पड़ोस में पांव पसारता शैतान

कभी पर्यटकों से गुलजार रहने वाली खूबसूरत स्वात घाटी में अब डर पसरा हुआ है. पिछले डेढ़ साल के दौरान यहां के 15 लाख लोगों की जिंदगी की डोर ढाई हजार तालिबानी आतंकियों के हाथ में आ गई हैं. उनका नेता है मौलवी फजलुल्लाह या मुल्ला रेडियो जो अपना एमएफ रेडियो स्टेशन चलाता है और उसी के जरिए लोगों को अपने मध्यकालीन फरमान सुनाता है. फजलुल्लाह के लड़ाकों और पाकिस्तानी सेना के बीच दो साल से लड़ाई छिड़ी हुई थी. पिछले साल के दौरान तालिबान ने स्वात के ज्यादातर हिस्से पर कब्जा जमा लिया है. इस लड़ाई में अब तक 1200 से भी ज्यादा बेगुनाहों की जान जा चुकी है और साढ़े तीन लाख से भी ज्यादा लोगों को घाटी छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है. पैसे वाले लोग तो पेशावर या इस्लामाबाद के पॉश इलाकों का रुख कर गए और तालिबान का कहर भुगतने के लिए बचे वे गरीब जिनके पास जाने के लिए कोई ठिकाना नहीं था.

स्वात में एक एयरपोर्ट भी था और इसके आकर्षण में बंधे पर्यटक दुनिया भर से यहां आते थे

तालिबान ने अपना निशाना खास तौर पर उन्हें बनाया जो कानून और व्यवस्था से जुड़े विभागों में नौकरी कर रहे थे. उनका अपहरण किया गया, उन्हें अपंग बनाया गया और उनकी हत्या तक कर दी गई. हत्या को एक सार्वजनिक आयोजन में तब्दील कर क्रूरता का ऐसा प्रदर्शन किया गया जिससे लोगों को संदेश मिल जाए कि तालिबान की बात न मानने वालों का हश्र क्या हो सकता है.

खूनी चौक इस आतंक का एक प्रतीक बन गया. स्वात के मुख्य शहर मिंगोरा में स्थित इस चौराहे पर देर रात तालिबान आतंकियों का एक झुंड आता और कुछ शवों को चौक के बीच में स्थित एक खंभे पर लटका देता. इन शवों में से कई का सिर गायब होता और उन पर एक नोट लगा होता जिसमें उनका नाम और इस्लाम के खिलाफ किया गया उनका जुर्म लिखा होता. शवों को एक तय दिन तक वहां रखा जाता था. संदेश साफ था कि तालिबान के फरमान के खिलाफ जाने वालों के साथ क्या हो सकता है.

ये उस स्वात घाटी में हो रहा था जिसके बारे में कहा जाता था कि वहां न सिर्फ फ्रंटियर प्रोविंस बल्कि पूरे पाकिस्तान में सबसे ज्यादा शांतिप्रिय और शिक्षित लोग रहते हैं. 1969 में पाकिस्तान में सम्मिलित होने वाली इस पूर्व रियासत में पाकिस्तान के बाकी हिस्सों की तुलना में बेहतर स्कूल, अस्पताल और पुलिस थाने थे. स्वात में एक एयरपोर्ट भी था और इसके आकर्षण में बंधे पर्यटक दुनिया भर से यहां आते थे.

मगर अब हालात बदल गए हैं. कानून- व्यवस्था पूरी तरह से खत्म हो चुकी है. ज्यादातर पुलिसकर्मी या तो भाग गए हैं या उन्होंने इस्तीफा दे दिया है या फिर वे काम पर ही नहीं आ रहे. स्थानीय अखबारों में ऐसे विज्ञापनों की भरमार है जिनमें पुलिसकर्मी ये घोषणा कर रहे हैं कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी है और उनके छोटे-छोटे बच्चों की खातिर उन्हें बख्श दिया जाए. इन हालात से निपटने और तालिबानी आतंकियों से मुकाबला करने के लिए 600 स्थानीय युवाओं को खास कमांडो ट्रेनिंग के लिए चुना गया था. मगर इनमें से 450 तो ट्रेनिंग के दरम्यान ही गायब हो गए जबकि बाकी 148 नौकरी ज्वॉइन करने वाले दिन पहुंचे ही नहीं. 

लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिबंध लग चुका है और इसके चलते स्वात की 100000 से भी ज्यादा लड़कियों की शिक्षा और भविष्य अधर में लटक गए हैं

ऐसे में स्वात के लोग मजहब की हिफाजत के नाम पर दरिंदगी करने वाले भेड़ियों के रहमोकरम पर रह गए. सरेआम लोगों का सिर कलम किया गया और उन्हें फांसी दी गई. तालिबान के फरमान के खिलाफ जाने वालों को बंदूकधारी नकाबपोशों ने भीड़ के सामने गोलियों से छलनी कर दिया गया. ऐसी घटनाओं के वीडियो भी बनाए गए ताकि लोगों में ज्यादा से ज्यादा डर पैदा किया जा सके. पहले ही बेरोजगारी और भूख से परेशान आबादी के दिलोदिमाग पर इसका काफी गहरा असर हुआ.

स्वात के 80 फीसदी लोगों की कमाई पर्यटन से जुड़ी हुई थी. इन लोगों के लिए जिंदगी थम सी गई है. न बगीचों में काम करने के लिए मजदूर हैं और न फसल के लिए खरीदार. लोगों को कई दिन तक ईंधन, खाने और बिजली जैसी चीजों के बिना गुजारा करना पड़ रहा है. मिंगोरा के एकमात्र सिनेमा हॉल को बंद कर दिया गया है. टीवी और संगीत पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. यहां तक कि बाल काटने की दुकानें भी बंद करवा दी गई हैं क्योंकि तालिबान का मानना है कि दाढ़ी बनवाना गैरइस्लामी है.

इन हालात की सबसे ज्यादा मार औरतों, बच्चों और अपंगों पर पड़ रही है. 200 से भी ज्यादा स्कूल बम से उड़ा दिए गए क्योंकि तालिबान के मुताबिक वे लड़कियों को पश्चिमी शिक्षा दे रहे थे. लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिबंध लग चुका है और इसके चलते स्वात की 100000 से भी ज्यादा लड़कियों की शिक्षा और भविष्य अधर में लटक गए हैं. ये उस जगह पर हो रहा है जहां शिक्षा और नौकरियों के क्षेत्र में महिलाओं का अनुपात पूरे प्रांत में सबसे ज्यादा था. तालिबान के नए आदेश में लड़कियों को चौथी क्लास तक पढ़ने की इजाजत मिल सकती है मगर उनका पाठ्यक्रम बदला जाएगा. इसके साथ ही उन्हें हमेशा सिर को स्कार्फ से ढके रहना होगा. हालांकि इसमें भी कुछ वक्त लगेगा क्योंकि ज्यादातर स्कूल बमबारी से बर्बाद कर दिए गए हैं.

स्वात में महिलाएं अपने ही घर में कैदी बनकर रह गई हैं क्योंकि उन्हें बाहर निकलने की इजाजत नहीं है. कॉस्मेटिक्स और चूड़ियों की दुकानों वाला सेंट्रल बाजार अब किसी भुतहा जगह जसा लगता है. महिलाओं को नौकरी करने की इजाजत भी नहीं है. यहां तक कि महिला डॉक्टरों को भी घर बैठने का फरमान सुना दिया गया है. डॉक्टरों के न होने से बच्चों की मौत के किस्से आम हो चले हैं. कई दूसरे लोग दवाओं और इलाज की कमी के चलते दम तोड़ चुके हैं.

सवाल उठता है कि आखिर 15 लाख लोगों ने चंद तालिबानी गुंडों के उन अमानवीय फरमानों को कैसे मान लिया जिनका इस्लाम समर्थन ही नहीं करता? जवाब है कि ये लोगों की गलती नहीं है. वे तो पिछले चुनाव में उदारवादी ताकतों को वोट देकर सत्ता में लाए थे. पर लगता है कि तालिबान नाम के शैतान से लोगों को बचाने के लिए इन पार्टियों के पास या तो राजनीतिक ताकत नहीं थी या फिर इच्छाशक्ति.

