एक ही रास्ता

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अफगानिस्तान में 17,000 अतिरिक्त सुरक्षा बल भेज चुके हैं. दिनोंदिन बिगड़ते हालात को संभालने और स्थिरता लाने के लिए अगले पांच साल में जितने अतिरिक्त सैनिक वहां भेजे जाएंगे उनकी ये पहली खेप है. ओबामा को निश्चित रूप से ये अहसास होगा कि मौजूदा हालात में अफगानिस्तान में चल रही लड़ाई में तेजी लाना तो दूर उसे जारी रखना ही मुश्किल होता जा रहा है. कनाडा पहले ही फैसला कर चुका है कि अगले दो साल में उसके सैनिक अफगानिस्तान से लौट जाएंगे. ब्रिटेन की अपने सैनिकों को बढ़ाने की कोई इच्छा नहीं है और नाटो के सेक्रेटरी जनरल जाप दे हूप शेफर भी चेतावनी दे चुके हैं कि एक तो अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी कोई विकल्प ही नहीं है और दूसरे, इस देश में शांति राजनीतिक समझौते के जरिए ही बहाल हो सकती है.

आज फाटा यानी पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम में 27,220 वर्ग किमी के इलाके का अधिकांश हिस्सा और नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर के सात जिले पाकिस्तान सरकार के हाथ से बाहर चले गए हैं मुश्किलें और भी हैं. अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के अमेरिकी तरीके को लेकर समर्थन घट रहा है. इसका सबसे हालिया संकेत है किर्गिस्तान सरकार का वह फैसला जिसमें उसने कहा है कि उसके यहां स्थित अमेरिकी बेस को अगले छह महीने में बंद कर दिया जाएगा. गौरतलब है कि अफगानिस्तान में लड़ाई जारी रखने के लिए अमेरिकी और नाटो सेना प्रत्यक्ष रूप से सबसे ज्यादा उसके पड़ोसी देशों पर ही निर्भर रहती है. उधर, इससे भी गंभीर बात ये है कि पाकिस्तान के रास्ते सैन्य बलों और रसद की आपूर्ति करने वाले रास्ते असुरक्षित होते जा रहे हैं और ऊपर से पाकिस्तानी सेना कबायली इलाकों में अपने और ज्यादा सैनिक भेजने के लिए राजी नहीं है. अब अमेरिका ईरान और उज्बेकिस्तान के जरिए वैकल्पिक रास्तों की सोच रहा है. मगर आशंका ये है कि उन रास्तों से होने वाली आपूर्ति पाकिस्तान स्थित रास्तों से हो रही आपूर्ति का छोटा सा हिस्सा भर ही होगी. उधर, ईरान अगर अमेरिकी सैनिकों को अफगानिस्तान की सीमा तक पहुंचने के लिए अपना बंदरगाह और रेलमार्ग इस्तेमाल करने की इजाजत दे भी देता है तो वह इसकी ऐसी राजनीतिक कीमत मांग सकता है जिसे चुकाना अमेरिका के लिए महंगा सौदा होगा.

इस बीच आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका को एक के बाद एक झटका लग रहा है. अगर पाकिस्तान की स्वात घाटी में सरकार और तालिबान के बीच हुआ समझौता स्थाई शक्ल अख्तियार कर लेता है तो इसके व्यापक परिणाम होंगे. समझौते से न सिर्फ स्वात में इस्लामिक शरिया कानून लागू हो जाएगा बल्कि तालिबान ने 200 स्कूलों को ढहाने और लोगों के सिर कलम करने जैसी जिन करतूतों को अंजाम दिया है, वे कानूनन सही हो जाएंगी.

