छापे, पूछताछ, हिरासत, गिरफ्तारी और जेल भाग-2

26 सितंबर 2001 को जब वो मुंबई पहुंचे तो एक आदेश उनका इंतजार कर रहा था. इसमें उन पर 149.35 करोड़ की अघोषित संपत्ति रखने का आरोप लगाया गया था जिसकी वजह से उन पर 89 करोड़ का टैक्स बकाया बनता था. शंकर और देविना ने तर्क दिया कि आरोप बेबुनियाद है और इस संदर्भ में उन्हें कोई नोटिस नहीं मिला है. आदेश में कहा गया था कि शहर से बाहर जाने से पहले उन्हें इसकी मंजूरी लेनी होगी. इस तरह से उन पर 25 सितंबर 2001 को बिना मंजूरी लिए चेन्नई जाने का आरोप भी लगाया गया था जबकि आदेश 26 सितंबर को जारी हुआ था.

17 दिसंबर 2001 को ईद की छुट्टी थी. प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी सुबह छह बजे शंकर के दिल्ली स्थित घर पहुंचे. शंकर को जगाकर उन्हें बताया गया कि उन्हें पूछताछ के लिए चलना होगा. अधिकारी उन्हें अपने लोकनायक भवन स्थित दफ्तर लेकर पहुंचे. शंकर के वकील राम जेठमलानी बाहर इंतजार करते रहे क्योंकि किसी वकील को पूछताछ के दौरान अंदर रहने की इजाजत नहीं थी. फिर शुरू हुआ विचित्र से सवालों का सिलसिला : ‘स्टॉक मार्केट क्या होता है?’, ‘ये कैसे काम करता है?’ वगैरह, वगैरह. पूछताछ दिन भर चलती रही. कानून कहता है कि गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना जरूरी है. उत्पीड़न को लंबा करने के लिए ये तरीका अपनाया जाता है कि व्यक्ति को गिरफ्तार न कर उसे हिरासत में लिया जाए और काफी बाद में गिरफ्तारी का वारंट जारी किया जाए. अधिकारियों ने रात को आठ बजे देविना को घर भेजने की कोशिश की जो बाहर इंतजार कर रही थीं. उनका तर्क था कि उनकी वजह से एक महिला अधिकारी को भी रुकना पड़ रहा है जिसके घर पर बो हैं. देविना घर न जाने की जिद पर अड़ी रहीं. उन्होंने देविना को बताया कि सूरज छिपने के बाद किसी को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता इसलिए वो घर जा सकती हैं. शंकर की गिरफ्तारी का वारंट देर रात 12:40 पर जारी किया गया. इसमें उन पर फेरा की धारा 19 के उल्लंघन का आरोप था. इस सेक्शन के तहत आदमी को शक के आधार पर ही बिना सबूत गिरफ्तार किया जा सकता है. अधिकारियों ने फिर शंकर को बिना अदालत में पेश किए दो दिन तक हिरासत में रखने का फैसला किया. यही वो वक्त था जब देविना फट पड़ीं.

इन मुश्किलों के बीच भी तिहाड़ में अन्य कैदियों से मिल रहे आत्मीय व्यवहार से शंकर अभिभूत थे. सब उन्हें सांत्वना देते कि ये स्थितियां हमेशा ऐसी ही नहीं रहने वालीं

‘मैं उन सब पर चिल्लाई. मैंने कहा, ऊपर से नीचे तक आप सब लोग यहां हैं और आपमें से किसी में भी ये कहने की हिम्मत नहीं है कि मैं गलत काम नहीं करूंगा. मैंने उनसे कहा, आप भगवान से डरने की बात करते हैं और फिर ऐसा करते हैं.’ अधिकारी शर्मिंदा दिखे और उन्होंने नजरें फेर लीं.

 इसके बाद शंकर उस रात दिल्ली के तुगलकाबाद रोड स्थित पुलिस लॉकअप भेज दिए गए. यह लॉकअप खुली जगह पर बना है. 17 दिसंबर 2001 की जिस रात शंकर को यहां भेजा गया था रिकॉर्ड बताते हैं उस रात दिल्ली का तापमान 10 डिग्री था. ठिठुरा देने वाले ऐसे मौसम में भी शंकर को ओढ़ने के लिए रजाई या चादर नहीं दी गई. हिरासत में लेने और कोर्ट में पेश करने के बीच शंकर को खाने की भी इजाजत नहीं मिली. पुलिस का तर्क था कि शंकर प्रवर्तन निदेशालय की हिरासत में हैं और बिना उसकी अनुमति के उन्हें खाना नहीं दिया जा सकता. निदेशालय का कोई अधिकारी उपलब्ध नहीं था. दोपहर 3 बजे शंकर को पटियाला कोर्ट में पेश किया गया..

