जब कोई व्यक्ति किसी तीखी ढलान पर उतरना शुरू करता है तो शुरुआत में उसे आगे बढ़ने या यूं कहें कि नीचे उतरने के लिए कोई खास प्रयास नहीं करने होते. उसे केवल खुद को थोड़ा ढीला छोड़ना होता है और बाकी का काम धरती का गुरुत्वाकर्षण बल कर देता है. इस प्रकार लगभग बिना ऊर्जा नष्ट किए व्यक्ति आगे बढ़ने लगता है. मगर ये आसानी केवल शुरुआत में ही नजर आती है. यदि उसे अपनी इस यात्रा को निर्बाध जारी रखना है तो गिरने से बचने के लिए अपनी गति को लगातार तेज करते रहना होगा. यदि वो रफ्तार के एक सीमा में रहते अपने गंतव्य तक पहुंच जाता है तो ठीक, अन्यथा संतुलन खोकर उसके औंधे मुंह गिर जाने या किसी बाधा के आ जाने पर उससे टकराने की आशंका आसन्न रहती है.
राजनीति के ककहरे की अभी शुरुआत ही करने वाले वरुण गांधी ने सांप्रदायिकता के क्षत्रज्ञ की हुंकार क्या भरी कि भाजपा के नेता-कार्यकर्ता उन्हें आडवाणी और नरेंद्र मोदी के बाद पार्टी का स्टार प्रचारक बनाने पर तुल गए हैं
हमारे देश में सांप्रदायिक राजनीति का अभ्यास भी कुछ-कुछ ढलान पर नीचे उतरने के अनुभव जैसा ही है. इसके शुरुआती परिणाम इसका अभ्यास करने वालों में जरूरी से कुछ ज्यादा ही आशा का संचार कर देते हैं. जब कोई वरुण गांधी जैसा व्यक्ति इस रास्ते पर चलने की शुरुआत करता है तो न के बराबर मेहनत में उसे वो परिणाम मिलने शुरू हो जाते हैं जिनके लिए महात्मा गांधी जैसे या फिर सिर्फ संविधान के दायरे में रहकर राजनीति करने वाले किसी भी व्यक्ति को दसियों साल पापड़ बेलने पड़ सकते हैं.
राजनीति के ककहरे की अभी शुरुआत ही करने वाले वरुण गांधी ने सांप्रदायिकता के क्षत्रज्ञ की हुंकार क्या भरी कि भाजपा के नेता-कार्यकर्ता उन्हें आडवाणी और नरेंद्र मोदी के बाद पार्टी का स्टार प्रचारक बनाने पर तुल गए हैं. केवल 15-20 दिन पहले तक हमेशा वंशवाद के लिए कांग्रेस को भर-भर के कोसती आई भाजपा में वरुण गांधी की ताकत का एकमात्र स्रोत उनका गांधी उपनाम ही तो था. मगर ऐसा उपनाम होते हुए भी वरुण ने महात्मा गांधी और उनके प्रिय सिद्धांतो को ताक पर रखकर उनपर हर तरह का कीचड़ क्या उलीचा वो संघ, शिवसेना, भाजपा और उनके जैसे तमाम दूसरे लोगों की आंखों का तारा हो गए.
मगर अपने युवा-सुलभ उत्साह और स्टार प्रचारक की मुफ्त में मिली हैसियत के शोरगुल में या फिर पूर्व की अपनी एक प्रकार की गुमनामी की हताशा में शायद वरुण ये भूल गए कि सांप्रदायिकता की ढलान पर उन्होंने अपनी यात्रा प्रारंभ तो कर दी है किंतु उस पर खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए उन्हें लगातार अपनी रफ्तार में तेजी लाती रहनी होगी. मगर उनके सामने परिस्थितियां किसी आखिरी दांव लगाने वाले आडवाणी सरीखे नेता की तो हैं नहीं इसलिए वो कब तक इस ढलान पर अपनी गति को तेज और तेज करते चले जाएंगे. क्या उन्हें इस रास्ते पर कभी कुलांचे भर चुके उमा भारती, विनय कटियार और कल्याण सिंह सरीखे नेताओं का हाल याद नहीं है.
अगर वो इस रास्ते पर थोड़ा आगे कहीं ठहरकर संतुलन साधने का प्रयास करने की सोच रहे हैं तो मुहम्मद अली जिन्ना की मजार पर अपनी छवि सुधारने की जुगत में जो कुछ आडवाणी के साथ हुआ उस नज़ीर को भी तो उन्हें अपने ध्यान में रखना होगा.
संजय दुबे