तारनहार इमोशनल अत्याचार

वाकया हफ्ता भर पहले का है. मुंबई में वरसोवा के एक छोटे से रेस्टोरेंट में बैठी एक लड़की ने पूछा, कौन है ये अनुराग कश्यप? फैशन का डायरेक्टर? ये सुनते ही वहां बैठे कुछ लोगों में खुसुर-फुसुर होने लगी. दरअसल उस महिला ने बड़े दिलचस्प मौके पर ये बात कही थी क्योंकि उसी रेस्टोरेंट में पैशन फॉर सिनेमा के जुनूनी ब्लागर्स के साथ कश्यप भी बैठे हुए थे. पहले तो कश्यप ये सुनकर चौंके मगर फिर हाथ मलते हुए मजाकिया मूड में बोले, ‘नहीं, नहीं, अनुराग कश्यप तो फैशन स्टेटमेंट का डायरेक्टर है.’

 ऐसा भी वक्त रहा जब कश्यप की ज्यादा पूछ नहीं थी. 2003 में उनकी फिल्म पांच को सेंसर ने लटका दिया तो अगले ही साल ब्लैक फ्राइडे के प्रदर्शन पर कोर्ट के एक आदेश ने रोक लगा दीलड़की को अब भी समझ में नहीं आया कि माजरा क्या है. इससे पहले अंधेरी के अपने शांत से ऑफिस में कश्यप की सुबह बधाई के फोन कॉल्स का जवाब देते-देते बीती थी. एक दिन पहले ही उनकी फिल्म गुलाल रिलीज हुई थी और हर कोई उनकी तारीफ में कसीदे पढ़ रहा था. पहले देव डी और फिर गुलाल ने बतौर निर्देशक उनके नाम का वजन कई गुना बढ़ा दिया था. बड़े स्टार्स जो पहले कश्यप का फोन भी नहीं उठाते थे अब उनके नए प्रोजेक्ट्स में किसी रोल की संभावना तलाश रहे थे. एक प्रोड्यूसर तो फोन पर यहां तक कह गए कि वे अपने दोस्तों को ये साबित करने के लिए गुलाल दिखाने ले गए कि एक नया बॉलीवुड आ पहुंचा है. कश्यप कहते हैं, ‘मैंने इस फिल्म को बनाने के लिए दस साल तक इंतजार किया है और साबित ये जनाब कर रहे हैं.’ हालांकि जैसे-जैसे बधाई भरे फोन्स आने का सिलसिला बढ़ता जाता है कश्यप के मन की ये कड़वाहट भी गायब होने लगती है.

कश्यप ने बॉलीवुड में अपनी शुरुआत 1998 में रामगोपाल वर्मा की फिल्म सत्या के साथ की. इस फिल्म की स्क्रिप्ट उन्होंने सौरभ शुक्ला के साथ मिलकर लिखी थी. वे उर्दू आधारित डॉयलॉग्स की बजाय बोलचाल की हिंदी इस्तेमाल करने वाले शुरुआती लोगों में से थे. अपनी 20 स्क्रिप्ट्स में उन्होंने इसी हिंदी का इस्तेमाल किया जिसमें एक तरफ लुग्दी लेखन के सुपरस्टार सुरेंद्र मोहन पाठक का असर था तो दूसरी ओर इंसानी मन की गहराइयों की थाह रखने वाले प्रेमचंद की भी छाप थी.

फिर कश्यप जब निर्देशन के क्षेत्र में उतरे तो उन्होंने ऐसी फिल्में रचीं जो रटे-रटाए ढर्रे पर नहीं चलती थी. ब्लैक फ्राइडे में पुलिस द्वारा इम्तियाज गवाथे का पीछा करने के दृश्य को इस तरह के सबसे अच्छे दृश्यों में शुमार किया गया तो नो स्मोकिंग के अतियथार्थवाद की भी खूब चर्चा हुई.