कोर्ट मे प्रवर्तन निदेशालय के वकील ने कहा कि वे शंकर को मुंबई ले जाना चाहते हैं ताकि उनकी उपस्थिति में उनका घर खोला जा सके. इस बीच देविना भूमिगत हो गईं क्योंकि दोस्तों ने उन्हें चेताया था कि उन्हें भी हिरासत में लिया जा सकता है. शंकर की बहन रीता उनके लिए घर का खाना ले जातीं थीं. एक शाम जब रीता लोकनायक भवन पहुंचीं तो उन्हें बताया गया कि शंकर को मुंबई ले जाया जा चुका है. वहां शंकर के कपड़े बिखरे पड़े थे. रीता वहीं पर रो पड़ी. वो कहती हैं कि वो उनकी जिंदगी की सबसे बुरी रात थी.

11 बजे शंकर मुंबई पहुंचे और यहां से सीधे उन्हें आजाद मैदान स्थित पुलिस लॉकअप ले जाया गया. रीता भी फ्लाइट पकड़कर मुंबई आ चुकीं थीं. जब वो यहां खाना लेकर पहुंचीं तो उनसे कहा गया यहां घर के खाने की अनुमति नहीं दी जाएगी क्योंकि ये व्यवस्था सिर्फ दिल्ली के लिए थी..लॉकअप में बिछाने के लिए बिस्तर या चटाई कुछ भी नहीं था. यहां सोने के लिए शंकर को अखबार बिछाने पड़े. घर की तलाशी के बाद 31 दिसंबर को शंकर को वापस दिल्ली लाया गया. उसी शाम को रीता ने उनसे मिलने की कोशिश की. अधिकारियों ने रीता को तीन घण्टे इंतजार कराया और आखिर में उनसे कहा गया कि उस दिन मिलने की अनुमति नहीं दी जा सकती. रात 10.30 बजे शंकर को खुली जगह में बने हुए तुगलक रोड स्थित उसी लॉकअप में भेज दिया गया. उस रात तापमान 8 डिग्री था. देविना को जब ये पता चला तो उन्होंने अपने भाई को बुलाकर शंकर के लिए कुछ गर्म कपड़े ले जाने को कहा. अगली सुबह जब देविना शंकर से मिलनी गईं तो उस सुबह इतनी ठंड थी कि कोहरे की वजह से सिर्फ दो फीट दूरी तक ही देखा जा सकता था. शंकर की हिरासत के पहली बार देविना उनसे मिलने गई थीं. उस समय शंकर को बुखार था. उसके बाद शंकर को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया. चूंकि 14 दिन रिमांड की समाप्त हो गई थी इसलिए उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया गया.

तिहाड़ में शंकर को चार रातों के लिए आम बैरक में रखा गया. यह एक बड़ा हॉल था जिसमें एक साथ 50 लोग रह रहे थे. 300 कैदियों के लिए सिर्फ एक टॉयलेट की व्यवस्था थी. यहां पर सोने के लिए जगह खोजना भी एक बड़ा काम था. लेकिन इन मुश्किलों के बीच भी तिहाड़ में अन्य कैदियों से मिल रहे आत्मीय व्यवहार से शंकर अभिभूत थे. सब उन्हें सांत्वना देते कि ये स्थितियां हमेशा ऐसी ही नहीं रहने वालीं. जेल का पहला दिन शंकर के लिए अवसाद से भरा था.14 दिन तक पुलिस हिरासत के दौरान तो वे हौसला बनाए रहे. लेकिन जेल पहुंच जाना उनकी कल्पना से बाहर था. पर कुछ ही दिनों के बाद उन्होंने खुद पर काबू पाते हुए यहां के माहौल में रुचि लेना शुरू कर दिया. अब शंकर को दलालों, नशाखोरों, बलात्कारियों, हत्यारों और आतंकवादियों के साथ रहना था. कुछ ही दिनों में शंकर जेल के तौर-तरीके सीख गए. पैसे देकर उन्हें उप जेल अधीक्षक के बाथरूम में गर्म पानी से नहाने की सुविधा मिल जाती थी. यहां संबंधियों और वकीलों से मुलाकात का समय बढ़वाने के लिए निगरानी करने वाले सुरक्षाकर्मी को पैसे देने पड़ते थे. यदि कोई कानूनी कागजात सौंपे जाने हैं तो सुरक्षाकर्मी को और पैसे देने की जरूरत होती थी. इस समय तक देविना इस दुविधा में थी कि उन्हें शंकर से मिलने जाने के लिए जाना चाहिए कि नहीं. कई वकीलों ने उन्हें सलाह दी कि वे ऐसा न करें क्योंकि हो सकता है कि वे भी गिरफ्तार न कर ली जाएं.

