स्लमडॉग मिलियनेर के आठ ऑस्कर और दुनिया भर के बॉक्स ऑफिस पर रेकॉर्ड कमाई से मुझे कोई एतराज नहीं है. शिकायत मुझे उसकी सफलता को भारतीय सिनेमा की विजय मानने और उसके विश्व मंच पर आगमन का उत्सव मनाने से है.
मुझे अल्ला रक्खा रहमान, गुलजार और रेसुल पोकुट्टि के ऑस्कर जीतने पर उतनी ही खुशी है जितनी उन्हें और उनके प्रशंसकों को हुई है. बल्कि पोकुट्टि का अपने देश और उसकी सभ्यता में से ओमकार के निकलने और उसके उच्चार के बाद मौन और शांति के आने का उल्लेख करना बहुत भाया. वे साउंड मिक्सिंग का ऑस्कर स्वीकार कर रहे थे. केरल के मुसलमानी लगते नाम वाले रेसुल ने ही लास एंजिलिस से याद दिलाया कि आज शिवरात्रि है. सत्यम शिवम सुंदरम के शिव की रात्रि उनके लिए ऑस्कर की रात्रि थी. भारत में किसी टीवी चैनल ने ऑस्कर रात्रि को शिवरात्रि से मिलाने की सूझबूझ नहीं दिखाई हालांकि वे शिवरात्रि जैसे पर्वो और उत्सवों को लगातार बेचते रहते हैं.
मुंबई की गंदी बस्तियों में प्रेम, आशा और भविष्य और जीवन की अमरता की कहानियां बॉलीवुड ने स्लमडॉग से बेहतर बनाई हैं. यह बात अलग है कि उन्हें आठ क्या एक भी ऑस्कर बल्कि भारतीय अवार्ड ही नहीं मिले
पोकुट्टि की तकनीकी प्रवीणता पर तो अपन ज्यादा कुछ नहीं कह सकते. लेकिन रहमान ने निश्चित ही इससे बेहतर संगीत अपनी दूसरी फिल्मों में दिया है और उनकी सराहना, प्रशंसा और पुरस्करण भी हुआ है. गुलजार ने तो निश्चित ही ‘जय हो’ से बेहतर गीत लिखे हैं. फिर यह ऑस्कर विजेता गीत तो गुलजार ने स्लमडॉग के लिए लिखा भी नहीं था. सुभाष घई की किसी फिल्म के लिए लिखा था और रहमान के दिए संगीत पर सुखविंदर ने गाया था. घई ने फिल्म में नहीं लगाया डैनी बॉयल ने लगा लिया. लेकिन ऐसा तो संयोग से ही होता है कि अच्छे लिखे, अच्छे गाए और शानदार संगीत दिए गीत पर पुरस्कार मिल जाए वह भी ऑस्कर. कहते हैं यह गीत ऐसा हिट हुआ है कि अमेरिका में भी लोग एक-दूसरे के अभिवादन में ‘जय हो’ कर रहे हैं.
स्लमडॉग की यह आलोचना भी अपने गले नहीं उतरती कि इसमें भारत की गरीबी का नंगा और भयावह चित्रण चटकारे ले कर किया गया है. समृद्ध पश्चिम में भारत की गरीबी बिकती है. इसे देख कर यूरोप और अमेरिका के खाते-पीते और अपने को बेहतर मानने वाले लोगों को अधम आनंद मिलता है. मिले. यह गरीबी हमारा यथार्थ है. हमारी सच्चाई है. हमारी गंदी बस्तियों में हिंसा, यौनाचार, गंदगी और सभी तरह की विकृतियों का जीवन है. उससे मुंह चुराने या उस पर मखमल की लाल जाजम डाल के उसे छुपाने की क्या जरूरत है. हमारे महानगर पश्चिमी औद्योगिक सभ्यता की ही उपज हैं जिनमें गंदी बस्तियां अनिवार्य रूप से बनती और बसती हैं. दुनिया में सब जगह हैं. अमेरिका में भी हैं. अमेरिका अपनी गंदी बस्तियों के जीवन को अपने राष्ट्रीय जीवन का प्रतिनिधि नहीं मानता क्यों वह समृद्ध है.