इसके अलावा पाकिस्तान के भीतर ही अल कायदा और तालिबान को एक और सुरक्षित पनाह मिल जाएगी. ये समझौता ओबामा द्वारा इस क्षेत्र के लिए नियुक्त किए गए विशेष दूत रिचर्ड हॉलब्रुक के ठीक पीठ पीछे हुआ जो बताता है कि पाकिस्तान और अमेरिका के बीच का आपसी भरोसा कितना असली है.मगर लगता है कि ओबामा के सलाहकार ये सब देखना ही नहीं चाहते कि आतंकवाद के खिलाफ उनकी इस लड़ाई के लिए समर्थन लगातार घटता जा रहा है. वे इन सब घटनाक्रमों में दूसरी वजहें ढूंढ रहे हैं. मसलन किर्गिस्तान के फैसले पर उनका आरोप है उसने ऐसा रूस के कहने पर किया जिसने उसे सहायता के रूप में हर साल 2.15 अरब डॉलर की पेशकश की है. इसी तरह पाकिस्तान के अनमनेपन पर उनमें से कुछ का कहना है कि अगर भारत कश्मीर मसले के हल के लिए और ज्यादा सक्रियता दिखाए तो निश्चित रूप से पाकिस्तान तालिबान के खिलाफ उनकी लड़ाई में और ज्यादा सहयोग करेगा.

अफगानिस्तान में शांति होगी तो पाकिस्तान स्थित तालिबान को कट्टर इस्लामी राष्ट्रवाद की वह खुराक मिलनी बंद हो जाएगी जिस पर पलकर वह अपनी ताकत बढ़ा रहा है

मगर वे यह नहीं देखते कि किर्गिस्तान की संसद में अमेरिकी सैनिक अड्डा बंद करने का प्रस्ताव 78 के मुकाबले दो वोटों से पारित हुआ जो बताता है कि इस देश के लोग अपनी जमीन पर अमेरिका की मौजूदगी को कितना नापसंद करते हैं. उधर, अगर पाकिस्तानी सेना तालिबान से लड़ना नहीं चाह रही है तो इसकी वजह हाल ही में ब्रिटिश अखबार गार्डियन में छपे स्वात घाटी में तैनात सेना के एक कैप्टन के बयान से साफ हो जाती है जिसमें उसने कहा था कि एक सैनिक के लिए इससे पीड़ादायक और कुछ नहीं होता कि वह अपने ही लोगों से लड़े.

दरअसल कड़वा सच ये है कि अमेरिका और नाटो को मिलने वाला समर्थन तेजी से घट रहा है. और ऐसा इसलिए हो रहा है कि अफगानिस्तान में चल रही लड़ाई एक ऐसी लड़ाई में तब्दील हो गई है जिसका कोई स्पष्ट उद्देश्य नहीं दिखता और इसलिए ये अंतहीन लगने लगी है. 2001 में जब ये शुरू हुई थी तो तालिबान को हराने के साथ-साथ इसका मकसद अलकायदा के नेताओं को पकड़ना या फिर खत्म करना भी था. काबुल से तो तालिबान का कब्जा हट गया मगर इसके नेता सीमा पार कर पाकिस्तान के दुर्गम कबायली इलाकों (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरियाज यानी फाटा) में घुस गए. अमेरिकी फौजों ने यहां हमले किए तो उन्होंने पश्तून प्रधान नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर में शरण ले ली.

आज फाटा यानी पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम में 27,220 वर्ग किमी के इलाके का अधिकांश हिस्सा और नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर के सात जिले पाकिस्तान सरकार के हाथ से बाहर चले गए हैं. बीते साल के दौरान अमेरिका पाकिस्तान पर इस बात के लिए दबाव बढ़ाता रहा कि वह भारतीय सीमा से सैनिकों को हटाकर फाटा में आतंकवादियों के खिलाफ लड़ाई तेज करे. मगर पाकिस्तान की सेना ऐसा करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है. इसकी वजह पूर्वी सीमा पर भारत के हमले की आशंका नहीं है जैसा कि वह दावा करती है, बल्कि दिल ही दिल में वह जानती है कि फाटा में गुरिल्ला लड़ाई लड़ रहे आतंकियों से पार पाना नामुमिकन है. अफगानिस्तान में लड़ रही पश्चिमी फौजों को भी ये अहसास हो गया है कि वे भले ही तालिबान को खदेड़ दे रही हों मगर ऐसा माहौल तैयार नहीं कर पा रहीं जिसमें आम लोग बिना किसी डर के सामान्य तरीके से अपनी रोजमर्रा की जिंदगी जी सकें.

