जानी सी जगह पर अजनबी लोग

नाव से उतरकर तमिलनाडु के धनुषकोडि में कदम रखते ही सहाया मलार को ऐसा लगा कि जैसे उनके सर से कोई बोझ उतर गया हो. बावजूद इसके कि वो अपना घर पीछे छोड़ आई थीं और ये दूसरे देश की जमीन थी जहां उन्हें और उनके परिवार को शरणार्थी की तरह रहना था. वो जानती थीं कि उनसे पहले आए हजारों लोगों की तरह उन्हें भी अब शरणार्थी कैंप में सरकार द्वारा दी जाने वाली मामूली राहत राशि के सहारे जिंदगी बसर करनी है. फिर भी सहाया को आजादी जैसा अहसास होता था. होता भी क्यों नहीं, यहां श्रीलंकाई सेना द्वारा उनके पति को परेशान किए जाने का खतरा तो था ही नहीं साथ ही लोग उनकी भाषा भी बोलते हैं. पिछले कई दिनों से सेना की नजरों से बचते-बचाते किसी तरह ये परिवार भारत आने में सफल हो सका. सहाया कहती हैं, ‘इस देश में हम भले ही शरणार्थी हों पर सुरक्षित तो हैं.’

 तमिलनाडु में अलग-अलग जगहों पर 100 शिविरों में इस समय करीब 80,000 शरणार्थी रह रहे हैं. जबकि इसी साल अब तक भारत में करीब 150 तमिल शरणार्थी आ चुके हैंश्रीलंकाई के वावुनिया की रहने वालीं 37 साल की सहाया उन 26 श्रीलंकाई तमिल शरणार्थियों में से एक हैं जो हाल ही में रामेश्वरम के दक्षिण में बसे तटीय गांव धनुषकोडि पहुंचे हैं. अपने पति और छह बच्चियों के साथ यहां पहुंची सहाया की कहानी उन तमिलों की विपदा को बयां करती है जो श्रीलंका में उन इलाकों में रह रहे हैं जहां सरकार का नियंत्रण है और जहां लिट्टे ने एक अलग तमिल राष्ट्र के लिए सरकार के साथ संघर्ष छेड़ रखा है. सहाया का परिवार उत्तरी श्रीलंका में वावुनिया जिले के पूर्वसंकुलम गांव में रहता था. उनके पति शिवलिंगम किसान थे.

वावुनिया में तमिलों का अपहरण और उनकी गुमशुदगी एक आम बात हो चली थी. लिट्टे के लड़ाके अक्सर जंगलों से बाहर आते और सेना पर हमला करते. बदले में सेना कई बार अपना गुस्सा स्थानीय तमिलों पर निकालती. सहाया कहती हैं, ‘हमें हमेशा सेना का डर बना रहता था. तमिल युवाओं को पकड़कर सेना के कैंप में ले जाया जाता. पूछताछ करके सेना तो उन्हें छोड़ देती मगर बाद में कुछ अज्ञात लोग उनका अपहरण कर लेते. इसके बाद वे कभी नहीं दिखते थे.’

एक दिन उनके पति की भी बारी आई. एक सुबह शिवलिंगम अपने खेत की तरफ जा रहे थे कि एक शख्स ने उन्हें पकड़ लिया. शोर मचाने पर उसने कहा कि वह लिट्टे से है. इस बीच आस-पास के काफी लोग इकट्ठा हो गए थे. उस आदमी ने शिवलिंगम से पूछा कि क्या वे सिंहली जानते हैं. शिवलिंगम ने झूठ बोलते हुए कहा कि नहीं. इसके बाद वो शिवलिंगम को कुछ दूर खड़ी सेना की एक वन तक ले गया जिसमें कुछ और लोग भी बैठे हुए थे. उन्होंने आपस में बात की और फैसला किया कि क्योंकि कई लोगों ने इस घटना को देखा है इसलिए शिवलिंगम को फिलहाल छोड़ दिया जाए और बाद में फिर कभी पकड़ा जाए. बातचीत सिंहली में हो रही थी और शिवलिंगम को इसका ज्ञान था इसलिए उन्हें सब समझ में आ गया. इसके कुछ ही दिन बाद ही शिवलिंग और उनका परिवार उत्तर-पश्चिमी तट पर स्थित मन्नार जिले की तरफ चल दिया. पिछले साल तक यहां के कुछ इलाके लिट्टे के कब्जे में थे मगर अब इस पर पूरी तरह से सरकार का नियंत्रण है. यहां से भारत जाने के लिए नाव मिल जाती है जिससे आम परिस्थितियों में धनुषकोडि तक पहुंचने में करीब तीन घंटे लगते हैं. हाल में भारत पहुंचने वाले शरणार्थी बताते हैं कि श्रीलंकाई नौसेना ने इस इलाके में चौकसी बढ़ा दी है जिससे मन्नार से भारत जाने के लिए किराए पर नाव मिलना बहुत मुश्किल हो गया है. जो नौका ये खतरा उठाने के लिए तैयार हो जाती है उसका किराया 15,000 से 20,000 श्रीलंकाई रुपए होता है. ‘अगर श्रीलंका की नौसेना ने शरणार्थियों से भरी कोई नौका पकड़ ली तो इसके मालिक का जेल जाना तय होता है. यही नहीं, उसका मछली पकड़ने का परमिट भी रद्द हो जाता है’ तमिलनाडु में शरणार्थी शिविर चलाने वाले एक गैरसरकारी संगठन से जुड़े स्वयंसेवक जॉनसन कहते हैं.

