इच्छा और क्षमता बिना कैसे लगे लगाम

तीन मार्च को लाहौर में श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर हुए दुर्भाग्यपूर्ण हमले के बाद पाकिस्तान के ज्यादातर मीडिया चैनलों पर एक बात रह-रहकर सुनाई दी कि ये पाकिस्तान की छवि खराब करने की साजिश है. भारत पर उंगलियां उठाते हुए इस हमले को पिछले साल नवंबर में मुंबई में घटी उतनी ही दुखद घटना का जवाब बताया गया. पाकिस्तान, भारत और दुनिया के कई लोग भले ही इस बात को एक अपरिपक्व प्रतिक्रिया कहें मगर ये हकीकत है कि भारत और पाकिस्तान, दोनों 1970 से एक दूसरे के खिलाफ ऐसे गैरसरकारी तत्वों का इस्तेमाल करते रहे हैं.

जानकार और नीतिनिर्माता अब भी इस पर एकराय नहीं हैं  कि देश को खाती जा रही आतंकवाद की इस समस्या से किस तरह निपटा जाएअब ये दावा किया जा रहा है कि सीआईडी ने पुलिस को खबरदार किया था कि भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ वहां पर श्रीलंकाई क्रिकेट टीम को निशाना बनाने की योजना बना रही है. मगर पुलिस ने मेहमान टीम की सुरक्षा नहीं बढ़ाई. बढ़ाती भी कैसे, उसके वरिष्ठ अधिकारी और उनके राजनीतिक आका यानी पीपीपी नेता तो अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ अभियान में व्यस्त थे जो अब अपने चरम पर पहुंच चुका है. इसलिए सुरक्षा में चूक हुई और नतीजतन देश को शर्मिदगी झेलनी पड़ी.

लाहौर की घटना साधारण आतंकी हमला कम और कमांडो कार्रवाई ज्यादा थी. बुनियादी तौर पर देखा जाए तो ये हमला मुंबई हमले से अलग लगता है. हमलावरों का एक तय निशाना था और जब उन्हें लगा कि उनका मिशन पूरा नहीं होगा तो वे जितनी आसानी से प्रकट हुए थे उतनी ही आसानी से गायब भी हो गए. साफ है कि ये मुंबई की तरह आत्मघाती मिशन नहीं था. मुंबई की तरह लाहौर के हमलावर यहां मौतों की संख्या ज्यादा से ज्यादा रखने और अपनी जान देने के लिए तैयार होकर नहीं आए थे. दिलचस्प है कि लड़ाई 20 मिनट तक चलती रही मगर इस दौरान वहां पर और पुलिस बल नहीं पहुंचा.

हमलावरों की तलाश अब तक जारी है. 12 के करीब ये आतंकवादी हमले के बाद ऐसे गायब हो गए जैसे वे शहर के चप्पे-चप्पे से अच्छी तरह वाकिफ हों. इस तरह से गायब होना इस बात की ओर साफ इशारा करता है कि उनके स्थानीय मददगार हैं जिनकी  मदद से वे सबकी आंखों में धूल झोंककर भाग निकले.

यही वह विषय है जिस पर चर्चा करने से देश के समझदार लोगों का एक बड़ा हिस्सा कतरा रहा है. जानकार और नीतिनिर्माता अब भी इस पर एकराय नहीं हैं  कि देश को खाती जा रही आतंकवाद की इस समस्या से किस तरह निपटा जाए. बाजौर, वजीरिस्तान और स्वात में तालिबान मजबूत हो चुका है. उधर, पंजाबी जिहादी देश के सबसे बड़े प्रांत पंजाब खासकर दक्षिण पंजाब में अपनी जड़ें फैलाते जा रहे हैं. इस्लामाबाद के मैरिएट होटल पर हुए हमले सहित अतीत में हुए कई हमले दक्षिण पंजाब से ताल्लुक रखने वाले आतंकियों ने किए. सैन्य अधिकारी भी मानते हैं कि जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठनों ने कबायली इलाकों में सुरक्षा बलों से लड़ रहे तालिबान, खासकर बैतुल्ला मसूद से हाथ मिला लिए हैं. इसके बावजूद पंजाब में सक्रिय कई आतंकवादी संगठनों से निपटने की कोई व्यवस्थित रणनीति कहीं नजर नहीं आती.