इसलिए शायद पाकिस्तानी सेना ने मान लिया है कि अफगानिस्तान में छिड़ी लड़ाई में जबर्दस्ती घसीटे जाने से बचने का एकमात्र रास्ता ये है कि भारत से खतरे की आशंका जताई जाए और ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी जाएं कि ये आशंका वास्तविक लगे. पिछले साल काबुल स्थित भारतीय दूतावास और मुंबई पर हुआ हमला इसीलिए हुआ लगता है. अमेरिकी, ब्रिटिश और भारतीय खुफिया एजेंसियों ने इन दोनों हमलों के तार पाकिस्तान स्थित उन संगठनों से जुड़े पाए थे जिन्हें पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का संरक्षण प्राप्त है.

रणनीति में कोई असाधारण बदलाव ही इस गतिरोध को दूर कर सकता है. अमेरिका चाहता है कि पाकिस्तान के तालिबान को हराया जाए जिससे अफगानिस्तान में मौजूद तालिबान अलग-थलग पड़ जाए. मगर उसके लिए बेहतर ये होगा कि वह अफगानिस्तान के लिए एक सर्वस्वीकार्य शांति समझौता खोजे. अफगानिस्तान में शांति होगी तो पाकिस्तान स्थित तालिबान को कट्टर इस्लामी राष्ट्रवाद की वह खुराक मिलनी बंद हो जाएगी जिस पर पलकर वह अपनी ताकत बढ़ा रहा है. शांति की नई पहल का पहला कदम ये होना चाहिए कि वहां एक ऐसी नयी राजनीतिक व्यवस्था बनाई जाए जिसमें वहां की जातीय और धार्मिक विविधता की भागीदारी हो. ओबामा की टीम इस निष्कर्ष की तरफ बढ़ रही है कि वहां भारत की तर्ज पर केंद्र-राज्य शासन प्रणाली विकसित की जाए.

मगर इससे भी बड़ी चुनौती आपस में लड़ रहे सभी पक्षों को बातचीत की मेज तक लाने की है. सात साल से जारी लड़ाई के बाद इस पर संदेह पैदा होता है कि अफगानी राष्ट्रपति हामिद करजई या फिर पश्चिमी ताकतें अफगानिस्तान के समाज के अलग-अलग धड़ों को बातचीत के लिए एक जगह पर ला सकेंगे. ऐसे में ये जिम्मेदारी पाकिस्तान, ईरान, भारत और उज्बेकिस्तान जैसे उसके पड़ोसियों की बन जाती है. इन देशों में से हर एक का अफगानी समाज के अलग-अलग धड़ों के साथ लंबे समय से जुड़ाव रहा है. इसलिए अगर सभी मिलकर काम करें तो वे इस मकसद को अपना नैतिक और जरूरी हुआ तो सैन्य समर्थन भी दे सकते हैं.मगर इसमें सबसे बड़ी रुकावट है भारत को लेकर पाकिस्तान की सेना और नौकरशाही की कड़वाहट. हालांकि ये अच्छी बात है कि दोनों देशों की सरकारें और लोग आपस में शांति चाहते हैं. तीन साल तक राष्ट्रपति मुशर्रफ और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने सलाहकारों के पूर्वाग्रहों को दरकिनार कर कश्मीर पर एक समझोते की दिशा में आगे बढ़ते रहे. मार्च 2007 में वे इसके काफी करीब पहुंच गए थे लेकिन तब तक मुशर्रफ का वक्त खत्म हो गया. अक्टूबर 2008 में बात फिर आगे बढ़ी जब दोनों देशों ने व्यापार को ध्यान में रखते हुए कश्मीर में दो जगह से सीमापार आवाजाही का रास्ता खोल दिया. मगर मुंबई हमले और इसके तार पाकिस्तान से जुड़ने के बाद इस प्रक्रिया में फिर से गतिरोध पैदा हो गया है.

विश्वासबहाली की कोशिशें जारी हैं. मगर ये पूरी तरह से तब तक बहाल नहीं हो सकता जब तक दोनों देशों की सेनाएं इसके खिलाफ काम कर रही हों. आज दोनों देशों में एक दूसरे के खिलाफ आशंकाओं और अविश्वास का माहौल है. ये एक ऐसी चुनौती है जिससे निपटने के लिए अमेरिका, ब्रिटेन और दूसरी मुख्य शक्तियों के सहयोग की जरूरत है.