एकतरफा मनमोहनी नीति

विदेश मामलो में बेहद कम रुचि और उससे भी कहीं कम अनुभव होने के बावजूद मनमोहन सिंह इस क्षेत्र में असाधारण रूप से स्पष्ट और दृढ़ तथा विवादित भी रहे. एक अनिर्वाचित और निर्देशों के लिए दस जनपथ की ओर ताकने वाले मनमोहन सिंह को हर वक्त इस बात का अहसास रहा कि एक राजनेता के तौर पर अपनी छाप छोड़ने की वो ज्यादा उम्मीद नहीं कर सकते. शायद इसीलिए मनमोहन सिंह ने खुद को विदेश नीति के मामलों में ही सीमित कर लिया. ये ऐसा क्षेत्र है जिससे देश के हर प्रधानमंत्री का पाला पड़ता ही है और शायद यही वो क्षेत्र भी रहेगा जहां वो अपनी कोई छाप छोड़ कर जाएंगे.

अमेरिका और इजराइल के बेहद नजदीक खड़ा करके मनमोहन सिंह ने भारत को अल-कायदा और दूसरे आतंकी गुटों के स्वाभाविक निशाने पर ला खड़ा किया है

जब पूरी दुनिया आपको सर आंखों पर बिठा रही हो तो ऐसे में बहक जाना कोई बड़ी बात नहीं. एक ऐसे समय में, जब एक बेहद चतुर रणनीतिक सक्रियता की आवश्यकता थी, पूरे एक साल तक बिना किसी विदेश मंत्री के काम चलाना मनमोहन सिंह के अति-आत्मविश्वास का ही द्योतक था. पर लोग शायद उन्हें ये बताना भूल गए कि भारत के प्रधानमंत्री को सार्वजनिक रूप से चीनी नेताओं के सामने ज्यादा सिर झुकाए नजर नहीं आना चाहिए. या अमेरिका के प्रति हमारा दृष्टिकोण खाटी राष्ट्रीय हितों पर आधारित होना चाहिए. पर ऐसे किसी प्रधानमंत्री के लिए ये बेहद सामान्य सी बात हो सकती हैजिसकी पार्टी का राष्ट्रीय प्रवक्ता ही पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश को भारत रत्न से सम्मानित करने की बात करता हो.

भारत के सतत मजबूत आर्थिक विकास ने इसे दुनिया भर के देशों की आंख का तारा बना दिया है. अवसरों की इस खिड़की से अपनी विदेश नीति का दायरा व्यापक करने की बजाए प्रधानमंत्री ने खुद को अमेरिकी मोह के दायरे में सीमित कर लिया. उनकी बचकानी सोच रही कि अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी और झूठ सच के घालमेल से खड़ा हुआ नागरिक परमाणु समझौता अपनी झोली में डालकर भारत महानता की दहलीज पर पहुंच जाएगा. अपने घोषणापत्र में कांग्रेस पार्टी द्वारा इसे प्रमुखता न देना ही ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि समझौते के संदर्भ में कांग्रेस के दावों में कितना दम था. मुंबई के आतंकवादी हमले और बराक ओबामा की अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में विजय ने हमें असलियत के दर्शन करा दिए है.   

अमेरिका और इजराइल के बेहद नजदीक खड़ा करके मनमोहन सिंह ने भारत को अल-कायदा और दूसरे आतंकी गुटों के स्वाभाविक निशाने पर ला खड़ा किया है. भारत और अमेरिका के बीच रणनीतिक साझीदारी की ख़बरों की छाया भारत के रूस और चीन के साथ रिश्तों पर भी पड़ी है. साल 2005 और 2006 में आईएईए में ईरान के खिलाफ वोट ने इस महत्वपूर्ण देश के साथ हमारे संबंधों पर भी असर डाला.

अपने पड़ोसियों के साथ हमने क्या किया? खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि यूपीए सरकार ने अपने पड़ोसियों को यही संदेश दिया कि उसे अपने पड़ोसियों में ज्यादा रुचि या उन्हें समझने की ज्यादा जरूरत नहीं है. मनमोहन सिंह के ज्यादातर विदेशी दौरे गरीबी-गंदगी वाली दक्षिण एशियाई राजधानियों की बजाय मनोरम पश्चिमी देशों में ही हुए. पाकिस्तान और बांग्लादेश संबंधी विदेश नीति अमेरिका से, नेपाल नीति सीपीएम से, श्रीलंका नीति डीएमके से आयात करने वाले प्रधानमंत्री ने खुद को कभी भी अपने पड़ोसियों के साथ जोड़ने की जरूरत महसूस नहीं की. लिहाजा कोई आश्चर्य नहीं कि पड़ोसी देशों में भारत द्वारा खाली किए गए स्थान पर तुरंत ही अमेरिका, चीन और पाकिस्तान ने कब्जा जमा लिया.

विदेशी मामलों में मनमोहन की संदिग्ध विरासत में विदेश नीति से जुड़ी राष्ट्रीय आम सहमति की परंपरा का विध्वंस, संसद की भूमिका का तिरस्कार, राजनीतिक पार्टियों और जनता की राय का अपमान जैसी चीजें शामिल हैं. कुछेक सफलताओं के बावजूद मनमोहन सिंह के रिपोर्ट कार्ड में असफलताओं के लाल निशान सफलता के इक्का-दुक्का हरे निशानों की तुलना में कहीं ज्यादा हैं.

राजीव सीकरी

(लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं और चैलेंज एंड स्ट्रेटजी: रीथिंकिंग इंडियाज फॉरेन पॉलिसी नामक पुस्तक के लेखक हैं)