शिखर की चाह बिखरती राह?

राजनीति का इतिहास बताता है कि इसमें कई बार वह नहीं होता जिसकी सब उम्मीद कर रहे होते हैं. दुनिया के सबसे बुजुर्ग दक्षिणपंथी और अब कुछ-कुछ मध्यमार्गी राजनीतिज्ञ लाल कृष्ण आडवाणी ने बंटवारा देखा है, इमरजेंसी भुगती है, तीन बार केंद्रीय मंत्रिमंडल में काम किया है, नौ बार वे संसद में चुन कर आए हैं और चार बार एक पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं. अब जब उन्होंने सत्ता की सबसे बड़ी गद्दी को अपना लक्ष्य बनाया है तो उनका सफर बीच राह में ही खत्म होता दिख रहा है.

हर ठोकर आडवाणी और एनडीए को नीचे की तरफ धकेल रही है परंतु अतीत की तरह ही आडवाणी निराशा की हालत में लड़ने की बजाय अपने में ही सिमटे पीछे हट रहे हैं

81 साल के आडवाणी के पास यही आखिरी मौका बचा है. कर्नाटक में अपने बूते भाजपा सरकार बनने के बाद कुछ ही महीनों पहले तक लग रहा था कि उनके पास सब कुछ है-दोस्त, सहयोगी, मतदाताओं का समर्थन और इस सबसे ऊपर वह ऊर्जा जिसका अभाव कांग्रेसी खेमे के उनके प्रतिद्वंदियों में साफ झलकता था. राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार आडवाणी ने उन सहयोगी दलों के साथ तालमेल की कवायद भी शुरू कर दी थी जिन्हें जरूरत पड़ने पर सरकार बनाने के काम आना था. उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल, असम में असम गण परिषद, हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल और तमिलनाडु में एआईएडीएमके से गठबंधन की प्रबल संभावनाएं दिख रही थीं. मगर 7 मार्च की शाम को उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर में हुए एक घटनाक्रम से उनकी उम्मीदों के बांध में दरार पड़ने लगी.

उस शाम राजनीतिक मुलाक़ात करने वाले दो शख्स पुराने दोस्त भी थे. इनमें से एक थे 10 साल से उड़ीसा के मुख्यमंत्री रहे नवीन पटनायक जो पिछले 11 साल से एनडीए के साथ थे – 1997 की सर्दियों में तत्कालीन यूनाइटेड फ्रंट को छोड़ने वाले पटनायक पहले नेता थे और उनके इस कदम ने कई दूसरे दलों के भी भाजपा के साथ लामबंद होने की शुरुआत कर दी थी. पिछले 10 सालों से उड़ीसा में उनकी सरकार भाजपा के समर्थन से ही चल रही थी और अक्सर शांत दिखने वाले पटनायक बिना किसी दबाव के अपने फैसले खुद करने के लिए जाने जाते रहे हैं.

पटनायक से मुलाकात करने आने वाले शख्स थे चंदन मित्रा. पेशे से पत्रकार मित्रा ने भाजपा में तेजी से तरक्की की है और अब उन्हें आडवाणी का खासा विश्वासपात्र माना जाता है. पटनायक की तरह वे भी अपने हिसाब से सोचने और करने वाले व्यक्ति के तौर पर जाने जाते हैं. मित्रा यहां आडवाणी के विशेष दूत के तौर पर आ रहे थे और इस मुलाकात में पिछले कुछ समय से चल रही बातचीत को एक फैसले की शक्ल दी जानी थी. उन्हें उम्मीद थी कि वे आडवाणी के लिए अच्छी खबर लेकर दिल्ली जाएंगे – मित्रा का काम था पटनायक के साथ एक ऐसा समझौता करना जिससे आम चुनाव में एनडीए को ज्यादा से ज्यादा फायदा हो सके. दांव पर लगी थीं उड़ीसा की 21 लोकसभा और 147 विधानसभा सीटें. पटनायक और मित्रा को बातचीत कर फैसला करना था कि चुनाव लड़ने के लिए इन सीटों का बंटवारा किस तरह से होगा.