ये ऐसे संगठन हैं जो अपना असर छोड़ने के लिए हिंसा को हथियार बनाते हैं इसलिए ये स्वाभाविक ही है कि लोग इनका खुलकर विरोध नहीं करते

इसके पीछे आधिकारिक तर्क ये दिया जाता है कि आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के नतीजे बुरे हो सकते हैं जैसा कि लाल मस्जिद पर सेना के अभियान के बाद हुआ था. 2007 में इस्लामाबाद की लाल मस्जिद पर सेना की सख्त कार्रवाई के बाद पाकिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में आत्मघाती हमलों की संख्या बढ़ गई थी. अगर इस तर्क के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो समझ जा सकता है कि सरकार ने स्वात घाटी में तालिबान के साथ समझौता क्यों किया. मगर दूसरी ओर ये समझौता ये भी बताता है कि सरकार के पास आतंकियों से निपटने लायक क्षमता ही नहीं है. इन तत्वों से निपटने में पाकिस्तान की क्षमता और इच्छाशक्ति की कमी जैसी समस्याओं पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में भी बहस हो रही है.

देखा जाए तो क्षमता की कमी और इच्छाशक्ति में कमी दो अलग-अलग चीजें हैं. सवाल उठता है कि ये कमी है किस जगह? जवाब आईएसआई के मुखिया ले. जनरल अहमद शुजा पाशा के इस बयान से मिल जाता है, ‘क्या उन्हें (तालिबान को) अपने हिसाब सोचने और कहने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए? वे मानते हैं कि जिहाद उनका फर्ज है. क्या ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है?’  हैरत नहीं कि पाकिस्तान के लोगों को तालिबान से निपटने की सेना की रणनीति पर शंका पैदा होती है. जब मामला राजनीति का होता है तो सेना इतनी उदारता क्यों नहीं दिखाती.

आतंकी तत्वों से निपटने में बरती जा रही उदारता की वजह से पंजाब में आतंकी संगठन फल-फूल रहे हैं. वहां की सरकार ने भी ये बात कही है कि उसने मुंबई हमले के बाद सिर्फ यही किया है कि लश्कर के 60 दफ्तर बंद करवा दिए हैं. इसके अलावा कोई और कदम नहीं उठाए गए हैं. इसलिए दक्षिण पंजाब में आतंकी संगठनों को योजना, इंतजाम और भर्ती, तीनों स्तरों पर मदद मिलनी जारी है.

आतंकी तत्वों से निपटने के लिए जरूरी इच्छाशक्ति तो कम है ही, साथ ही कमी का संकेत क्षमता के स्तर पर भी मिलता है. समस्या तब और भी गंभीर हो जाती है जब इस क्षमता को तकनीक के नजरिए से देखा जाए. सेना मौलवी फजलुल्लाह के एफएम रेडियो चैनल को बंद करना चाहती है मगर ऐसा करने यानी फ्रीक्वेंसी जाम करने के लिए जरूरी तकनीकी क्षमता उसके पास नहीं है उसने अमेरिका से इस दिशा में मदद की गुजारिश की है मगर अमेरिका डर रहा है कि उसने अगर ये तकनीक पाकिस्तान को दे दी तो कहीं इसका इस्तेमाल उसी के खिलाफ न होने लगे. इसका नतीजा ये हुआ है कि सेना ने फजलुल्लाह के रेडियो को बंद करने का विचार छोड़ कर उसके दुष्प्रचार का मुकाबला अपने ही रेडियो कार्यक्रमों से करना शुरू किया है. मगर हो सकता है कि इसका भी कुछ फायदा न हो क्योंकि सेना के पास मुल्ला रेडियो के दुष्प्रचार का मुकाबला कर सकने वाले विशेषज्ञ रेडियो प्रोगामर्स की कमी है.

