बदलाव का सारथी

मनमोहन सिंह को हमेशा एक बदलाव पुरुष के रूप में जाना जाएगा. उन्होंने 1991-96 में और 2004-08 में भारतीय अर्थव्यवस्था में आमूलचूल बदलाव लाए. 90 के दशक के मध्य से पहले भारत ने कभी भी लगातार तीन साल तक सात फीसदी विकास दर का मुंह नहीं देखा था. और 2006-08 से पहले देश की अर्थव्यवस्था ने लगातार तीन साल तक नौ प्रतिशत की विकास दर के दर्शन नहीं किए थे

डॉ सिंह की वजह से भारत में उदारीकरण के दौर की शुरुआत हुई मगर उन्होंने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में दुनिया के हरसंभव मंच से समावेशी वैश्वीकरण का झंडा भी बुलंद किया

ये तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब ये ध्यान में रखा जाए कि 1991 में भारत दिवालिया होने के कगार पर खड़ा हुआ था और विश्व में इसका सबसे बड़ा सामरिक सहयोगी सोवियत संघ खंड-खंड होकर बिखर चुका था. देश में राजनीतिक उथल-पुथल चरम पर थी और हाल ही में राजीव गांधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस जैसे-तैसे अल्पमत वाली सरकार बना पाई थी. और ये सब इंदिरा गांधी की हत्या के मात्र छ साल बाद ही हो रहा था. उस समय कोई भी विश्लेषक भारत को 21वीं सदी की एक उभरती विश्वशक्ति के रूप में नहीं देख रहा था.

लेकिन इसके बावजूद 1991 में संसद में अपना पहला बजट पेश करते वक्त मनमोहन सिंह ने ये कहने की हिम्मत दिखाई कि भारत के एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरने का विचार एक ऐसा विचार है जिसका समय अब आ चुका है. इसके बाद जो हुआ वो जैसा कि कहा जाता है कि इतिहास बन गया.

1991 में मनमोहन सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था को एक नई पटरी पर रखा. साल 2008 में एक परमाणु शक्ति संपन्न शक्ति का दर्जा दिलवा कर एक उन्होंने देश को एक बार फिर से एक नई राह का राही बना दिया. आधुनिक भारत के राजनीतिज्ञों में शायद ही किसी के पास जनता के सामने रखने के लिए इस तरह की विरासत होगी.

अर्थव्यवस्था

एक वित्तीय प्रबंधक के रूप में सफलता ने मनमोहन सिंह की राष्ट्रीय और वैश्विक कीर्ति में असीम बढ़ोत्तरी की और इसी वजह से वे स्वाभाविक रूप से 2004 में प्रधानमंत्री के पद के लिए चुन लिए गए.

इस तथ्य को भी रेखांकित करना होगा कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी घरेलू बचत और निवेश में वृद्धि के चलते संभव हुई है. और ये वृद्धि देश के मध्य वर्ग की प्रगति, अधिक गतिशील व्यापारी वर्ग, ज्यादा सक्षम सार्वजनिक उपक्रम तथा विदेशी पूंजी निवेश में बढ़त के चलते संभव हुई थी जिनको डॉक्टर सिंह की ‘नई आर्थिक नीतियों’ की विरासत कहा जा सकता है.

पिछले कुछ महीनों में भारत को बाहर से देखते हुए मुझे बार-बार ये लगता रहा कि अपनी अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के लिए भारत सरकार की देश से बाहर कितनी जबर्दस्त साख है. मगर घरेलू मोर्चे पर सभी मुद्दों का राजनीतिकरण और मीडिया की चर्चा के बजाय विवाद पैदा करने में रुचि होने की प्रवृत्ति हमें ये सोचने ही नहीं देती कि मंदी के इस दौर में हम आज दुनिया के दूसरे ज्यादातर देशों से कहीं बेहतर स्थिति में हैं.

मुझे याद आता है कि रिजर्व बैंक  के पूर्व गवर्नर बिमल जालान के साथ वो उन कुछ चुनिंदा लोगों में से थे जिन्होंने आसन्न वैश्विक आर्थिक संकट को काफी पहले ही भांप लिया था. इसके बाद जहां पूर्व आरबीआई गवर्नर वाईवी रेड्डी ने भारतीय बैंकों और वित्त व्यवस्था को इसके लिए तैयार करने से संबंधित कदम उठाए वहीं डॉ सिंह ने 2008-9 के बजट में विकास दर को सुचारू बनाए रखने के लिए राजकोषीय नीतियों को चुस्त-दुरुस्त करने की जरूरत को रेखांकित किया.