तरुण विजय जैसे लोगों ने कई मौकों पर आडवाणी की व्याख्या एक ऐसे व्यक्ति के रूप में की है जो लड़ाई के मैदान से भाग खड़ा होता है मगर बातचीत थोड़ी ही देर में खत्म हो गई. सबको हैरान करते हुए पटनायक ने भाजपा से किनारा कर वाममोर्चे का दामन थाम लिया. उनका कहना था कि भाजपा के साथ उनकी पार्टी का गठबंधन खत्म हो गया है. ऐसा ही कुछ 1997 में भी हुआ था जब पटनायक ने अचानक ही संयुक्त मोर्चा छोड़ दिया था.

भाजपा के लिए ये बड़ा गहरा धक्का था. इससे अचानक ही आडवाणी की चुनावी गाड़ी जो पिछले विधानसभा चुनावों में दिल्ली और राजस्थान की हार के बाद थोड़ी लड़खड़ाती सी चल रही थी एकदम से मानो पटरी से उतर गई.

सवाल था कि आखिर ऐसा हुआ क्या? मित्रा बताते हैं, ‘तीन महीने तक हमारे बीच बातचीत के कई दौर चले. राज्य स्तर पर भाजपा और बीजू जनता दल (बीजद) नेताओं के दरम्यान और व्यक्तिगत स्तर पर मेरे और पटनायक के बीच. कुछ-कुछ ऐसा लग भी रहा था कि पटनायक की योजना कुछ और है क्योंकि वे बार-बार कह रहे थे कि भाजपा को और यथार्थवादी होना पड़ेगा और जीत को ध्यान में रखकर चलना होगा. विश्वास कीजिए कोई और मुद्दा ही नहीं था. कंधमाल की तो बात भी नहीं हुई. पटनायक मुझसे काफी अच्छे से मिले. हम लोग 20 साल से अच्छे दोस्त हैं और उन्होंने कोई बेरुखी नहीं दिखाई. मगर हम इस पर सहमत नहीं हो सके कि हमारी भलाई किस में है. उन्होंने पहले मुझसे कहा था कि वे हमें पांच लोकसभा और 35 विधानसभा सीट देंगे. मैंने दिल्ली आकर भाजपा नेतृत्व को ये बात बताई. हमें लगा ये पेशकश व्यावहारिक नहीं है. इस मुलाकात में मैंने पटनायक से कहा कि भाजपा विधानसभा सीटों के मामले में तो कमी के लिए तैयार है पर हमें एक और लोकसभा सीट चाहिए. उन्होंने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि भाजपा जीत सकती है. उनका ये कहना था कि वो ये समझते हैं कि 5 और 35 सीटें शायद भाजपा को मंजूर न हों. लेकिन फासला बहुत ज्यादा है और इतने कम वक्त में ज्यादा कुछ नहीं किया जा सकता. हम इस असहमति पर सहमत हो गए.’

हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि क्षेत्रीय पार्टी बीजद, एक राष्ट्रीय पार्टी भाजपा को छोड़ने को तो तैयार है मगर उसे सिर्फ एक अतिरिक्त लोकसभा सीट देने को तैयार नहीं. गौरतलब है कि पटनायक ने कुछ समय पहले दो सर्वेक्षण करवाये थे जिसके नतीजे बताते थे कि भाजपा तीन लोकसभा और 15-20 विधानसभा सीटों पर जीत सकती है. माना जा रहा है कि पटनायक के फैसले का आधार यही सर्वेक्षण रहा.

मित्रा दिल्ली लौटे और आडवाणी को स्थिति से अवगत कराया. वे कहते हैं, ‘राजनीति के मामले में आडवाणी की सहज बुद्धि आज भी पहले जैसी तीक्ष्ण है. उन्होंने कहा कि पार्टी के झुकने की एक सीमा है और हम अपने सहयोगियों के आगे नाक नहीं रगड़ सकते. उनकी प्रतिक्रिया लचीली थी मगर उन्होंने माना कि अबकी बार पार्टियां लूटपाट पर उतारू हैं.’