हम अपनी गंदी बस्तियों से डरते हैं क्योंकि वे हमारी समृद्धि की पोल खोलती हैं. हम जानते हैं कि हमारा विकास और हमारी समृद्धि भारत की असलियत नहीं है. हम अपनी समृद्धि को चमकाने के लिए गंदी बस्तियों पर परदा डालते हैं. इसलिए हमें बुरा लगता है कि कोई उन्हें उघाड़ कर लाल गोले में दिखा रहा है. भूलना नहीं चाहिए कि अपने सबसे सर्जनात्मक फिल्मकार सत्यजित राय पर भी अपनी कलाकार अभिनेत्री नर्गिस दत्त ने भरी राज्यसभा में यही आरोप लगाया था कि वे भारत की गरीबी दिखा कर यूरोप में वाहवाही लूट रहे हैं. गरीबी और गंदी बस्तियां सत्यजित राय, बिमल राय ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी आदि सभी ने दिखाई है. हमारे ये फिल्मकार गरीबी बेच कर यश और पैसा लूटने नहीं आए. डैनी बॉयल अंग्रेज है तो उसके मुंबई के धारावी चित्रण से हमारी ऐसी क्या बदनामी हो गई कि हम मारे शरम के मर जाएं.
मुंबई की गंदी बस्तियों पर स्लमडॉग के पहले मीरा नायर की ‘सलाम बांबे’ ही एक फिल्म नहीं है. कई फिल्में बनी हैं. बॉलीवुड ने ही बनाई हैं जिनमें गंदी बस्तियों का जीवन ज्यादा तटस्थता, क्रूरता और कलात्मकता से दिखाया गया है. स्मिता पाटिल जैसी अप्रतिम अभिनेत्री भी स्लम की बाई बनी हैं और अमिताभ बच्चन का एंग्री यंगमैन भी इन्हीं बस्तियों से निकला है. मुंबई की गंदी बस्तियों में प्रेम, आशा और भविष्य और जीवन की अमरता की कहानियां बॉलीवुड ने स्लमडॉग से बेहतर बनाई हैं. यह बात अलग है कि उन्हें आठ क्या एक भी ऑस्कर बल्कि भारतीय अवार्ड ही नहीं मिले.
अमेरिका के लोग और वहां की अकादमी महामंदी के इस जमाने में एक ऐसी फील गुड फिल्म की तलाश में थे जो कंगाल से करोड़पति के अमेरिकी सपने को जीवित रखती हो
डैनी बॉयल ने स्लमडॉग अच्छी फिल्म बनाई है लेकिन भारत जहां हॉलीवुड से ज्यादा फिल्में बनती हैं – ऐसी और इस फिल्म को अपना सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार नहीं देता. इसका कारण यह नहीं कि उसमें कलात्मक समझ नहीं है और बॉलीवुड सिर्फ बॉक्स ऑफिस की चिंता करता है. भारत में फिल्मों की उत्कृष्टता को जांचने के पैमाने अलग हैं. और वे हॉलीवुड से कोई कमतर नहीं हैं.
हमारी समस्या यह है कि हमारे यहां ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो हॉलीवुड के ऑस्कर ही नहीं, अमेरिकी-यूरोपीय जीवन की लगभग सभी बातों, मूल्यों और चलन को भारत की चीजों से बेहतर मानते हैं. इन लोगों को ऑस्कर नोबेल, बुकर, पुलित्जर आदि पुरस्कार विश्व के सबसे बड़े पुरस्कार लगते हैं. इनके लिए अब अमेरिका तो पहले पश्चिम यूरोप ही विश्व हुआ करता था. इन लोगों के लिए स्लमडॉग का विकास स्वरूप के अंग्रेजी उपन्यास – क्यू एंड ए – पर आधारित होना और उसका मुंबई की गंदी बस्तियों में शूट किया जाना और उन्हीं के एक लड़के जमाल की कहानी होना इस फिल्म के भारतीय होने का पक्का सबूत है. जिसमें रहमान का संगीत हो गुलजार के गाने हों वह तो भारतीय सिनेमा ही है. फिर भारत का जो भी अमेरिका और यूरोप को मंजूर हो और जिसे वे पुरस्कार के लायक समझते हों – वही भारत का सच्चा, प्रामाणिक और सर्वश्रेष्ठ है. भारत, अमेरिका-यूरोप में चमक कर ही भारतीय और धन्य होता है. यही उसके होने की सार्थकता है. इसी में वह धन्य है.
यही लोग मनाते फिर रहे हैं कि स्लमडॉग के आठ ऑस्कर भारतीय सिनेमा उद्योग की सफलता है. स्लमडॉग ये ऑस्कर जीता तो इसका मतलब है कि भारतीय सिनेमा विश्व सिनेमा के मंच पर उदित हो गया है. सच? स्लमडॉग बनाने वाले डैनी बॉयल ने सर्वश्रेष्ठ निदेशक का ऑस्कर जीतने के बाद कहा कि ‘मैं बहुत खुश हूं कि जो भी भारतीय मुझे मिलता है खुशी से फटा पड़ रहा है. इससे बड़ी प्रशंसा और क्या होगी कि भारत में लोग स्लमडॉग को भारतीय फिल्म मानते हैं. लेकिन असलियत में यह एक ब्रिटिश फिल्म है. यह शुरू से ही बहुत धीरे और बहुत यथार्थवादी है. हमारी सिने संस्कृति एक ऐसे यथार्थवाद पर आधारित है जो दरअसल न बॉलीवुड की फिल्मों में होता है न हॉलीवुड की फिल्मों में.