अगर उसी नौका को भारतीय नौसेना पकड़ ले तो शरणार्थियों को तमिलनाडु के किसी कैंप में भेज दिया जाता है. नौकामालिक को या तो गिरफ्तार कर लिया जाता है या फिर राज्य में चल रहे एक विशेष कैंप में भेजा जाता है जहां तमिल उग्रवादियों को हिरासत में रखा गया है. शरणार्थियों के मुताबिक कई तमिल अब भी भारत आने के लिए सही मौके के इंतजार में हैं. तमिलनाडु में अलग-अलग जगहों पर 100 शिविरों में इस समय करीब 80,000 शरणार्थी रह रहे हैं. जबकि इसी साल अब तक भारत में करीब 150 तमिल शरणार्थी आ चुके हैं.

श्रीलंका से सबसे पहले इनका आना 1980 के दशक में तब शुरू हुआ जब इस देश में जातीय तनाव भड़क उठा था. 2002 में जब लिट्टे और सरकार के बीच युद्ध विराम हुआ तो इनकी संख्या में काफी कमी आई. मगर 2006 में फिर से संघर्ष शुरू होने के बाद ये सिलसिला फिर से शुरू हो गया.

श्रीलंका में अलग-अलग जगहों से ताल्लुक रखने वाले इन शरणार्थियों को उनकी दुखभरी कहानी की समानता आपस में जोड़ती है. इनमें से ज्यादातर लोगों को सेना के दबाव के चलते अपना घर छोड़ना पड़ा है. दरअसल पहले ये लोग लिट्टे के कब्जे वाले इलाकों में तमाम मुसीबतें ङोलते हुए रह रहे थे और अब जब ये इलाके सेना के कब्जे में हैं तो उन्हें इस आतंकवादी संगठन के मददगारों के तौर पर देखा जा रहा है.

मैं अपनी जान बचाने के लिए भाग आया. सेना ने मुझ पर लिट्टे को खाना पहुंचाने का आरोप लगाया

अधिकांश शरणार्थी धनुषकोडि में उतरते हैं या फिर रामेस्वर के पास मौजूद छोटे से किसी टापू पर. यहां से स्थानीय मछुआरे या भारतीय नौसेना उन्हें अरिचलमुनाई तक ले आती है जो धनुषकोडि के दक्षिणपूर्वी किनारे पर स्थित जमीन की एक संकरी सी पट्टी है. ऐसे कई लोगों को देख चुकीं स्थानीय निवासी मुनियम्मा याद करती हैं, ‘मैंने तमाम शरणार्थियों को यहां आते देखा है. छोटे बच्चों को सीने से लगाए औरतों को और उनके साथ चल रहे डर से रोते बच्चों को.’

अरिचलमुनाई से शरणार्थी रेतीले रास्ते पर पैदल चलते हुए धनुषकोडि पहुंचते हैं जो 1964 में आए समुद्री तूफान के बाद एक भुतहा कस्बे में तब्दील हो गया था. उस समय आई ऊंची लहरों ने यहां की हर चीज को तबाह कर दिया था. इस हादसे में कुछ ही लोग जिंदा बचे थे. इनमें मछुआरों के कुछ 300 परिवार भी थे जो बिजली और दूसरी बुनियादों के बगैर आज भी यहां रहते हैं. शरणार्थियों को भारतीय जमीन पर पहला भोजन इन्हीं मछुआरों से मिलता है. 16 साल का स्थानीय किशोर विनोद कहता है, ‘जितनी हो सकती है, हम उनकी पैसे से भी मदद करते हैं.’