मुद्रास्फीति की बढ़ती दर पर ज्यादा कुछ न करने की आलोचना के जवाब में डॉ सिंह का कहना था कि ये बाहर से आयातित है क्योंकि ऐसा पेट्रोलियम उत्पादों के बढ़े हुए दामों की वजह से हो रहा था और इन परिस्थितियों में भी भारत को अपने विकास की गति को कमजोर नहीं पड़ने देने के प्रयास करने चाहिए. परंपरागत बुद्धिमत्ता के उलट डॉ सिंह ऐसा करने की हिम्मत शायद इसलिए दिखा सके क्योंकि वे बीसवीं सदी के महान अर्थशास्त्री जॉन मेनॉर्ड केन्स से अत्यधिक प्रभावित रहे हैं. इस बात का पता मुझे तब चला जब मैं अक्टूबर 2006 में उनके साथ मुंबई की हवाई यात्रा पर था. प्रधानमंत्री को ‘द इकनॉमिक टाइम्स’ के एक पुरस्कार समारोह में बोलना था. मेरे पास उनका भाषण था जिसे पढ़ने का समय उन्हें पहली बार हवाई जहाज में ही मिल पाया था. उन्होंने भाषण में कुछ छिटपुट परिवर्तन तो किए ही साथ ही केन्स की किताब द इकनॉमिक कन्सीक्वेन्सेज ऑफ द पीस में से एक काफी लंबा उद्धरण भी भाषण में जोड़ दिया. वो चाहते थे कि ये उद्धरण पूरी तरह से सही है या नहीं इसकी जांच कर ली जाए. मुंबई पहुंचने के बाद हमने किताब की एक प्रति बांबे यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी से मंगवाई और ये देखकर हम आश्चर्यचकित रह गए कि उनके द्वारा लिखा उद्धरण शत-प्रतिशत सही था

वो उद्धरण था- यदि धनी अपने नए धन को अपने मौज-मजे के लिए ही खर्च करते तो दुनिया इसे कतई स्वीकार नहीं करती. लेकिन मधुमक्खियों की तरह उन्होंने धन बचाया और इकट्ठा किया जिससे सभी का किसी-न-किसी रूप में फायदा हुआ..उन्हें केक के सबसे बढ़िया हिस्से को अपना कहने की छूट थी और सिद्धांतत: वो इसे खा भी सकते थे. मगर एक अनकही सहमति ये थी कि वे असल में इसमें से बहुत थोड़ा सा ही खाएंगे..

उन्होंने समारोह में मौजूद भारतीय व्यवसायियों से बचत करने, निवेश करने और ‘समावेशी विकास’ की प्रक्रिया को अपनी कंपनियों की बेहतरी के लिए इस्तेमाल करने की अपील की. कुछ महीनों के बाद उन्होंने सीआईआई की सालाना बैठक में कहा कि भारतीय व्यवसायियों को अपने विकास की प्रक्रिया को अधिक समावेशी बनाने के लिए ज्यादा चुस्ती दिखानी होगी. उनकी ‘समावेशी वैश्वीकरण’ की अवधारणा को दुनिया भर में सराहा गया है, विशेषकर एशिया और अफ्रीका में और अब इसका असर जी-20 की चर्चाओं में भी देखा जा सकता है.

डॉ सिंह की वजह से भारत में उदारीकरण के दौर की शुरुआत हुई मगर उन्होंने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में दुनिया के हरसंभव मंच से समावेशी वैश्वीकरण का झंडा भी बुलंद किया. यही दक्षिण आयोग का भी तो संदेश था जिसके 80 के दशक में वो महासचिव थे.

संप्रग के मुख्य कार्यक्रम

बतौर प्रधानमंत्री डॉ सिंह ने अपनी सरकार का फोकस तीन मुख्य क्षेत्रों पर रखा – मूलभूत ढांचा, कृषि और ग्रामीण विकास और शिक्षा. विकास पर जोर देने के साथ-साथ वो इसे ज्यादा से ज्यादा समावेशी भी बनाना चाहते थे. इन तीन क्षेत्रों में निवेश करने से ऐसा किया जाना संभव था.

डॉ सिंह ने सामाजिक विकास के जिस क्षेत्र में सबसे गहरी रुचि दिखाई वो था शिक्षा. उन्होंने एक ऐसे गांव में अपना बचपन बिताया था जहां न बिजली थी और न ही स्कूल. पढ़ने के लिए उन्हें रोज मीलों पैदल चलना पड़ता था. इसलिए डॉ सिंह ने शिक्षा के क्षेत्र में एक नई क्रांति लाने को अपना लक्ष्य बना लिया. उन्होंने 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) को ‘राष्ट्रीय शिक्षा योजना’ का नाम दिया क्योंकि इसमें शिक्षा के लिए धन के आवंटन में काफी बढ़ोत्तरी की गई थी. हजारों नये स्कूल, सैकड़ों नये कॉलेज और कम से कम 30 नये केंद्रीय विश्वविद्यालयों को इस योजना से धन मुहैया कराया गया.