पंजाब में आतंकी संगठनों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई न किए जाने की एक वजह ये मिथ्या धारणा भी है कि इन संगठनों के साथ आम लोगों की सहानुभूति है. जबकि सच्चाई ये है कि ज्यादातर लोग इन संगठनों के खिलाफ आवाज इसलिए नहीं उठाते क्योंकि वे इनसे डरते हैं. ये ऐसे संगठन हैं जो अपना असर छोड़ने के लिए हिंसा को हथियार बनाते हैं इसलिए ये स्वाभाविक ही है कि लोग इनका खुलकर विरोध नहीं करते.

आतंकवाद से सफलतापूर्वक लड़ने के लिए अलग-अलग सरकारी एजेंसियों के बीच समन्वय होना बहुत जरूरी है जो नजर नहीं आता. इसकी एक वजह देश की लड़खड़ाती लोकतांत्रिक व्यवस्था भी है. पाकिस्तान में लोकतंत्र संक्रमण काल से होकर गुजर रहा है. यहां राज्य का हर अंग अपनी-अपनी राह चलता दिख रहा है. इसका नतीजा ये हुआ है कि नीति-निर्माण के स्तर पर ही समन्वय से जुड़ी समस्याएं देखने को मिल रही हैं. एक और मुद्दा न्यायपालिका और दूसरी संस्थाओं को मजबूत करने की दिशा में पीपीपी सरकार की अनिच्छा का भी है. हालांकि बहुत से लोग मानते हैं कि आतंकवाद से लड़ने के मामले में राष्ट्रपति जरदारी के इरादे नेक हैं मगर देखा जा रहा है कि उनकी नीतियां मजबूती से ज्यादा टकराव पैदा कर रही हैं और इसी वजह से वो खुद इस समय गहरे राजनीतिक संकट का सामना कर रहे हैं.

आतंकवाद के खिलाफ जंग पर राय काफी बंटी हुई है. सरकार को जहां इस लड़ाई में अमेरिका से सहयोग मिलना जारी है वहीं पाकिस्तान का शासक वर्ग जनता को अमेरिका के साथ अपनी दोस्ती के बारे में विश्वास में लेने की अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़े बैठा है. ड्रोन विमानों के हमलों में कई मौतों के बाद ये धारणा जोर पकड़ने लगी है कि पाकिस्तान पर अमेरिका की पकड़ इतनी है कि वह जो मर्जी आए करता है. इससे कई लोग ये सोचने लगे हैं कि आतंकवाद का मकसद देश का सामाजिक ताना-बाना तार-तार करना नहीं बल्कि एक साम्राज्यवादी दुश्मन के खिलाफ लड़ाई है. आतंकवाद का समर्थन करने वाले ये नहीं मानते कि ऐसा भी एक दिन आ सकता है कि जब पूरे पाकिस्तान में तालिबान का कब्जा हो. जहां तक देश के कुलीन वर्ग का सवाल है तो उसका मानना है कि अगर तालिबान मुख्य शहरों से दूर रहे और सत्ता की कमान थामे लोगों के अधिकारों और उनकी जीवनशैली को चुनौती न दे तो उसके साथ शांति के साथ रहना संभव है.

कुल मिलाकर पाकिस्तान में एक भ्रम की स्थिति बनी हुई है. इसके चलते बाहरी दुनिया भी आतंकवाद से लड़ने की उसकी क्षमता और इच्छाशक्ति को लेकर भ्रम में है. सरकार को चिंता है कि आतंकवाद और इससे पैदा हुई नकारात्मक छवि देश के लिए आर्थिक रूप से भी नुकसानदेह होगी. तो फिर सवाल ये उठता है कि आखिर आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए नीतिगत स्तर पर सहमति क्यों नहीं बन रही? जवाब है कि इन नीतियों को बनाने वाले संस्थानों की दशा ही खराब है और ऊपर से पाकिस्तान में सरकारों की ये आदत रही है कि वे देश की समस्याओं को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय पर छोड़ देते हैं. सही मायने में ऐसी नीति तब तक नहीं बन सकती जब तक पाकिस्तान के नीतिनिर्माता देश की जिम्मेदारी खुद अपने कंधों पर नहीं लेते.