ऐसा लगता भी है कि यहां कुछ ऐसा हो रहा है जो राजनीतिक सौदेबाजी से भी ज्यादा गंभीर है. मगर सत्ता के लिए चुनावी कवायद शुरू हो चुकी है और अब छोटी से छोटी बात पर भी ध्यान दिया जा रहा है. किसी सहयोगी दल का अलग होना, किसी नेता का दूसरे पाले में चले जाना, जोश में थोड़ी सी भी कमी जैसी चीजें माहौल को बदल रही हैं. हर ठोकर आडवाणी और एनडीए को नीचे की तरफ धकेल रही है परंतु अतीत की तरह ही आडवाणी निराशा की हालत में लड़ने की बजाय अपने में ही सिमटे पीछे हट रहे हैं.

विश्वास और आदर्शवाद की जिस कमी की तरफ आडवाणी संकेत कर रहे हैं उसने भाजपा में नेताओं के आपसी सौहार्द को भी प्रभावित किया है. आडवाणी और  संघ या आडवाणी और राजनाथ सिंह के बीच के रिश्ते इसका गवाह हैं

उदाहरण के लिए उड़ीसा में आडवाणी ने कुछ भी करने की कोशिश नहीं की. न उन्होंने पटनायक से बात की न ही एनडीए संयोजक शरद यादव से मदद मांगी. यहां तक कि उन्होंने भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह या संघ से भी कोई सहायता नहीं मांगी. यादव कहते हैं, ‘उन्होंने इस मामले में मुझे शामिल ही नहीं किया. राजनाथ सिंह ने मुझसे तब बात की जब सब कुछ खत्म हो चुका था’ (साक्षात्कार देखें).

ऐसा लगता है कि एक बार फिर से आडवाणी का चिरपरिचित अनिच्छा वाला गुण देखने को मिल रहा है. राजनीतिक सफर के अलग-अलग पड़ावों पर पार्टी और संघ के नेता आडवाणी से इस बात को लेकर बहस करते रहे हैं कि उन्हें और भी ज्यादा आक्रामक होने की जरूरत है. संघ के थिंक टैंक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के मुखिया तरुण विजय जैसे लोगों ने कई मौकों पर आडवाणी की व्याख्या एक ऐसे व्यक्ति के रूप में की है जो लड़ाई के मैदान से भाग खड़ा होता है. पार्टी के पुराने लोग कहते हैं कि आडवाणी आमतौर पर अपने साथ एक त्यागपत्र लेकर चलते हैं ताकि वह किसी भी ऐसी स्थिति से बचकर निकल सकें जिसे वे पसंद नहीं करते.

अपनी आत्मकथा मेरा देश मेरा जीवन में आडवाणी अपनी इस विशेषता का जिक्र भी करते हैं कि किस तरह वह पार्टी अध्यक्ष बनने के इच्छुक ही नहीं थे. ‘मैं सबसे ज्यादा अनिच्छुक पार्टी अध्यक्ष था. 1972 की शुरुआत में अटल बिहारी वाजपेयी ने मुझसे कहा कि अब आप पार्टी अध्यक्ष बन जाइए. जब मैंने उनसे पूछा कि क्यों, तो उनका जवाब था, मैं इस पद पर अपने चार साल पूरे कर चुका हूं. अब समय आ गया है कि कोई नया व्यक्ति इस पद को संभाले.’

मैंने कहा, ‘अटल जी, मैं तो किसी बैठक को भी ठीक से संबोधित नहीं कर सकता. मैं पार्टी का नेतृत्व कैसे कर सकता हूं? उन दिनों मैं ये सोचते हुए मंच पर बोलने से डरता था कि मैं कमजोर वक्ता हूं..मैंने कहा, ‘नहीं, मैं पार्टी अध्यक्ष नहीं बन सकता. कृपया आप इसके लिए किसी और व्यक्ति को ढूंढें.’

इसके बाद आडवाणी इस बारे में विस्तार से बताते हैं कि किस तरह फिर वे और वाजपेयी इस पद के लिए किसी दूसरे व्यक्ति की तलाश में लगे रहे. आडवाणी कहते हैं कि जब कोई इस पद के लिए तैयार नहीं हुआ तो उन्हें जबर्दस्ती इस पद पर बिठा दिया गया.

