तक कि महत्वपूर्ण नियुक्तियां करने का काम, जो इससे पहले तक सिर्फ प्रधानमंत्री का अधिकार होता था, भी 10 जनपथ को समर्पित कर दिया गया.

मनमोहन का अनूठा योगदान ये भी है कि उन्होंने केंद्र सरकार वाली शासन प्रणाली को एक विकेंद्रित व्यवस्था बना दिया. रेल भवन में लालू प्रसाद यादव अपना एजेंडा चलाते रहे तो प्रफुल्ल पटेल सार्वजिनक क्षेत्र की सुध लेना छोड़ प्राइवेट एयरलाइंस पर ज्यादा ध्यान देते रहे. इस मामले में कांग्रेसी मंत्री भी पीछे नहीं रहे. मानव संसाधन मंत्रालय में अर्जुन सिंह नवमंडल और मुस्लिम तुष्टिकरण का अपना एजेंडा चला रहे थे तो कुछ समय के दौरान पेट्रोलियम मंत्री रहे मणिशंकर अय्यर अपनी स्वतंत्र ऊर्जा नीति पर चल रहे थे.

राजनीतिक संकट को टालने के लिए सोनिया और उनकी राजनीतिक टीम ने समाजवादी पार्टी से मदद ली. ऐसा कभी नहीं हो सकता था अगर मनमोहन ने जिद नहीं ठानी होती मनमोहन के पास कुछ ऐसे गुण थे जो देश में सबसे महत्वपूर्ण इस राजनीतिक पद पर बैठने वाले व्यक्ति के लिए अनूठे कहे जा सकते हैं. उनमें न दंभ था और न किसी तरह का अहम. मनमोहन जसे दिखते थे वैसे ही थे भी. वे नम्र थे, चुनावी राजनीति के मामले में अनुभवहीन थे और जानते थे कि कमान उनके हाथ में नहीं है. इन्हीं गुणों ने उनमें अनुकूलन पैदा किया. दागी मंत्रियों और ओतावियों क्वात्रोकि को क्लीन चिट मिलने जैसे मसलों से उन्होंने नजरें फेरे रखीं. यहां तक कि उन्होंने इराक में तेल के बदले अनाज घोटाले में शामिल पूर्व विदेश मंत्री के नटवर सिंह को दोषमुक्त कर दिया. सही-गलत का फैसला मनमोहन अपने आप नहीं करते थे और उनमें ये खासियत न होती तो यूपीए सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर ही नहीं पाती. ये दिलचस्प है कि जैसे ही आम चुनावों में सीटों के बंटवारे पर कांग्रेस ने अपनी चलानी चाही तो तुरंत ही यूपीए बिखरना शुरू हो गया.

हां, एक मुद्दा जरूर ऐसा था जिस पर मनमोहन अड़ गए. ये था भारत-अमेरिका परमाणु समझौता. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल के दौरान भारत और अमेरिका करीब आए थे और इस प्रक्रिया का अगला स्वाभाविक कदम था जुलाई 2005 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के साथ हुआ ये समझौता. मनमोहन को लगा कि इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाने का यही मौका है. अगर मनमोहन ने इसे अपनी इज्जत का सवाल न बनाया होता तो ये समझौता बीच राह ही पटरी से उतर जाता. उन्होंने तो यहां तक संकेत दे दिया था कि अगर यूपीए प्रकाश करात के साम्राज्यवाद विरोध के आगे झुका तो वे प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे. राजनीतिक संकट को टालने के लिए सोनिया और उनकी राजनीतिक टीम ने समाजवादी पार्टी से मदद ली. ऐसा कभी नहीं हो सकता था अगर मनमोहन ने जिद नहीं ठानी होती.