उन्होंने छात्रवृत्ति और फेलोशिप के अब तक के सबसे बड़े कार्यक्रम को चलाया जिसमें मुख्य जोर अनुसूचित जाति और जनजाति, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों – खासकर मुस्लिम समुदाय – बालिकाओं और महिलाओं पर था.

सांप्रदायिक सद्भाव

राजनीतिक चर्चाओं में इस बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती है कि पिछले पांच साल सांप्रदायिक सद्भाव के लिहाज से शांति के वर्ष रहे हैं. पिछले पांच सालों में करीब-करीब हर आतंकी हमला सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने को लक्ष्य बनाकर किया गया. मगर शायद ही कभी आतंकी ऐसा करने में सफल रहे हों. जब भी कहीं आतंकवादियों ने हमला किया तो डॉ सिंह ने तुरंत सभी लोगों से शांति और एकता बनाए रखने की अपील की. उनकी पहली प्राथमिकता ये सुनिश्चित करने की रही कि लोगों की हताशा और गुस्सा किसी तरह के सांप्रदायिक ज्वार में न तब्दील हो जाए. वो अक्सर कहा करते हैं कि जो कुछ गुजरात में हुआ वो दुबारा नहीं होना चाहिए.

हालांकि कई बार सांप्रदायिक तनाव की स्थितियां जरूर बनीं मगर उन्हें विस्फोटक होने से पहले ही नियंत्रित कर लिया गया. यहां तक कि बनारस, अयोध्या और नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय पर हमलों के बाद भी – जो कि सांप्रदायिक दंगे और गुजरात जैसा भयानक नरसंहार कराने के उद्देश्य से किए गए थे – सरकार ने ऐसा कुछ नहीं होने दिया गया. सभ्य समाज के सक्रिय योगदान ने भी इसमें सरकार की काफी मदद की.

विदेश नीति

भारत में विदेश नीति हमेशा प्रधानमंत्री के कार्यक्षेत्र का हिस्सा रही है. इसलिए विदेशनीति से संबंधित ज्यादातर उपलब्धियों और मसलों पर प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छाप होती है. मनमोहन सिंह को कम से कम उनकी विदेश नीति से संबंधित दो पहलों के लिए याद किया जाएगा. पहला, अमेरिका और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह और अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा संगठन के साथ हुआ नागरिक परमाणु ऊर्जा सहयोग समझौता और दूसरा भारत-आसियान मुक्त व्यापार समझोता जो मुकाम पर पहुंचने की कगार पर खड़ा हुआ है.

परमाणु समझौता, जैसा कि इसे मीडिया ने नाम दिया है, भारत के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होने वाला है. इसके माध्यम से विश्व समुदाय ने एक तरफ तो एक तरह से भारत को परमाणु हथियार संपन्न देश का दर्जा दे दिया है वहीं दूसरी ओर परमाणु अप्रसार के क्षेत्र में भारत के बेदाग रिकॉर्ड को भी स्वीकार कर लिया है. परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों और अमेरिका के साथ हुए समझौते ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा भारत के साथ किए जा रहे भेदभावपूर्ण व्यवहार, जो कि कोल्ड वार के समय की याद दिलाता था, को खत्म कर दिया है. अगर डॉ सिंह इस मामले में दृढ़ न रहते तो ज्यादातर नेताओं में दूरगामी दृष्टि के अभाव के चलते ऐसा होना हर्गिज संभव नहीं हो पाता.

डॉ सिंह ने अरब देशों के साथ संबंध में नई नीतियों की बुनियाद डाली. उन्होंने पहले के राजनीतिक एजेंडे की प्रधानता वाले संबंधों के उलट उन्हें भारत की ऊर्जा और निवेश की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए आर्थिक एजेंडे पर संतुलित करने का प्रयास किया. भारत और गल्फ देशों के बीच मुक्त व्यापार का समझौता अपने अंतिम चरण में है और सऊदी अरब के किंग की भारत यात्रा ने इस अतिमहत्वपूर्ण इस्लामी देश के साथ हमारे संबधों में एक नए युग का सूत्रपात किया.

दो बेहद महत्वपूर्ण कदम, जिनका अभी तक कोई नतीजा नहीं निकल सका है, – चीन के साथ सीमा विवाद को सुलझने का प्रयास और कश्मीर को लेकर पाकिस्तान से चल रहे विवाद पर बातचीत. दोनों ही मुद्दों पर डॉ सिंह ने नये, निर्भीक और मौलिक विचारों को मेज पर रखा. लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि पाकिस्तान और चीन के नेताओं की अंदरूनी बाधाओं ने उन्हें भी ऐसा ही करने की इजाजत नहीं दी. जब इन विवादों के अंतिम हल निकल आएंगे तो मुझे यकीन है कि वो डॉ सिंह द्वारा सुझाए हलों से बहुत ज्यादा अलग नहीं होने वाले.