मगर फिर दूसरा सवाल उठता है कि तालिबान ने इतनी ताकत कैसे हासिल कर ली? असल में रियासत के दौरान यहां की न्याय व्यवस्था काफी बेहतर थी लेकिन पाकिस्तान में विलय के बाद इसमें काफी भ्रष्टाचार फैल गया. इसलिए लोग चाहते थे कि शरीयत अदालतों की स्थापना हो ताकि न्याय जल्द से जल्द मिल सके. तालिबान इस स्थिति का फायदा उठाकर ताकत बढ़ाता चला गया. आम लोगों के लिए ये दो बुरे विकल्पों से से कम बुरे वाले को चुनने जैसा था.

अब सारी उम्मीदें मौलाना सूफी मोहम्मद यानी फजलुल्लाह के ससुर पर टिकी हैं. सूफी हाल में में छह साल जेल की सजा काटकर रिहा हुआ है. उस पर 2001 में दस हजार पश्तूनों को साथ लेकर अफगानिस्तान पर हमला करने वाली अमेरिकी फौज से लड़ने का आरोप था. इस लड़ाई में 7000 पश्तून मारे गए थे और सूफी जान बचाकर भाग निकला था. मारे गए उन लोगों के रिश्तेदार आज भी सूफी से नफरत करते हैं. उसी सूफी का सहारा लेकर फजलुल्लाह को इसके लिए राजी करने की कोशिशें हो रही हैं कि वह सरकार द्वारा की गई युद्धविराम की पेशकश मान ले. फजलुल्ला आंशिक तौर इसके लिए राजी हो गया है इसलिए फिलहाल स्वात में शांति है मगर कोई नहीं जानता ये कितने दिन कायम रहेगी.

तालिबान के साथ युद्धविराम समझौते से कई सवाल खड़े होते हैं. पहला ये कि क्या मान लिया जाए कि पाकिस्तान सरकार ने उन तालिबानी आतंकियों के सामने घुटने टेक दिए हैं जो देश को मध्ययुगीन इस्लामी व्यवस्था में ले जाना चाहते हैं? या फिर ये सेना की सोची-समझी रणनीति है?

ये भी एक विडंबना है कि इस समझौते पर फ्रंटियर प्रोविंस के मुख्यमंत्री अमीर खान होती ने दस्तखत किए हैं जो अहिंसावादी और सीमांत गांधी के नाम से मशहूर खान अब्दुल गफ्फार खान के पड़पोते हैं. इस समझौते को सही बताते हुए उनके शब्द थे, ‘मैंने ऐसा इसलिए किया ताकि हिंसा रुक जाए. मैंने चुनाव के दौरान अपने वोटरों से शांति बहाल करने का वादा किया था.’ उनके चाचा और प्रांत में सरकार चला रही अवामी नेशनल पार्टी के मुखिया अफसंद यार वली तालिबान आतंकियों के निशाने पर हैं. उन पर तीन महीने पहले आत्मघाती हमला हो चुका है और उनकी पार्टी के ज्यादातर नेता जान के डर से भागते फिर रहे हैं.

जहां तक केंद्र की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) सरकार का सवाल है तो वह काफी सावधानी बरत रही है. राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी का कहना है कि वह इस मामले पर फैसला तब करेंगे जब समझौता दस्तखत के लिए उनके सामने आएगा. वाशिंगटन के दौरे पर गए विदेश मंत्री शाह महमूद अमेरिका को शांत करने के लिए कह गए कि ये समझौता एक स्थानीय बीमारी की स्थानीय दवा है. पीपीपी ने न तो इस समझौते को स्वीकार किया है और न ही ठुकराया है. आधिकारिक रूप से कोई फैसला लेने से पहले पीपीपी सरकार कम से कम कुछ महीनों तक ये देखना चाहेगी कि इस समझौते का नतीजा क्या होता है. इस दौरान पीपीपी के नेता ये तर्क दे रहे हैं कि शरीयत अदालतों और सख्त इस्लामी अदालतों में फर्क है. उदाहरण के लिए नया कानून महिलाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध नहीं लगाएगा और न ही ऐसे सख्त नियमों को थोपेगा जिनका तालिबान, पाकिस्तान या अफगानिस्तान में समर्थन करते रहे हैं.