मगर इस सफलता के पीछे संघर्ष की एक लंबी कहानी है. ऐसा भी वक्त रहा जब कश्यप की ज्यादा पूछ नहीं थी. 2003 में उनकी फिल्म पांच को सेंसर ने लटका दिया तो अगले ही साल ब्लैक फ्राइडे के प्रदर्शन पर कोर्ट के एक आदेश ने रोक लगा दी. और फिर 80 फीसदी काम पूरा हो जाने के बाद 2006 में गुलाल भी डिब्बे में बंद हो गई. ये वो दौर था जब कई लोगों को लगता था कि कश्यप पर दुर्भाग्य का साया है और कहीं इसकी थोड़ी-बहुत छाया उन पर भी न पड़ जाए. उनसे कहा गया कि उन्हें फिल्में बनाना बंद कर देना चाहिए. उनके साथ कोई था तो हिंदी सिनेमा के कुछ गिने-चुने बुद्धिजीवी प्रशंसक. 2006 में बुरी तरह निराश कश्यप ने फिल्म इंडस्ट्री के सभी लोगों को एक एसएमएस भेजकर मदद की गुहार लगाई जो उनके दोस्तों के लिए एक चौंकाने वाली बात थी. किसी का जवाब नहीं आया सिवाय जॉन अब्राहम के जिन्होंने खुशी से कश्यप को लास एंजेल्स जाने का टिकट खरीदकर दे दिया ताकि उनकी हवाबदली हो जाए. वहां कश्यप ने नो स्मोकिंग की स्क्रिप्ट लिखी. मगर इंसान के कुछ भीतरी कोनों को टटोलती ये फिल्म जब प्रदर्शित हुई तो आलोचकों ने इसे कमजोर आंका और दर्शकों की प्रतिक्रिया भी कोई खास नहीं रही. इन सब ठोकरों ने कश्यप को इतनी गहरी निराशा और कुंठा से भर दिया कि जब यूटीवी स्पॉटब्वॉय की रुचा पाठक ने उनके प्रोजेक्ट्स में दिलचस्पी जताई तो उनका जवाब काफी गुस्से से भरा था.

और फिर देव डी आई और सब कुछ बदल गया. अब हर कोई उनका मुरीद है. आदित्य चोपड़ा जैसे निर्देशक भी जिनके सरसों के खेत के मायने देव-डी की पारो और उसकी साइकिल पर लदे मैट्रेस ने बदल दिए. आज इमोशनल अत्याचार और गुलाल के मुजरे का खुमार सबके सिर चढ़कर बोल रहा है. हालांकि देव-डी के तुरंत बाद कश्यप ने दोस्तों से कहा था कि वे नाकामयाबी के लिए कहीं बेहतर तरीके से तैयार थे.

कश्यप की शुरुआती पढ़ाई बोर्डिंग स्कूल में हुई. राज्य विद्युत बोर्ड में नौकरी करने वाले उनके पिता को लगता था कि बोर्डिंग ही बच्चे के लिए मुफीद जगह है. मगर स्कूल में दोस्तों से मार खाने और कुछ पड़ोसियों द्वारा शारीरिक र्दुव्‍यवहार की कड़वी यादें उनके संवेदनशील मन की जमीन पर कभी न मिटने वाली लकीरें बना गईं. जैसा कि वे बताते हैं, ‘इसके चलते मैं सेक्स के मामले में अक्षमता का शिकार हो गया. साथ ही मैं अक्सर अवसाद में रहने लगा.’ फिर जब कश्यप दिल्ली आए तो उन्होंने शरीर को गठीला बनाया और जल्द ही कॉलेज में मारपीट करने वाले छात्र के रूप में कुख्यात हो गए. वे कहते हैं, ‘मैं फिर से वह सब झेलना नहीं चाहता था.’

कॉलेज के दिनों में जूनियर्स के साथ ज्यादा वक्त बिताने की वजह से कश्यप के क्लासमेट्स उन्हें बच्चों का दादा कहकर चिढ़ाते थे

कुछ साल पहले ही उन्होंने अपने परिवार को अपने साथ हुए शोषण के बारे में बताया. हाल ही में काफी कोशिश करके उन्होंने उन लोगों के साथ भी आंखें मिलाईं जिनके दुर्व्‍यवहार का वे शिकार हुए थे. कश्यप ने उन्हें माफ तो कर दिया मगर एक पिता के रूप में उन्हें हमेशा इस बात का ध्यान रहता है. 10 साल की बेटी आलिया के बारे में बात करते हुए कश्यप कहते हैं, ‘मैं उसे छूते हुए बहुत सावधान रहता हूं.’