पहले दिन देविना का भाई और रीता शंकर से मिलने गए थे. जब वे वापस लौटे तो उन्होंने देविना को बताया कि शंकर उनसे मिलना चाहते हैं. इस जेल में मीटिंग हॉल के भीतर मिलने वालों के बीच दो फीट की दूरी रहती है जिसके बीच में एक जाली होती है. ये जाली प्लास्टिक की शीट से ढकी रहती है. कैदी और उससे मिलने आए परिचित अपनी अपनी कुर्सियों पर रखे टेलीफोन से बात करते हैं. लेकिन अक्सर फोन खराब रहते हैं. देविना भी जब शंकर से मिलने गईं तो फोन खराब था. फिर उन्होंने देखा कि प्लास्टिक शीट बस उनकी कमर तक ही है और अगर वो घुटने के बल बैठ जाएं तो मेज के नीचे से बात हो सकती है. फोन खराब हो तो बाकी लोग भी ऐसा ही करते हैं. देविना ने भी यही किया. गिरफ्तारी के बाद शंकर से ये उनकी पहली मुलाकात थी. दोनों भावुक हो गए. शंकर ने देविना से कहा कि वो उन्हें किसी भी तरह वहां से बाहर निकालें. देविना को बताया गया कि ये मामला 60 दिन से सुनवाई कर रहे कोर्ट के अधिकारक्षेत्र में नहीं है और इसलिए वो जमानत नहीं दे सका. जमानत के लिए शंकर को मुंबई कोर्ट में पेश होना था. यहां शंकर के वकील ने ट्रांजिट बेल की दलील दी लेकिन एडीशनल सा¬लीसिटर जनरल ने इसके खिलाफ तर्क दिए. शंकर को जमानत नहीं मिला और उन्हें मुंबई की आर्थर रोड जेल भेज दिया गया.

यहां पर बात करने का सिर्फ एक तरीका था कि आप चिल्लाकर बात करें. यहां मुलाकातियों से मिलने के लिए सिर्फ पांच मिनट दिए जाते थे

पेशी के लिए कोर्ट में पेश होने के अनुभवों के बारे में शंकर बताते हैं, ‘जिस बस में    कैदियों को ले जाया जाता था उसमें वे ठूंस-ठूंसकर भरे होते थे. कोर्ट के लॉकअप में पानी तक नहीं होता था. और टा¬यलेट ऐसे थे जिनको देखकर ही कोई उल्टी कर दे. सारे कैदी तब तक बैठे रहते थे जब तक सुनवाई के लिए उनका नाम न पुकारा जाए. शाम 7:30 बजे कै दियों को वापस जेल लाया जाता था.’ शंकर बताते हैं कि पुलिस बसों से कोर्ट आना-जाना भी खतरे से खाली नहीं था क्योंकि यदि कैदियों में दंगा हो जाए, जो कि आम बात है, तो भी गाड़ी जेल पहुंचने पर ही रुकती है. बाद में शंकर ने कोर्ट आने का सुरक्षित जरिया ढूंढ़ लिया. उन्होंने खुद को अति सुरक्षित क्षेत्र में स्थानांतरित करवा लिया.

इसके बाद उन्हें उन लोगों के साथ कोर्ट ले जाया जाता था जिनके ऊपर आतंकवाद के  आरोप है. जिस बस में इन्हें ले  जाया जाता था वो कैदियों से उतनी भरी नहीं होती थी. यहां शंकर को वो सब लोग देखने को मिले जिनके बारे में उन्होंने अब तक सिर्फ अखबारों में ही पढ़ा था.