उधर, पाकिस्तान के उदारवादी वर्ग में इस समझौते पर भारी नाराजगी है. उसका मानना है कि सरकार आतंकी तत्वों के हाथ बिक गई है. मानवाधिकार कार्यकर्ता इकबाल हैदर इसे शैतान के साथ समझौता करार देते हुए कहते हैं, ‘आप उन्हीं लोगों के साथ कैसे खड़े हो सकते हैं जिन्होंने सैकड़ों बेगुनाहों की जान ली हो. ये सिद्धांतों का मामला है जिनकी जगह सबसे ऊपर है. इन लोगों पर इंसानियत के खिलाफ अपराध के लिए मुकदमा चलना चाहिए.’ पाकिस्तानी सेना को भारत के साथ लड़ने के लिए प्रशिक्षित किया है और आतंकवाद से लड़ने में ये शायद उतनी सहजता महसूस नहीं करती

उदारवादी वर्ग का तर्क है कि ये समझौता दूसरे तालिबानी आतंकियों के लिए मिसाल बन जाएगा और वे इस प्रांत के दूसरे हिस्सों में भी शरीयत व्यवस्था की मांग करने लगेंगे. वरिष्ठ विश्लेषक सलीम खिलजी कहते हैं, ‘अब उन्हें मालूम है कि सरकार को झुकाने का तरीका आतंकवाद है.’ खिलजी की बात में दम है क्योंकि समझौता तालिबान को अपनी ताकत बढ़ाने का मौका देता है. सरकार ने ये मांग मान भी ली है कि स्वात के अलावा मलाकंद डिविजन के पांच दूसरे जिलों में भी नई शरीयत व्यवस्था का विस्तार किया जाएगा.

उधर, पाकिस्तान की सेना ने इस मसले पर सरकार की आड़ ले ली है. उसका कहना है कि वह सरकार के उस आदेश का पालन कर रही है जिसमें उसे अगले नोटिस तक इलाके से बाहर रहने को कहा गया है. अगर इस समझौते से शांति बहाल हो जाती है तो सबसे ज्यादा राहत सेना को ही मिलेगी क्योंकि इस लड़ाई की सबसे ज्यादा मार उस पर भी पड़ी है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सेना ने अपने सौ जवान गंवाए हैं मगर तालिबान का दावा है कि ये संख्या इससे कहीं ज्यादा हो सकती है.

मुद्दा ये है कि पाकिस्तानी सेना को भारत के साथ लड़ने के लिए प्रशिक्षित किया है और आतंकवाद से लड़ने में ये शायद उतनी सहजता महसूस नहीं करती. ऐसा इसलिए है क्योंकि इसे भारतीय सेना की तरह इस तरह की लड़ाई का ज्यादा तजुर्बा नहीं है जिसने लगातार कश्मीर, नागालैंड और मिजोरम जैसी जगहों पर ऐसे हालात का सामना किया है.

हालांकि किसी भी तरह की स्थिति से निपटने के लिए सेना स्वात पर नजर रखेगी. माना जा रहा है कि सूफी मोहम्मद या तो शांति बहाल करवा देगा या फिर अपने दामाद के साथ भिड़ जाएगा. इसमें सेना का ही फायदा होगा क्योंकि तब लड़ाई सेना बनाम तालिबान की जगह आतंकवादी बनाम आतंकवादी की होगी.

मगर इसके उलट ये भी आशंकाएं जताई जा रही हैं कि इस वक्त का इस्तेमाल ये दो धड़े आपस में संगठित होकर अपनी ताकत बढ़ाने और बाद में बड़े स्तर पर हमला करने में कर सकते हैं. ऐसा होने के संकेत मिलने भी लगे हैं. इस इलाके में हथियारों के दाम बढ़कर दोगुने हो गए हैं क्योंकि उनकी मांग बहुत ज्यादा हो गई है.