धनुषकोडि से शरणार्थियों को पंजीकरण के लिए वन द्वारा मूनराम छठीराम स्थित नौसेना आउटपोस्ट तक ले जाया जाता है. इसके बाद धनुषकोडि पुलिस स्टेशन में उनसे राज्य और केंद्र की खुफिया एजेंसियां कड़ी पूछताछ करती हैं. फिर उन्हें रामेश्वरम से 20 किमी दूर स्थित मंडपम ट्रांजिट कैंप ले जाया जाता है.

मंडपम में रह रहे हर शरणार्थी के पास सुनाने के लिए कई भयावह कहानियां हैं. पिछले साल नवंबर में अपने चार साल के बेटे के साथ यहां आने से पहले 34 साल के बूमिनाथन मन्नार में परचून की दुकान चलाते थे. पिछले साल अगस्त में लिट्टे के एक हमले के बाद श्रीलंकाई सैनिकों ने उनकी दुकान लूटकर उसमें आग लगा दी. बूमिनाथन याद करते हैं, ‘आग में मेरा दो लाख का सामान जल कर खाक हो गया. मैं उस घाटे से उबर नहीं सका.’ बूमिनाथन इस घटना की रिपोर्ट करवाने पुलिस के पास गए मगर इंसाफ मिलना तो दूर उल्टे उन्हें अपने बेटे के साथ सेना के शिविर में जाना पड़ा. दो हफ्ते बाद उन्हें इस शर्त पर छोड़ा गया कि वो हर हफ्ते पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करेंगे. बूमिनाथन कहते हैं, ‘जब मैं हर हफ्ते पुलिस स्टेशन जाता था तो मेरे साथ मारपीट की जाती थी और उन लिट्टे छापामारों की पहचान करने को कहा जाता था जिन्होंने सेना पर हमला किया था.’ बस बूमिनाथन ने देश छोड़ने का फैसला कर लिया.

वावुनिया जिले के चेट्टिकुलम के निवासी एस. राजन और उनकी पत्नी थिरुकलानिधि ने सेना के डर से अपने दो बेटों को पिछले साल ही भारत भेज दिया था. सेना को शक था कि वे लिट्टे में शामिल हो गए हैं और वह इस दंपत्ति को परेशान करती रहती थी. पेशे से कारपेंटर उनके तीसरे बेटे को भी अक्सर पूछताछ के लिए पकड़ लिया जाता था. राजन कहते हैं, ‘बेटे की जान बचाने के लिए हमने भारत भाग जाने का कठिन फैसला लिया.’ राजन के पास खेती की 33 एकड़ जमीन थी और वे इस सीजन में बढ़िया फसल और बढ़िया कमाई की उम्मीद कर रहे थे. मगर परिवार ने खेती की जगह अपनी जान को तरजीह दी और 19 जनवरी को भारत जाने के लिए नौका में सवार हो गया. थिरुकलानिधि कहती हैं, ‘हमने बहुत सी चीजें खो दीं मगर हम यहां शांति से सो सकते हैं. वहां तो कुतों के भौंकने या घर के पास से किसी मोटरसाइकिल के गुजरने की आवाज से ही हमें रात भर जागना पड़ता था.’

चित्रा देवी और सी. चंद्रशेखरन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. चंद्रशेखर के तीन जवान बेटे हैं और वे तमिल युवाओं के गायब होने के कई किस्से सुनते रहते थे. चित्रा कहती हैं, ‘सेना के जवान रात में नकाब लगाए हुए आते और नौजवानों को पकड़ कर ले जाते. पिछले एक साल में हमारे इलाके से कई नौजवान गायब हो चुके थे जिनका कोई पता नहीं चला. इससे पहले ये हमारे बच्चों के साथ होता, हमने वह जगह छोड़ दी.’

अपनी बीवी को वहीं छोड कर अपनी दो बेटियों के साथ भारत आ गए सेल्वाकुमार कहते हैं, ‘मैं अपनी जान बचाने के लिए भाग आया. सेना ने मुझ पर लिट्टे को खाना पहुंचाने का आरोप लगाया था. अगर मैं वहां रहता तो वे मुझे मार देते.’

हताश जिंदगियां, टूटे सपने और बिखरे परिवार..तमिल शरणार्थियों की जिंदगी का यही सार है. ’