मंगलौर में महिलाओं और पुरुषों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा जाता हम सभी ने टीवी पर देखा. एकाध बार अकेले में बैठकर सोचा है कि कैसे आदमी इतना पागल हो गया होगा कि बंटवारे के समय 10 लाख अपने जैसे बल्कि अपनों को ही उसने खुद के पागलपन की भेंट चढ़ा दिया. कैसे बाबू बजरंगी गुजरात में वो कर सका होगा जिसे करने का दंभ वो तहलका के कैमरों पर कर रहा था. कैसे अंग्रेजों ने आजादी से पहले जलियांवाला बाग जैसी करतूतों को अंजाम दिया होगा.
जवाब सामने था और स्क्रीन पर पिटतीं, गिरतीं, चिल्लाती महिलाओं की तस्वीरों में बार–बार देखा-सुना जा सकता था. उस पर तुर्रा ये कि ये सब कुछ भारतीय संस्कृति की रक्षा और उन भगवान राम के नाम पर किया जा रहा था जिन्हें हमेशा अपनी मर्यादा में रहने वाला पुरुषों का पुरुष माना गया है.
लोकतंत्र में अपनी निजी परेशानियों-शिकायतों तक के निवारण का एक स्थापित संवैधानिक तरीका होता है. और अगर शिकायतें कथित रूप से एक बहुत बड़े समुदाय से जुड़ी हों तब तो इनके निदान के माकूल मंचों की कमी का सवाल ही पैदा नहीं हो सकता. मगर मंचों की बात तो तब उठती है जब समस्या हो, असल हो, और उसे हल करने की मंशा हो. यहां तो इनमें से एक भी चीज नहीं नजर आती.
पता नहीं संस्कृति के स्वघोषित पहरुओं की मानसिक विक्षिप्तता की शिकार उन लड़कियों का इस समय क्या हाल हो रहा होगा मगर जिस तरह की असहिष्णु घटनाएं लगातार देश के अलग-अलग हिस्सों में देखने को मिल रही हैं उससे ये बिल्कुल साफ है कि देश का हाल कतई ठीक नहीं. दरअसल ये केवल संस्कृति को बचाने के नाम पर लोगों की स्वतंत्रता और निजता के साथ खिलवाड़ या कानून को हाथ में लेने भर का मामला नहीं है. अगर मंगलौर की मारामारी, महाराष्ट्र में एमएनएस और शिवसेना की खुलेआम गुंडागर्दी, प. बंगाल में तस्लीमा नसरीन के खिलाफ चले तथाकथित आंदोलन, गुजरात में बाबू बजरंगी जैसे लोगों की करनी और उड़ीसा में जले अनगिनत चचरें की खबरों पर नजर डालें तो साफ समझ आ सकता है कि ये सब या तो सत्तासीन राजनीति द्वारा पोषित किए गए या फिर इसलिए होने दिए गए क्योंकि उनको रोकने से होने वाला राजनीतिक नुकसान उनके होते रहने से होने वाले सामाजिक, आर्थिक और दूसरे कई तरह के नुकसानों से कहीं ज्यादा था.
दरअसल जब राजनीति कुछ बहुत ही छिछली-छिछोरी चीजों पर स्थापित हो जाती है तो उसका सबसे ज्यादा फायदा छिछली-छिछोरी सोच वाले अवसरवादी लोगों को ही मिलता है – मसलन सांप्रदायिक राजनीति का फायदा धर्माधों और धर्म के नाम पर हर तरह का फायदा उठाने में सक्षम दूसरे लोगों और जातिवादी राजनीति का फायदा समाज को बांटने में सिद्धहस्त लोगों को ही तो मिल सकता है.
शायर ने ठीक ही लिखा है –
सियासत को लहू पीने की लत है
वर्ना सब खैरियत है.
संजय दुबे