अपने बनारस से होने को लेकर कॉलेज में कश्यप असुरक्षा के शिकार थे. मगर उनके आसपास ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जिन्हें जिंदगी में किसी बात को लेकर असुरक्षा नहीं थी. इनमें एक लड़की भी थी जिसने ब्वॉयज हॉस्टल में एक लड़के के कमरे में एक रात बिताकर स्कैंडल खड़ा कर दिया था और अगली ही सुबह इससे बेपरवाह वह उस लड़के की शर्ट पहनकर कॉलेज की मेस में नाश्ता करने चली आई थी. उस सहित कई और लड़कियां कश्यप की करीबी दोस्त बनीं जिन्होंने औरत के भीतर के संसार को समझने में उनकी मदद की. उनकी फिल्में भले ही पुरुष प्रधान रही हों मगर उनमें महिलाओं की उपस्थिति खासी सशक्त रही है. भीखू म्हात्रे की पत्नी प्यारी, देव डी की पारो और चंदा, नो स्मोकिंग की डांसर्स और गुलाल के महिला चरित्र इसका सबूत हैं.

उनके माता-पिता भले ही इस बात को लेकर परेशान रहे हों कि अपने इस बेचैन और उपद्रवी बेटे से कैसे निपटा जाए मगर मुंबई में उनका एक करीबी परिवार बन गया है. रुचा पाठक उन्हें अपने भाई जैसा मानती हैं तो अनुभवी थियेटर कलाकार और गुलाल के असाधारण संगीत रचयिता उन्हें अपने पिछले जन्म का बेटा बताते हैं.

कई साल पहले फिल्मकार इम्तियाज अली अपने पुराने कॉलेज हिंदू में आए थे. कश्यप ने जब सुना कि अली एक टेलीविजन सीरियल के लिए एक्टरों के चुनाव में मदद कर रहे हैं तो वे उनसे मिलने जा पहुंचे. सीरियल तो बन नहीं पाया मगर थियेटर में गहरा शौक रखने वाले अली और कश्यप की बढ़िया छनने लगी. बाद में अली ने मुंबई में एक एडवरटाइजिंग कोर्स ज्वॉइन कर लिया और कश्यप से उनका संपर्क टूट गया. एक शाम जब वे जेवियर हॉस्टल लौटे तो उन्होंने पाया कि कश्यप उनका इंतजार कर रहे हैं. दरअसल मुंबई में रहने के लिए उनके पास कोई ठिकाना नहीं था और वे कुछ समय तक अली के हॉस्टल रूम में रहे.

उन दिनों को याद कर कश्यप कहते हैं, ‘नौकरी के बावजूद ऐसे दिन रहे जब मुझे खुले आसमान के नीचे सोना पड़ता था.’ अगले ही पल वे मजाकिया लहजे में कहते हैं, ‘लेकिन मेरा टॉयलेट ताज में था.’ कश्यप की जिंदगी अली के साथ गुंथी रही जो मानते हैं कि कश्यप इतने भी दुर्भाग्यशाली नहीं थे. जैसा कि अली कहते हैं, ‘अनुराग को अपनी फिल्में बनाते वक्त काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा और वे काफी निराश भी रहे. मगर ये होता रहता है. कम से कम उन्हें फिल्में बनाने के मौके तो मिलते रहे.’

अब जब कश्यप की एक खास पहचान बन गई है तो ये खतरा भी बढ़ गया है कि ये सफलता कहीं उन्हें रामगोपाल वर्मा की राह पर न ले जाए. कामयाबी का ये नशा कहीं उन्हें एक ऐसी दुनिया में न पहुंचा दे जहां हर कोई उनसे सहमत दिखे. अगर उनकी अगली फिल्म में जैसा चाहा प्राप्त करने की भावना देव-डी से ज्यादा दिखे तो क्या उनके शुभचिंतक उन्हें चेताने की जहमत उठाएंगे?