भारत-अमेरिका परमाणु समझौते में मनमोहन की महत्वपूर्ण भूमिका को इतिहास निश्चित तौर पर याद रखेगा. मगर सवाल ये है कि अपने स्वभाव से विपरीत रुख दिखाते हुए आखिर मनमोहन इस समझौते के लिए कैसे अड़ गए? कुछ लोग कहते हैं कि मनमोहन सिंह इस बात से पूरी तरह सहमत थे कि ये समझौता भारत के हित में ही है. मगर इस जवाब से उनके इस रुख की पूरी व्याख्या नहीं होती. मनमोहन तो इससे भी सहमत थे कि बढ़ता राजकोषीय घाटा दीर्घावधि में देश के लिए काफी नुकसान का सबब होगा. इसके बावजूद वे बैठे रहे और अब हालत ये है कि ये घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 13 फीसदी तक पहुंच गया है. प्रधानमंत्री को ये भी पता था कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) की बनावट में ही खामियां हैं और इसमें पैसे का व्यर्थ खर्च हो रहा है मगर उन्होंने इन्हें दूर करने के लिए कुछ नहीं किया. बल्कि इसके उलट अपने चुनावी घोषणापत्र में कांग्रेस वादा कर रही है कि सभी कल्याणकारी योजनाओं को नरेगा के अंतर्गत लाया जाएगा.

सही और गलत को लेकर मनमोहन का कोई अपना रुख नहीं था मगर इसके बावजूद उन्होंने परमाणु समझौते को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद इस मोर्चे पर सफल रहे. भविष्य में अगर इस समझौते पर ठीक तरह से आगे बढ़ा गया तो इससे न सिर्फ क्षेत्रीय ताकत के रूप में भारत का कद बढ़ेगा बल्कि वह इस इलाके में चीन का संभावित विकल्प भी बन सकता है.

मनमोहन आज एक ऐसी सरकार के मुखिया हैं जिसने ये मान लिया है कि भारत में भी हालात पाकिस्तान जितने ही खराब हैं हालांकि परमाणु समझौते को सिर्फ इसी नजरिए से देखना गलत होगा. अगर ये वैश्विक ताकत के रूप में भारत के उभरने का माहौल तैयार कर सकता है तो हमारी नीतियों में अमेरिकी दखलअंदाजी को भी न्यौता दे सकता है. ये इस बात पर निर्भर करेगा कि आगे देश के भीतर किस तरह के बदलाव आते हैं.

सबसे बड़ी असफलता रही राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर. मुंबई हमले से पहले चार साल तक सरकार इस मामले पर लापरवाही और उदासीनता का परिचय देती रही. इसके पीछे की खतरनाक सोच ये थी कि आतंकवाद के खिलाफ किसी पूर्वनिर्धारित कार्रवाई से कांग्रेस और उसके साथियों के मुस्लिम वोट छिटक सकते हैं. बाटला हाउस में आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन पर अर्जुन सिंह और कपिल सिब्बल जैसे कैबिनेट मंत्री बयानबाजी करते रहे और मनमोहन खामोश रहे. मुंबई हमले के बाद पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल को आखिरकार जाना पड़ा था मगर इससे मनमोहन दोषमुक्त नहीं हो जाते. इससे उनकी प्राथमिकताओं पर सवाल खड़े होते हैं. ऐसा लगता है कि अमेरिका के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए मनमोहन अपने लिए तय दायरे से भी बाहर जाने को तैयार थे और उनके इस रुख को गलत भी नहीं कहा जा सकता. मगर वे खुद को इस बात के लिए झकझोर नहीं पाए कि अपनी स्थिति का इस्तेमाल कर यूपीए के कर्ताधर्ताओं को बताएं कि आम लोगों को सुरक्षा को इतने हल्के में नहीं लिया जा सकता. यूपीए आतंकवाद विरोध को सांप्रदायिक राजनीति के चश्मे से देखता रहा और मनमोहन खामोश रहे.

लगातार राष्ट्रीय सुरक्षा की उपेक्षा करने का ही ये नतीजा हुआ है कि आज इंडियन प्रीमियर लीग को देश से बाहर करवाना पड़ रहा है. मनमोहन आज एक ऐसी सरकार के मुखिया हैं जिसने ये मान लिया है कि भारत में भी हालात पाकिस्तान जितने ही खराब हैं. उनकी सरकार की लापरवाही के चलते आतंकवाद के खिलाफ सफलतापूर्वक लड़ने का भारत का दावा कमजोर हुआ है.

