यह तितली सी चंचल चांद (प्रीति जिन्टा) के खूबसूरत सपने की कुरूप यथार्थ से सीधी मुठभेड़ है. चांद का सपना कुछ यूं टूटता है कि चांद हक़ीकत और फसाने के बीच का फर्क खो बैठती है. आगे पूरी फिल्म में इस टूटे सपने की बिखरी किरचें हैं जिन्हें समेटने में उसकी मदद करने वाला कोई नहीं. वो अकेली जितना ऐसा करने की कोशिश करती है उतना ही खुद को लहूलुहान करती है.
अपने देश, अपनी पहचान से दूर दड़बेनुमा घर में कैद अपने पति की बेरहमी की शिकार चांद की लड़ाई अपनी पहचान की लड़ाई है. पति से प्यार और दुलार की अथक चाह उसे एक ऐसी मिथकीय कहानी पर विश्वास करने के लिए मजबूर कर देती है जिसमें एक शेषनाग उसके पति का रूप धरकर आता है और उसे दुलारता है. इस मिथकीय कथा को तर्क की कसौटी पर कसना और फिर नकार देना आसान है लेकिन यान मारटेल का बहुचर्चित लाइफ ऑफ पाई पढ़ने वाले जानते हैं कि असहनीय यथार्थ का सामना करने के लिए काल्पनिक चरित्रों को गढ़ना इंसानी मजबूरी है. गिरीश कर्नाड के नाटक नागमंडलम से लिया गया फिल्म का ये हिस्सा दरअसल उस मनोस्थिति के बारे में है जिससे फिल्म में चांद को गुजारना पड़ता है. उसकी त्रासदी को दीपा मेहता सिनेमा के पर्दे को बार-बार स्याह-सफेद रंगकर और भी तीखेपन से उभारती हैं. प्रीति यहां अपनी मुखर सार्वजनिक छवि के उलट दूर देश में फंसी एक असहाय लड़की के किरदार में जान फूंक देती हैं और बाकी तमाम अनजान चेहरे इस फिल्म को अपनी नैसर्गिक अदायगी से वृत्तचित्र का सा तेवर देते हैं.
ये कहानी बदहाल हो रहे उस पंजाब की कहानी भी है जिसके सपने भी अब किसी दूर देस में मौजूद अनदेखे सुनहरे भविष्य से लगाई उम्मीद के मोहताज हैं. आमतौर से स्त्री पर होती घरेलू हिंसा पर आधारित कहानियों में मुख्य खलनायक पति या घरवाले ही होते हैं लेकिन दीपा की विदेश साफ करती है कि व्याख्याएं हमेशा इतनी सरल नहीं होती. यहां बहू की पिटाई में संतुष्टि पाने वाली सास में एक असुरक्षित मां छिपी है और पत्नी को मारने वाला पति उन एन.आर.आई. सपनों को ढोती जीती-जागती लाश है जिसे फीलगुड सिनेमा के नाम पर हिन्दुस्तानी फिल्मों ने सालों से बुना है.
मिहिर पंड्या