जहां तक कश्यप का सवाल है तो सफलता का स्वाद चखने के बाद अब वह धड़ाधड़ फिल्में बनाने की इच्छा नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘मुझे डर लग रहा है कि कामयाबी के इस खुमार में मैं पता नहीं कैसी फिल्म बना बैठूं. यही वजह है कि मैं अभी कुछ समय तक कुछ नहीं करूंगा. और मैं जानबूझकर बजट भी कम करने जा रहा हूं.’ पिछले ही हफ्ते उन्होंने पैशन फॉर सिनेमा पर लोगों से उस सिनेमा पर ध्यान देने की अपील की जिसकी वे पैरोकारी करते हैं. उन्होंने लिखा, ‘फिराक और बारहआना जैसी फिल्मों पर चर्चा क्यों नहीं हो रही? ये दोनों ही फिल्में आज मैंने खाली थियेटर में बैठकर देखी हैं.’

फिलहाल कश्यप डोगा की स्क्रिप्ट लिख रहे हैं. उन्हें राज कॉमिक्स का सुपरहीरो डोगा पसंद है जिसके पास सुपरपॉवर्स के बजाय सिर्फ भावनाओं की तीव्रता होती है. ये बड़े बजट की फिल्म होगी और इसमें काफी स्पेशल इफेक्ट्स भी होंगे. आजकल कश्यप काफी शांत हैं और इसका काफी श्रेय उनकी गर्लफ्रेंड कल्कि कोक्लिन को जाता है. अपनी पत्नी आरती बजाज, जो कि एक एडिटर भी हैं, से अलग हुए उन्हें तीन साल हो चुके हैं. कश्यप बताते हैं, ‘वह मेरी पीने की आदत और अवसाद से परेशान हो गई थी. हालांकि हम अब भी साथ-साथ काम करते हैं.’ बीच में उनका संबंध एक्ट्रेस आएशा मोहन से भी रहा मगर ये ज्यादा नहीं चल पाया.

कल्कि का आना उनकी जिंदगी में अप्रत्याशित रहा. दरअसल देव-डी में चंदा की भूमिका के लिए अभिनेत्री की तलाश जोर शोर से चल रही थी. कश्यप ने कल्कि का पोर्टफोलियो देखते ही ये कहते हुए रिजेक्ट कर दिया कि, ‘मैं कोई गोरी मॉडल टाइप लड़की नहीं चाहता.’ उन्होंने कल्कि का ऑडिशन भी नहीं देखा. मगर फिर बाद में हालात कुछ ऐसे बदले कि वही कल्कि कश्यप को चंदा के रोल के लिए सबसे फिट लगीं. फिल्म बनाने के बाद कश्यप अमेरिका चले गए जहां उन्हें ये अहसास हुआ कि उन्हें कल्कि से प्यार हो गया है. उधर, कल्कि का हाल भी कुछ यही था. फिल्म इंडस्ट्री में लोग अक्सर प्रेम संबंधों को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने से कतराते हैं मगर कश्यप और कल्कि इस मामले में काफी खुले मिजाज के रहे हैं. कश्यप के मुताबिक अब वे काफी बदल गए हैं. अब वे पार्टियों में देर रात तक नहीं रहते.

कॉलेज के दिनों में जूनियर्स के साथ ज्यादा वक्त बिताने की वजह से कश्यप के क्लासमेट्स उन्हें बच्चों का दादा कहकर चिढ़ाते थे. आज भी कश्यप फिल्मी दुनिया के जूनियर्स यानी कि नए विचारों से भरे हुए प्रतिभाशाली और महत्वाकांक्षी लेखकों और निर्देशकों से घिरे रहते हैं. इस साल उनकी इन प्रतिभाओं की चार सबसे बेहतरीन स्क्रिप्ट्स पर फिल्म बनाने की योजना है.

कश्यप और उनके समकालीन इम्तियाज अली, श्रीराम और श्रीधर राघवन, शिवम नायर और निशिकांत कामत बॉलीवुड की दुनिया में नए सांचे गढ़ रहे हैं. वे हर स्तर पर एक दूसरे को अपनी स्क्रिप्ट दिखाते रहते हैं. यही नहीं, फिल्म के आलोचकों और जनता तक पहुंचने से पहले वे इसे एक दूसरे को दिखाते हैं. ये सभी दोस्त आज इससे खुश हैं कि कश्यप की बेचैनी से उपजी सृजनात्मकता का जादू आखिरकार पूरी तरह से चल गया है.