मुंबई की आर्थर रोड जेल को याद कर शंकर बताते हैं कि इसकी तुलना में तिहाड़ किसी बढ़िया होटल जैसी है. यहां शंकर को पांच दूसरे कैदियों के साथ एक छोटी सी सेल में रखा गया था. खाना बेहद घटिया था और बाहर का खाना खाने की अनुमति नहीं थी, जबकि तिहाड़ में कैदी के रिश्तेदार उसे खाने के साथ-साथ कपड़े भी दे सकते थे. यहां पर कैदी से मुलाकात वाले कमरे में भी प्लास्टिक शीट वाली जाली थी मगर फोन नहीं था. यहां पर बात करने का सिर्फ एक तरीका था कि आप चिल्लाकर बात करें. यहां मुलाकातियों से मिलने के लिए सिर्फ पांच मिनट दिए जाते थे वो भी रिश्वत देने के बाद. हिरासत के 68 वें दिन शंकर को बांबे सेशन कोर्ट में पेश किया गया. यहां भी अभियोग पक्ष ने हिरासत अवधि बढ़वाने का खेल जारी रखा..

गुलाम वाहनवती सरकार द्वारा इस दंपति के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान के गवाह रहे हैं. वाहनवती 2001 में बजट के बाद बाजार में आई अचानक  गिरावट के समय महाराष्ट्र के महाअधिवक्ता थे..फरवरी-मार्च 2004 में जब एनडीए की सरकार सत्ता में थी तब केंदीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने शंकर-देविना के खिलाफ फिर से केस शुरू करने की कोशिश की. हालांकि पहले उनके खिलाफ पुराना मामला खत्म कर दिया गया था. वाहनवती हमें इस बारे में बताते हैं कि किस तरह मामला उन्हें सौंपने के लिए सेबी ने उसे संपर्क किया था.

वाहनवती : उन्होंने मुझसे कहा था. लेकिन मैं इस बारे में बात करना नहीं चाहूंगा..मैं ये सब ऑफ रिकॉर्ड कहूंगा.

मधु : ऑफ द रिकॉर्ड कुछ न कहें. वो बात बताएं जिसे हम छाप सकें.

वाहनवती : ठीक है. बीच में कुछ समय तक तो मैं सेबी की तरफ से लड़ ही नहीं रहा था.

मधु : क्या आपने ऐसा करने से मना कर दिया था?

वाहनवती : जब ये मामला आया तो मैंने सोचा कि ये वही पुराना मामला होगा. पहले मौके पर तो मैं मौजूद रहा क्योंकि मैं समझना चाहता था कि आखिर सेबी इस कार्रवाई को कैसे न्यायोचित बता रही है. इस बीच मैंने कोर्ट में कहा कि नोटिसों पर कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी. उसके बाद मैंने अखबारों में इस मामले के बारे में पढ़ा. मेरी अंतरात्मा ने मुझे रोक लिया. मैंने बस ये कहा कि मैं इस केस के लिए उपलब्ध नहीं हो सकूंगा.

मधु : कभी भी आपको लगा कि उनके साथ अन्याय हो रहा था और पेश किए जा रहे तथ्य गलत थे.

वाहनवती : नहीं, न्याय के सिद्धांत के हिसाब से कहूं तो वो जो भी कर रहे थे वो सब गलत था.

मधु : क्या किसी भी वक्त आपको ऐसा लगा कि ये कहना बेहतर होता कि वे जो कर रहे हैं गलत है?

वाहनवती : नहीं, बतौर वकील मैं ऐसा नहीं कर सकता था. मेरे पास सिर्फ ये विकल्प था कि चुपचाप मामले से हट जाऊं और मैंने यही किया. मैंने बहाना बनाया और कहा कि मैं केस के लिए उपलब्ध नहीं हो पाऊंगा. ऐसा कहकर मैंने केस के पेपर वापस कर दिए. आपको समझना चाहिए कि मैं उस समय महाराष्ट्र सरकार का महाधिवक्ता था. ये एक जिम्मेदारी का पद है और मैं ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहता था जो राजनीतिक मुद्दा बन जाए. मैं गैरराजनैतिक व्यक्ति हूं. मैंने वही किया जो मुझे लगा कि सही है. (भर्राए गले से) में मानता हूं कि शंकर और देविना के साथ बहुत बुरा हुआ. कुछ लोगों के पीछे सारी सरकार पड़ जाती है. मुझे वो एक बार रास्ते में मिले थे उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं ठीक हूं. मंने उनसे कहा, ‘नहीं, मैंने सारे पेपर लौटा दिए. मैं बस यही कर सकता था.’ (अपनी भावनाओं और आंसुओं पर काबू पाने की कोशिश करते हैं).

मधु : आपने भीतर से देखा कि कैसे फर्स्ट ग्लोबल को बर्बाद करने के  लिए काम किया जा रहा था.

वाहनवती : हां. मैं देख रहा था. कृपया मुझे संयत होने के लिए कुछ वक्त दीजिए (चेहरा घुमा लेते हैं और कुछ मिनट तक भावनाओं पर काबू पाने की कोशिश करते हैं) मैं इसे सत्ता का सबसे बड़ा दुरुपयोग मानता हूं. आप बहुत असहाय महसूस करते हैं. आप कुछ नहीं कर सकते.

मधु : उस पद पर बैठे आप जैसे किसी भी व्यक्ति के लिए ये बेहद हतोत्साहित करने वाली घटना रही होगी.

वाहनवती : मैं इसके लिए सहमति नहीं दे सकता था. मामले में एक बार पेश हो जाने के बाद मेरे पास कहने के लिए सिर्फ यही सम्मानजनक शब्द थे कि मैं फिर से पेश नहीं हो सकूंगा. इसलिए मैं उनसे मिला और ये बात कह दी.

मधु : तो ऐसी चीजें रोकने के लिए व्यवस्था में क्या सुधार किए जाने की जरूरत है?

वाहनवती : जब व्यवस्था चरमराने लगती है तो जिन लोगों के हाथ में कमान होती है वो ऐसा होने देते हैं. यही समस्या है. हमारी व्यवस्था में कई खामियां हैं.

मधु : जहां सबूत नहीं हैं वहीं ऐसे अदृश्य आदेश दिए जाते हैं.

वाहनवती : मुझे ऐसे कई मामलों के बारे में पता है, जहां आदेश तो होता है लेकिन आपको पता नहीं होता कि ये आदेश किसने दिया.

मधु : क्या आपको कोई और केस याद है जिसमें किसी को शंकर और देविना जितना उत्पीड़न ङोलना पड़ा हो

वाहनवती : मैं उम्मीद करता हूं कि नहीं..

मधु : अब जबकि आप सॉलिसिटर जनरल हैं तो तहलका आयोग में आपका काम क्या होगा? इससे पहले के अटॉर्नी जनरल और और सॉलीसिटर जनरल ने तहलका आयोग में कुछ ज्यादा ही रुचि ली थी.

वाहनवती : मैं किसी भी तरह से तहलका आयोग में शामिल नहीं होऊंगा.

मधु : आप वहां नहीं जाएंगे?

वाहनवती : मैं वहां नहीं जाऊंगा जब तक कि मुझे ऐसा करने के निर्देश न दिए जाएं. मैं ऐसी किसी भी चीज को सही ठहराने के लिए नहीं जाउंगा. मैं राजनैतिक व्यक्ति नहीं हूं.

मधु : पर क्या आप मानते हैं कि ये सही है? क्या संविधान के मुताबिक सॉलीसिटर जनरल को इस तरह की सुनवाइयों में शामिल होना चाहिए?

वाहनवती : सॉलीसिटर जनरल का पद संवधानिक पद नहीं है. पद पर रहने के दौरान हर आदमी अपने हिसाब से काम करता है. जसे कि मैं काम करने के अपने मानक खुद बनाना पसंद करूंगा. उनकी सीमाएं क्या थीं ये जानने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं. मैं ये भी नहीं जानता कि उन्होंने उस समय क्या खेल खेला और मैं जानना भी नहीं चाहता.

मधु : आपके पूर्ववर्तियों ने तो इसमें बेहद सक्रिय भूमिका निभाई थी.

वाहनवती : हां, पर मेरी ये जानने में कोई दिलचस्पी नहीं है. मामला चाहे गुजरात का हो या मेरे पाए आए सभी मामलों का, मैं अपने हिसाब से चल रहा हूं. मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पहले क्या हुआ था. मेरे हिसाब से मेरा ये कहना ठीक नहीं होगा कि ये गलत था या वो गलत था क्योंकि इसका मतलब होगा कि मैं अपने आप को प्रमोट कर रहा हूं. लेकिन तहलका को मैं कभी नहीं छूने वाला. मैं उस आयोग में नहीं जाऊंगा.