डॉ सिंह ने सार्क की ढाका, दिल्ली और कोलंबो की शिखर बैठकों में कई पहलें कर क्षेत्रीय संबंधों में एक नई जान फूंकी. उनके, कम विकसित देशों को करों के जरिये रियायतें देने वाले ‘असमान उदारीकरण’ को बढ़ावा देने के फैसले ने – जिसे उन्होंने पहली बार 2008 की शुरुआत में भारत-अफ्रीका शिखर सम्मेलन में दिल्ली में दुनिया के सामने रखा था – दक्षिण-दक्षिण सहयोग के क्षेत्र में एक नये अध्याय की शुरुआत की है.

गठबंधन प्रबंधन

हालांकि ज्यादातर प्रेक्षक डॉ सिंह को उनके आर्थिक और विदेश नीति से संबंधित कदमों का श्रेय देंगे मगर राजनीतिक विश्लेषकों को उन्हें पांच साल तक एक बेहद नाजुक गठबंधन को सुचारू रूप से चलाने के लिए भी सराहना होगा. ये यात्रा आसान तो बिल्कुल भी नहीं थी. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि कांग्रेस खुद भी कई प्रतिस्पर्धी मंचों का गठबंधन है. उनके और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बीच बढ़िया रिश्तों ने उन्हें पार्टी और गठबंधन में समय-समय पर आ खड़ी हुईं तमाम मुश्किल परिस्थितियों से उबरने के लायक बनाया. दोनों में एक-दूसरे के प्रति गहरे सम्मान की भावना है. उनमें मौजूद आपसी विश्वास ने दोनों को मिलकर तमाम तरह के तूफानों का मुकाबला करने की ताकत दी. एक विभिन्नताओं से भरे गठबंधन के नेता के तौर पर कई बड़े नीतिगत फैसले लेने और आतंकवाद, चरमपंथ, मुद्रास्फीति और सांप्रदायिक और क्षेत्रीय तनाव जैसी घरेलू चुनौतियों से निपटने के लिए अत्यधिक बुद्धिमत्ता, सहनशीलता और राजनीतिक कौशल की जरूरत होती है. और उन्होंने दिखा दिया कि ये उनमें प्रचुर मात्रा में है.

एक गठबंधन के नेता के तौर पर उन्होंने हमेशा अपने सहयोगियों और वरिष्ठ साथियों को अपने हर नीतिगत निर्णय में साथ लेकर चलने के हरसंभव प्रयास किए. एक ऐसे व्यक्ति के लिए जो फुर्ती से काम करने में यकीन रखता हो, ये कभी-कभी काफी हताशाजनक हो सकता था. मगर उन्हें हमेशा इस बात का एहसास रहा कि किसी भी नीतिगत निर्णय पर अंदरूनी एकमतता उसकी बाहरी सफलता के लिए बेहद जरूरी है.

भारत अमेरिका परमाणु समझौते पर चलीं लंबी वार्ताएं सहमति बनाने की उनकी चाह के सबसे स्पष्ट प्रमाण हैं. लेकिन और भी मद्दे हैं जिनपर उन्होंने गठबंधन के अपने सहयोगियों, पार्टी और मंत्रिमंडल के अपने साथियों और सरकार से बाहर के महत्वपूर्ण प्रेक्षकों को निजी तौर पर फोन करने में जरा भी संकोच नहीं किया.

ये दुर्लभ सहनशीलता और सभी को सुनने की उनकी अभिलाषा ही है जो एक मुश्किल गठबंधन के प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी और पांच साल तक बखूबी चले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सफलता के मूल में है. उनका कोई राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी ये नहीं कह सकता कि उसके साथ प्रधानमंत्री ने सही बर्ताव नहीं किया. चाहे संसद हो या राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक या कभी खत्म न होने वाली मंत्रिमंडल की समितियों की बैठकें या जम्मू कश्मीर पर गोलमेज सम्मेलन – यहां तक कि युवा नेता और प्रशासनिक अधिकारी भी इनमें ऊंघते या इनसे बचते देखे गए मगर डॉ सिंह इनमें शुरुआत से अंत तक पूरे मनोयोग से लोगों को सुनते, नोट्स बनाते और जहां जरूरी हो जवाब देते देखे जा सकते थे.

दिल और दिमाज की यही वो विशेषताएं हैं जो उन्हें भारत के लोगों के दिलों के नजदीक ले जाती हैं और इसका एक उदाहरण हमें तब देखने को मिला जब वो अपने हृदय की शल्य चिकित्सा के लिए अस्पताल में भर्ती हुए थे.

संजय बारू

लेखक प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार रह चुके हैं और वर्तमान में सिंगापुर स्थित ली क्वान यू स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी में अध्यापनरत हैं