आडवाणी लिखते हैं, ‘सबसे पहली बात तो ये थी कि अटल जी के मुझ पर विश्वास ने मेरे मन को छू लिया था. दूसरी ये कि उम्र और अनुभव में मुझसे वरिष्ठ पार्टी के दूसरे नेता तुरंत मेरी उम्मीदवारी पर सहमत हो गए थे’ वे आगे लिखते हैं, ‘दुख की बात ये है कि आज जब मैं उस वक्त को याद करता हूं तो मुझे ये देखकर चिंता होती है कि पारस्परिक तालमेल, विश्वास और पार्टी कार्य के लिए आदर्शवादी और लक्ष्य आधारित दृष्टिकोण की भावना समय बीतने के साथ छीजती गई है.’

विश्वास और आदर्शवाद की जिस कमी की तरफ आडवाणी संकेत कर रहे हैं उसने भाजपा में नेताओं के आपसी सौहार्द को भी प्रभावित किया है. आडवाणी और  संघ या आडवाणी और राजनाथ सिंह के बीच के रिश्ते इसका गवाह हैं. उदाहरण के लिए कुछ ही दिन पहले राजनाथ सिंह मध्य भारत में किसी ऐसी जगह फंसे हुए थे जहां से रात को हवाई यात्रा नहीं की जा सकती थी. उन्होंने दिल्ली संदेश भेजा कि आडवाणी को सूचना दी जाए कि वे समय पर नहीं पहुंच पाएंगे. साथ ही उन्होंने ये भी जोड़ा कि आडवाणी बैठक को कुछ समय के लिए टाल दें ताकि वे भी इसमें शामिल हो सकें. लेकिन जब सिंह दिल्ली पहुंचे तो उन्हें पता चला कि बैठक शुरू हो चुकी है और आडवाणी इसकी अध्यक्षता कर रहे हैं. इसके बाद हाल ही में पूर्वोत्तर राज्यों के लिए सुधांशु मित्तल को चुनाव सहप्रभारी बनाए जाने पर राजनाथ और जेटली में ठन गई. इसे कठोर अनुशासन या पार्टी हित का नाम देकर तर्कसंगत ठहराया जा सकता है मगर इससे ये भी समझ जा सकता है कि पारस्परिक सौहार्द किस स्तर पर है.

इस तरह असहज आडवाणी अपने सहारे ही चल रहे हैं. उन्होंने इंटरनेट पर एक बडा अभियान छेड़ा हुआ है. साथ ही उन्होंने पार्टी पैनल में अहम जगहों पर अपने लोगों को नियुक्त किया है. चुनाव के लिए भाजपा की पॉलिसी फॉर्मूलेशन कमेटी में नौ सदस्य हैं-अरुण जेतली, बाल आप्टे, बलबीर पुंज, तरुण विजय, सुधींद्र कुलकर्णी, एस गुरुमूर्ति, स्वपन दासगुप्ता और दीपक चोपड़ा. जेतली खुद कभी चुनाव नहीं लड़े हैं. आप्टे को संघ की बदौलत ये नियुक्ति मिली है. कुलकर्णी और गुरुमूर्ति विचारक हैं. पुंज, दासगुप्ता और विजय पत्रकार हैं और चोपड़ा पिछले 20 साल से उनके सचिव हैं. यानी किसी को भी आम राजनीति का अनुभव नहीं है और ये सभी इन पदों पर आडवाणी की वजह से हैं.

आडवाणी अपनी उम्र के हिसाब से फिट हैं. उनके पास जरूरी नैतिक ताना-बाना भी है मगर उनके मित्र और सहयोगी मानते हैं कि वे इस बार पूरा जोर नहीं लगा रहे हैं

ये ऐसे गुण नहीं लगते जिनसे मिलकर नेतृत्व बनता है. जो भी अगला प्रधानमंत्री बनेगा उसे कई तरह की समस्याओं से जूझना होगा. जो हालात दिख रहे हैं उनसे लग रहा है कि आडवाणी भाजपा को ही उतने आकर्षक नहीं लग रहे. उदाहरण के लिए पार्टी ने पटनायक का जवाब देने के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को चुना है. जाहिर है मुश्किल स्थितियों में आडवाणी पर मोदी को प्राथमिकता दी जा रही है.

