19 फरवरी को लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी संसद सदस्यों के असंसदीय व्यवहार से इतना तंग आ गए कि उन्होंने ये तक कह डाला कि संसद के वर्तमान सदस्यों को न तो जनता का एक भी पैसा दिया जाना चाहिए और न ही उन्हें अगली बार चुना ही जाना चाहिए. उससे कुछ दिन पहले दस फरवरी को उत्तर प्रदेश की विधानसभा में सदस्यों द्वारा राज्यपाल पर कागज की गेंदों की बौछार कर दी गई जिससे उन्हें उल्टे पांव सदन से जाना पड़ गया. इसके एक-या दो दिन बाद ही उड़ीसा के सदन में अध्यक्ष के साथ छीना-झपटी और धक्का-मुक्की के दृश्य टीवी पर दिखाई दे रहे थे. अगर आंकड़ों पर जाया जाए तो जाती हुई 14वीं लोकसभा का 25 फीसदी हिस्सा यानी कि करीब 400 से ज्यादा घंटे या करीब 67 दिन सांसदों के गुल-गपाड़े की भेंट चढ़ गए. गौरतलब है कि पिछले साल संसद में काम ही कुल 46 दिन हुआ था.
कई बार देखा भी गया कि इधर अध्यक्ष ने कैमरों को बंद करने का आदेश दिया नहीं कि सदन में घंटों से चल रहा गुल-गपाड़ा मिनटों में बिना किसी अध्यक्षीय हस्तक्षेप के समाप्त हो गया
दूसरी ओर 13 दिसंबर को संसद पर हुए हमले की आठवीं बरसी थी जिसमें हमारे माननीय सांसदों की रक्षा करते हुए 8 जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे. कुछ दिन पहले ही मुंबई पर हमला हो चुका था इसलिए उम्मीद थी कि ज्यादा से ज्यादा नेतागण शहीदों को श्रद्धांजलि देने और एकजुटता दिखाने के लिए संसद भवन में आयोजित सभा में हिस्सा लेंगे. परंतु दोनों सदनों के कुल करीब 700 सदस्यों में से मात्र 10 ही वहां मौजूद थे.
पिछले साल अप्रैल में संसद में मंहगाई के मुद्दे पर बहस होनी थी. इससे पहले संसद कई दिनों तक इसलिए नहीं चल पाई थी क्योंकि विपक्ष बाकी सब काम छोड़कर संसद से मंहगाई जैसे एक सबसे जरूरी मुद्दे पर चर्चा की उम्मीद रखता था. अब ऐसे में ये अपेक्षा स्वाभाविक ही थी कि उस दिन पक्ष और विपक्ष पूरे फौज-फांटे के साथ पुरजोर तरीके से अपनी बात रखेंगे. किंतु लोकसभा चलते रहने के लिए जरूरी 45 सदस्य तक वहां नहीं थे. इससे पहले कृषि क्षेत्र की समस्याओं और किसानों की आत्महत्याओं पर हुई बहस के दौरान भी ऐसा ही हुआ था.
2004 में जब संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण होना शुरू हो रहा था तो तर्क दिया गया था कि ऐसा होने से सदस्यों का व्यवहार मर्यादित रहेगा और उनकी सदन में उपस्थिति भी बढ़ेगी. मगर ऐसा तो कुछ हुआ नहीं उल्टा हमारे प्रतिनिधियों ने चारों ओर लगे कैमरों का एक अलग ही इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. अब सांसदों की सदन के भीतर की क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं सदन की कार्यवाही की जरूरतों से संचालित न होकर कुछ दूसरे ही उद्देश्यों से संचालित होने लगीं. कई बार देखा भी गया कि इधर अध्यक्ष ने कैमरों को बंद करने का आदेश दिया नहीं कि सदन में घंटों से चल रहा गुल-गपाड़ा मिनटों में बिना किसी अध्यक्षीय हस्तक्षेप के समाप्त हो गया.
दोष हमारा है! हमने अपने नुमाइंदों को धिक्कारने और उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने की अपनी शक्ति का उपयोग करने की बजाय आज खुद को इतना बेबस, बेपरवाह और अंजान बना लिया है कि जो भी चाहता है, कभी इस तो कभी उस बात का झूठा हव्वा या सब्जबाग खड़ाकर हमारे साथ कैसे भी खेल खेल लेता है.
संजय दुबे