वैसे भी लगता नहीं कि ये समझौता लागू हो पाएगा. ऐसा इसलिए है क्योंकि हर पक्ष इसकी अपनी-अपनी तरह से व्याख्या कर रहा है. फ्रंटियर और इस्लामाबाद की सरकारें सोचती हैं कि शरीयत अदालतें नई बोतल में पुरानी शराब जैसी हैं. उधर, सूफी मोहम्मद का मानना है कि इस समझौते के तहत धार्मिक विद्वान स्वतंत्र जज होंगे और उनकी भूमिका महज दीवानी अदालतों को सुझाव देने की नहीं होगी. जैसा कि सूफी मोहम्मद के प्रवक्ता मौलाना क्षत का कहना है, ‘जजों के मामले में पसंद हमारी होगी और सारी ताकतें उनके(जजों के) पास होंगी.’

फजलुल्लाह न्यायपालिका के अलावा बाकी सारे क्षेत्रों में भी शरीयत व्यवस्था लागू करना चाहता है. उसके दूसरे प्रवक्ता मुस्लिम खान के शब्दों में ‘हम इस पूरे इलाके को पाक किताब के हिसाब से चलाएंगे. हमें अपने अलावा किसी और की व्यवस्था मंजूर नहीं और अल्लाह ने चाहा तो हम जल्द ही इसे पाकिस्तान के दूसरे हिस्सों में भी फैला देंगे.’

कम पढ़ा-लिखा फजलुल्लाह कभी लिफ्ट ऑपरेटर हुआ करता था. खास बात ये है कि उसने पहले अपने दम पर अपनी ताकत बढ़ाई और बाद में तालिबान और अल-कायदा ने उसे अपनी तरफ मिलाकर इस इलाके का कमांडर बना दिया. स्वात अकेली ऐसी जगह है जहां पर पूरी तरह से तालिबान का कब्जा हो गया है. ऐसा इसकी भौगोलिक स्थिति के कारण भी है. ये घाटी चारों तरफ से दुर्गम पहाड़ियों से घिरी हुई है और बाकी देश से इसका संपर्क मुख्य रूप से संकरी घाटी से गुजरती एक सड़क के जरिए होता है जिसे आसानी से बाधित किया जा सकता है. इसलिए संख्या बल में कम होने के बावजूद यहां तालिबान के लिए अपना कब्जा बनाए रखना आसान है. बाजौर, खैबर और वजीरिस्तान में भी तालिबान ताकतवर है मगर वहां स्वात की तरह व्यवस्था पर इसका कब्जा नहीं है.

स्वात की सीमा अफगानिस्तान से नहीं लगती और परंपरागत रूप से ये एक शांत इलाका रहा है जहां देश-विदेश से सैलानियों को आना-जाना लगा रहता था. बाजौर, खैबर और वजीरिस्तान जसे इलाकों में कबीलों की आपसी लड़ाई का इतिहास पुराना है मगर स्वात में स्थितियां कभी भी ऐसी नहीं थीं. इसलिए इस समझौते का संदेश अगर तालिबान की जीत के रूप में बाहर जाता है तो पाकिस्तान के दूसरे हिस्सों में भी आतंकवाद की आग को हवा मिल सकती है. व्यापक संदर्भ में देखा जाए तो ये और भी गंभीर हो जाता है क्योंकि वजीरिस्तान में पाकिस्तान समर्थक मुल्ला नाजिर, सरकार विरोधी बैतुल्ला मसूद और हाजी गुल बहादुर जैसे लड़ाके अपने मतभेद भुलाकर एक हो गए हैं. बाजौर में भी तालिबान अब ऐसी ही शरीयत अदालतों उम्मीद कर रहे हैं. उधर, खैबर में हमीमुल्लाह ने नाटो सेनाओं की रसद आपूर्ति रोक रखी है. इन सारे तत्वों, जिनमें कश्मीर के आतंकवादी भी शामिल हैं, के तार आपस में जुड़े हुए हैं तालिबान नाम के शैतानी जिन्न की ताकत बढ़ती जा रही है और ये सिर्फ पाकिस्तान के लिए नहीं बल्कि पूरे इलाके