बात यहीं खत्म नहीं होती. एनडीए सरकार ने विरासत में यूपीए को एक स्वस्थ विकास दर से दमकती एक ऊर्जावान अर्थव्यवस्था सौंपी थी. पांच साल बाद मनमोहन ने एक ऐसी अर्थव्यवस्था छोड़ी है जिसकी बुनियाद साफ तौर पर लड़खड़ा रही है. यूपीए के समय अर्थव्यवस्था का स्वास्थ्य चरम को छू रहा था मगर इससे होने वाले फायदे को भविष्य में निवेश करने की जगह उसने व्यर्थ के व्यय का रास्ता चुना. वाजपेयी सरकार के समय राजमार्गों और ग्रामीण इलाकों में सड़कों के निर्माण जैसे जो अहम काम शुरू किए गए थे उनकी रफ्तार नाटकीय रूप से धीमी हो गई. ग्रामीण इलाकों में कर्ज और खुदकुशी जैसे मोर्चे पर नरेगा नाकाम रही. सरकार ने खचरें में जो लापरवाही दिखाई उसके चलते बाजारों में तरलता का अभाव हो गया. ब्याज दरें बढ़ीं और अपना घर और बेहतर जीवन जीने की एक मध्यवर्गीय भारतीय की उम्मीदें चौपट हो गईं. 2004 में कांग्रेस ने चुनावी घोषणापत्र जारी किया था उसमें हर साल एक करोड़ नई नौकरियां देने का वादा किया गया था. 2009 में हाल ये है कि भारतीय कंपनियों की धार कुंद होने के चलते डेढ़ करोड़ भारतीय अपनी नौकरी गंवा चुके हैं. इसकी प्रतिक्रिया में मनमोहन ने ये कहकर अपना पिंड छुड़ा लिया है कि फैसले उन्होंने नहीं किए थे.

कुछ दिन पहले कांग्रेस का चुनाव घोषणापत्र जारी करते हुए मनमोहन ने दावा किया कि उनकी पार्टी ने अपने 80 फीसदी वादे पूरे किए हैं. ये पूरी तरह से अतर्कसंगत और हास्यास्पद बात थी. इससे 1999 की याद ताजा हो जाती है जब दक्षिण दिल्ली से कांग्रेस के उम्मीदवार मनमोहन ने आरोप लगाया था कि 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिम्मेदार था.

1996 से भारत गठबंधन राजनीति के मुश्किल दौर में दाखिल हुआ. अब राष्ट्रीय पार्टियों के पास वह ताकत नहीं कि वे अपने बूते केंद्र में सरकार बना सकें. छोटी पार्टियों से समर्थन लेना अब उनकी मजबूरी है. इन मुश्किलों के बावजूद वाजपेयी और मनमोहन, दोनों ने गठबंधनों का नेतृत्व कर अपना कार्यकाल पूरा किया. मगर इन दोनों नेताओं की कार्यशैली बिल्कुल अलग रही. वाजपेयी के समय केंद्र सरकार सही मायनों में केंद्र सरकार थी जिसने अपना मुखिया खुद चुना था और जिसकी अपनी प्राथमिकताएं थीं. मनमोहन ने एक विकेंद्रीय व्यवस्था का नेतृत्व किया जहां हर मंत्री अपनी चला रहा था और सरकार का मुखिया सिर्फ एक प्रतीक बनकर रह गया था. वाजपेयी का जनता में अपना एक कद था और वे इसके बूते सरकार के मुखिया बने थे. मनमोहन ने तो प्रधानमंत्री के पद को ही महत्वहीन बना दिया. दूसरी तरह से कहा जाए तो उनका कार्यकाल ऐसा रहा जैसे कोई बर्फ के खेत पर पांवों के निशान छोड़े बगैर चला हो.

स्वपन दासगुप्ता

लेखक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं