विधान सबके, अर्थ अपने-अपने

चुनाव आयोग से साबका रखने वाले संविधान के अनुच्छेद 324 के कुछ मुख्य बिंदु कहते हैं:

> चुनाव आयोग में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और समय-समय पर राष्ट्रपति द्वारा संसद की इच्छा के अनुरूप नियुक्त किए गए चुनाव आयुक्त होंगे.

> जब चुनाव आयोग बहुसदस्यीय होगा तो मुख्य चुनाव आयुक्त उसके अध्यक्ष की तरह कार्य करेगा.

> मुख्य चुनाव आयुक्त को उसके पद से केवल सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने के लिए जरूरी वजहों की बिना पर उसी तरीके से हटाया जा सकता है और उसके काम की परिस्थितियों में नियुक्ति के बाद कोई भी नकारात्मक बदलाव नहीं लाया जा सकता.

> संविधान ये भी कहता है कि किसी भी चुनाव आयुक्त को मुख्य चुनाव आयुक्त की सिफारिश के बिना हटाया नहीं जा सकता.

मुख्य चुनाव आयोग द्वारा स्वयं भी ऐसी सिफारिश करना तार्किक जान पड़ता है. मगर ऐसी निर्बाध शक्तियां किसी के भी पास हों तो उसके निरंकुश होने का खतरा भी सदैव मंडराता रहेगा

इस संवैधानिक व्यवस्था से कुछ बातें नये-नकोर शीशे की तरह साफ हैं. पहली ये कि भले ही आज चुनाव आयोग बहुसदस्यीय हो और उसका कोई भी फैसला सभी की सहमति या बहुमत का होता हो पर संविधान मुख्य चुनाव आयुक्त को दूसरे आयुक्तों से अलग एक विशेष दर्जा देता है.

ध्यान देने वाली दूसरी बात ये है कि सरकार किसी चुनाव आयुक्त को अपने दम पर बिना मुख्य चुनाव आयुक्त की संस्तुति के हटाने की योग्यता तो नहीं रखती पर वो संसद के माध्यम से सभी चुनाव आयुक्तों का पद ही समाप्त करके उन्हें एक साथ हटाने की क्षमता जरूर रखती है.

संविधान इस मामले में कुछ नहीं कहता कि मुख्य चुनाव आयुक्त किसी सहयोगी चुनाव आयुक्त को हटाने की सिफारिश अपने-आप ही कर सकता है या सरकार द्वारा राय मांगे जाने पर ही उसे ऐसा करना होगा. चुप्पी इस बात पर भी है कि क्या सरकार मुख्य आयुक्त की अनुशंसा मानने के लिए बाध्य है. पर जिस तरह की गोपनीयता के साथ आयोग को देश में चुनाव जसे महत्वपूर्ण काम को अंजाम देना होता है उस पर सोचें तो सहज बुद्धि कहती है कि कोई भी चुनाव आयुक्त अपने कर्तव्यों का निर्वहन ठीक कर रहा है या नहीं इसका सही ज्ञान सरकार की बजाय मुख्य चुनाव आयुक्त को ज्यादा होगा. यानी कि मुख्य चुनाव आयोग द्वारा स्वयं भी ऐसी सिफारिश करना तार्किक जान पड़ता है. मगर ऐसी निर्बाध शक्तियां किसी के भी पास हों तो उसके निरंकुश होने का खतरा भी सदैव मंडराता रहेगा. तो इससे बचने के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त की सिफारिश के सभी बिंदुओं पर ठीक से विचार कर सरकार द्वारा किसी नतीजे पर पंहुचा जाना भी बेहद जरूरी है

यानी कि एन. गोपालस्वामी अगर नवीन चावला को हटाने की सिफारिश करते हैं तो ये उनका अधिकार होना चाहिए और उन पर सरकार के कानून मंत्रालय जैसे किसी विभाग के मुखिया को हद दर्जे तक जाकर कीचड़ उलीचने की इजाजत नहीं होनी चाहिए. मगर सरकार को भी ये अधिकार होना चाहिए कि अगर सिफारिश तर्क की कसौटी पर खरी नहीं उतरती है तो वो उसे बिना कोई बड़ा झमेला खड़ा किए नकार सके.

परंतु राजनीतिक नफे-नुकसान की सर्वोच्चता वाले इस दौर में सहज बुद्धि और विवेक की बातें नक्कारखाने की तूती से भी असहाय हैं.

संजय दुबे