उधर, एनडीए में स्थितियां और भी ज्यादा जटिल हैं. बिहार, जहां पार्टी जल्द ही जेडी(यू) के साथ एक समझौते पर पहुंचने की उम्मीद कर रही है, में आकर्षण का मुख्य केंद्र मुख्यमंत्री नीतिश कुमार हैं. राज्य के भाजपा नेताओं ने हाल ही में नागपुर में हुई पार्टी बैठक में काफी समय ये विचार करने पर खर्च किया कि किस तरह कुमार जनता में लोकप्रिय होते जा रहे हैं. भाजपा की बिहार इकाई का मानना है कि नीतिश की पारदर्शी प्रशासन शैली उनकी स्वीकार्यता को बढ़ा रही है. चुनावी संदर्भ में देखा जाए तो इसका मतलब ये है कि जनता दल (यूनाइटेड) भी जरूरत पड़ने पर बीजू जनता दल जैसा फैसला ले सकता है. अंदर ही अंदर भाजपा नेता कह भी रहे हैं कि चुनाव के बाद उन्हें गठबंधन के एक और बुरे दौर का सामना करना पड़ सकता है.

इस तरह फिलहाल तो एनडीए कांग्रेसनीत यूपीए और यहां तक कि हालिया बने तीसरे मोर्चे से भी पीछे चल रहा है. माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य सीताराम येचुरी कहते हैं, ‘एनडीए एक बुनियादी विरोधाभास से पीड़ित है और इसकी वजह है हिंदुत्व का एजेंडा. भाजपा सोचती है कि वह हिंदुत्व के मुद्दे पर जितना आक्रामक होगी उसे उतना ही ज्यादा समर्थन मिलेगा. मगर वह इस पर जितना आक्रामक होगी उतना ही उसके सहयोगी उससे दूर होते जाएंगे. एनडीए में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इसे आपस में जोड़े रख सके.’

हालांकि भाजपा उम्मीद कर रही है कि बिछड़े हुए दोस्त वापस लौट आएंगे. उदाहरण के लिए पार्टी नेतृत्व की बातों से संकेत मिल रहा है कि चुनाव के बाद नवीन पटनायक को फिर से अपने पाले में किया जा सकता है. पार्टी नेतृत्व मानकर चल रहा है कि तब तक तीसरे मोर्चे के लिए पटनायक का प्रेम ठंडा पड़ जाएगा. कुछ को अब भी उम्मीद है कि भाजपा उम्मीद से कहीं अच्छा प्रदर्शन करेगी और एनडीए फिर एकजुट हो जाएगा.

पूर्व केंद्रीय मंत्री और बिहार से चुनाव लड़ रहे भाजपा नेता राजीव प्रताप रूड़ी कहते हैं, ‘जहां तक पार्टियों का सवाल है तो हमारे पास सहयोगी हैं मसलन शिव सेना, अकाली दल, असम गण परिषद, इंडियन नेशनल लोकदल, राष्ट्रीय लोकदल. सिर्फ बीजू जनता दल अलग हो गया है तो हवा बनाई जा रही है कि एनडीए बिखर रहा है. लोग बदलाव चाहते हैं और ये दिख भी रहा है. एनडीए अब भी पहले की ही तरह मजबूत है. सब कुछ भाजपा के प्रदर्शन पर निर्भर करता है और हमारा ध्यान अपने प्रदर्शन को सुधारने पर केंद्रित है.’

नजरिया चाहे जो भी हो, पर एक पल ऐसा होता है जब हर शख्स को ये अहसास हो जाता है कि ये उसका समय है. आडवाणी अपनी उम्र के हिसाब से फिट हैं. उनके पास जरूरी नैतिक ताना-बाना भी है मगर उनके मित्र और सहयोगी मानते हैं कि वे इस बार पूरा जोर नहीं लगा रहे हैं. वे ज्यादातर समय सोच-विचार में ही गुजार रहे हैं और सब कुछ खुद या अपने चुने हुए सिपहसालारों से ही कराना चाहते हैं मगर अब सोचने के लिए ज्यादा वक्त बचा नहीं है और करने के लिए इतना कुछ है कि केवल चुनिंदा सिपहसालारों से ही काम नहीं चलने वाला.