दरअसल स्लमडॉग एक ब्रिटिश-अमेरिकन फिल्म है. इसमें पैसा अमेरिकी लगा है. निदेशक डैनी बॉयल ब्रिटिश हैं. चित्रपट कथा भी अंग्रेज ने लिखी है. इतनी आसानी से यह अमेरिका और यूरोप में मार्केट की गई और हॉलीवुड की अकादमी ने इसे हाथों-हाथ ले कर सिर पर बैठा लिया तो इसका कारण भी इसमें अमेरिका का पैसा लगना और अमेरिकी प्रोत्साहकों का इसे आगे बढ़ाना है. तीन-चौथाई यह अंग्रेजी में है और एक-चौथाई हिंदी में क्योंकि मुंबई की गंदी बस्तियों के बच्चों का यथार्थवादी चित्रण करना हो तो उन्हें हिंदी में ही बात करते ओर मां भेन की गालियां खाते हुए दिखाना पड़ेगा. कौन बनेगा करोड़पति उसके जरिए करोड़पति बन गया लेकिन करोड़पति बनने वह इस ‘शो’ पर नहीं आया था. वह तो इस पर दिखना चाहता था ताकि खोई हुई उसकी प्रेमिका लतिका उसे देख ले और वह उसे ढूंढ ले. इससे यह कंगाली से करोड़पति और प्रेम कहानी बन गई जो एकदम और एक साथ बॉलीवुड और हॉलीवुड की परीकथा जैसी लगने लगी.
ऑस्कर दरअसल अमेरिका का फिल्मी पुरस्कार है. यह सिनेमा का विश्व पुरस्कार नहीं है. जैसा कि कमल हासन ने कहा – यह ओलिंपिक नहीं है. अमेरिकी है. अमेरिका के लोग और वहां की अकादमी महामंदी के इस जमाने में एक ऐसी फील गुड फिल्म की तलाश में थे जो कंगाल से करोड़पति के अमेरिकी सपने को जीवित रखती हो. ब्रिटिश-अमेरिकी स्लमडॉग इसी जरूरत को पूरी कर रही थी. इसलिए उसे आठ ऑस्कर मिल गए. उसमें न सर्वश्रेष्ठ अभिनेता था न सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री. अल्ला रक्खा रहमान उसमें मामूली संगीत दे कर भी श्रेष्ठ मौलिक संगीत का पुरस्कार जीत गए. गुलजार का लिखा ‘जय हो’ गीत भी इसलिए श्रेष्ठ माना गया कि वह स्लमडॉग का होने के कारण ऑस्कर के योग्य हो गया. भारत की जो प्रतिभा ब्रिटिश-अमेरिकी फिल्म व्यवस्था में चमकती है वही ऑस्कर के योग्य होती है. नहीं तो बेहतर संगीत दे कर और बेहतर गीत लिख कर भी रहमान गुलजार कहीं ऑस्कर के आसपास भी नहीं थे.
एटनबरो गांधी बनाए और वह आठ ऑस्कर समेट ले जाए. डैनी बॉयल स्लमडॉग बनाए और उसे भी आठ ऑस्कर मिल जाएं. लेकिन सत्यजित राज से ले कर आमिर खान तक एक से एक बढ़िया कलात्मक और प्रामाणिक भारतीय फिल्म बनाएं और उन्हें हॉलीवुड की अकादमी पूछे तक नहीं. क्या वही भारतीय फिल्म है जिसे ब्रिटेन और अमेरिका की व्यवस्था भारत में भारतीय कथावस्तु पर बनाए? और क्या भारत विश्व सिनेमा के मंच पर तभी प्रकट होता है जब वह लॉस एंजिलिस के कोडक थिएटर पर ऑस्कर लेने आए. नहीं सर, स्लमडॉग भारतीय फिल्म नहीं है और उसकी सफलता भारतीय फिल्म उद्योग की सफलता नहीं है. भारतीय सिनेमा विश्व सिनेमा के मंच पर तभी चमकेगा और प्रतिष्ठत होगा जब भारतीय सिने पुरस्कार मुंबई में मिलेंगे और हॉलीवुड वाले उन्हें पाने को तरसेंगे. बॉलीवुड, हॉलीवुड का प्रतिद्वंद्वी है. गाउन से घिसटता जरी का पल्ला नहीं है.