हर शै बदलती है

यों इस समय हवा में एक नाउम्मीदी दुनिया की आर्थिक मंदी में हमारी लड़खड़ाहट और मुंबई हादसे में आतंकवाद के खूंखारपन से जूझने में हमारी व्यवस्था की नाकामी के कारण घुली हुई है. पर स्थितियों के बदलने या बेहतर होने के प्रति मन के अविश्वास का कारण कुछ अधिक गहरा है. आज हर आदर्श, हर विश्वास और हर प्रतिबद्घता शक के दायरे में है कि कहीं उसके पीछे मानव-विरोधी नफरत तो नहीं. क्या हम एक ऐसे समय में प्रवेश करने जा रहे हैं जहाँ हमें काँटेदार बाड़ों के अंदर से दुनिया देखनी होगी? क्या हम इस घिरी हुई दुनिया के भीतर सुरक्षा-बोध के साथ जी सकेंगे या अपने को लगातार सिकुड़ता हुआ और भयभीत पाएंगे? यह सवाल मेरे मन में सिर्फ दुनिया में बढ़ते आतंकवाद या सांप्रदायिक उन्माद जैसी वृहत्तर समस्याओं को लेकर ही नहीं है, बल्कि एक लेखक और एक स्त्री या एक स्त्री-लेखिका होने की अपनी भूमिका को लेकर भी है.

मुझे लगता है कि आज की दुनिया में हाशिए पर जीते तमाम लोगों, स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों को सुरक्षा देने के नाम पर या उनकी अपने दुख की विशेषज्ञता के नाम पर एक कांटेदार बाड़ में ढकेला जा रहा है. उन पर अपनी पहचान के लेबल इस तरह चस्पां किए जा रहे हैं कि वे अपने ‘आइडेंटिटी कार्ड’ के बिना नामहीन, अस्तित्वहीन हो जाएं. हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ बातें बहुलतावाद और व्यक्ति की बहु-अस्मिताओं या ‘मल्टीपल आइडेंटिटी’ की हैं, पर हकीकत में हर व्यक्ति को एक बिल्ला लगाकर एक कटघरा दिया जा रहा है. जहाँ तक स्त्रियों की अस्मिता या उनके सशक्तीकरण का सवाल है तो मुझे लगता है कि कुछ नई डिजाइन की आकर्षक बेड़ियाँ चलन में हैं, जिन्हें स्त्री शौक से पहन ले और उसे पता भी न चले कि ये उसके नए बंधन हैं. या वह इस भ्रम में जीती रहे कि वह किसी काँटेदार बाड़ से नहीं घिरी है.

दिल्ली में हमारे मित्र, जो एक मुख्य टी.वी.न्यूज चैनल में काम करते हैं, हाल के विधान सभा चुनावों की रिपोर्टिग के बारे में बता रहे थे. आम तौर पर चौबीस घंटों में सोलह घंटे समाचार वाचिकाओं के चेहरे उनके चैनल पर नजर आते हैं. किन्तु जब चुनावों के बारे में समाचार आ रहे थे, तो वहाँ पुरुषों का वर्चस्व या कहें कि एकाधिकार नजर आ रहा था. यदि इसका अर्थ यह निकलता है चुनाव जैसे गंभीर और निर्णायक विषयों पर स्त्रियों में बोलने की काबिलियत नहीं है तो शायद हम मीडिया में स्त्रियों के सशक्तीकरण की बात को सच मानकर अपने को मुगालते में रख रहे हैं. विडम्बना यह है कि ‘गृहशोभा’ से ‘मंच-शोभा’ के इस प्रोमोशन में स्त्री की अस्मिता का जो अवमूल्यन है, वह आसानी से नजर नहीं आता.

नए वर्ष से जुड़ी आशाओं और आशंकाओं के बारे में जब मुझे स्त्री-समस्याओं के संदर्भ में लिखने को कहा जाता है, तो मुझे अपनी बाड़ के काँटे चुभने लगते हैं. इसका आशय यह कतई नहीं है कि मुझे लगता है कि इक्कीसवीं सदी की स्त्री ने सारी समस्याओं का हल पा लिया है या जो स्त्रियाँ इस विषय पर लिख रही हैं, उनका लेखन किसी तरह से कमतर लेखन है. पर मुझे हर बार लगता है कि मुझे बताया जा रहा है कि तुम्हारी बाड़ के बाहर की दुनिया पर लिखने की कूवत तुम्हारी नहीं है या उससे बाहर उड़ने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं है.

हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ स्त्री की सजावटी सामान के तौर पर कीमत किसी भी और समय से ज्यादा है. जिस तरह बॉलीवुड की किसी फिल्म की कल्पना आप किसी परी चेहरे के बिना नहीं कर सकते, उसी तरह फिलहाल हमारी दुनिया की आधुनिकता के विमर्श में स्त्री का एक खास सजावटी मूल्य है. किसी लोकतंत्र की पार्लियामेंट या सीनेट में महिलाओं की संख्या अगर नहीं के बराबर है, तो संभावना यही है कि उसे एक पिछड़ा हुआ समाज या देश मान लिया जाएगा. आज स्त्री की स्वतंत्रता या उसकी तथाकथित स्वतंत्रता आधुनिक होने का प्रमाण-पत्र बन चुकी है. दूसरे शब्दों में कहें, तो ‘मेन्स ओनली’ या ‘सिर्फ पुरुषों के लिए’ क्लब अब फैशन में नहीं हैं.

स्त्रियों का एक खास उपयोग टी.वी.के तरह-तरह के रियेलिटी शो और क्रिकेट में मन्दिरा बेदी तक नजर आ रहा है. यहाँ स्त्री मूर्ख नहीं है, अपने विषय की उसे जानकारी है, वह अपनी बात को कहने का तरीका जानती है, लेकिन उसकी एक तयशुदा जगह या स्तर है, जिससे ऊपर उठने की कोई अपेक्षा किसी को नहीं है. विडम्बना यह है कि ‘गृहशोभा’ से ‘मंच-शोभा’ के इस प्रोमोशन में स्त्री की अस्मिता का जो अवमूल्यन है, वह आसानी से नजर नहीं आता.

फिलहाल हमारा देश बहुत चाव से ‘बालिका वधू’ नाम का सीरियल देख रहा है, जो कि अनिवार्यत: खाए-पीए-अघाए उच्च वर्ग की कहानी होते हुए भी एक गरीब लड़की के बिक्री-खरीद का सामान होने की भी कथा है. कथानक दिलचस्प है, अभिनय बढ़िया है और ज्यादातर देखनेवाले आश्वस्त हैं कि उनकी लड़कियों को अपना बचपन इस तरह खोना नहीं पड़ेगा. पता नहीं कि जिन लड़कियों को बालिका-वधू बनना पड़ सकता है, उनमें से कितने माँ-बाप इस सीरियल को देखकर इससे विरत होंगे.

बात शायद इतनी ही है कि औरत का शोषण मनोरंजन के विराट बाजार में एक बेहद बिकाऊ तत्व है. उतना ही बिकाऊ, जितनी कैटरीना कैफ की सुन्दरता, जिसकी तस्वीर पिछले दिनों कोलकाता के अखबार ‘द स्टेट्समैन’ के पहले पन्ने को पूरी तरह घेरे हुए किसी गहने की कम्पनी का विज्ञापन करती नजर आई. मानो यही देश की सबसे बड़ी खबर थी. मुंबई के आतंकी हमले का प्रतिवाद करती औरतों की लिपस्टिक और पाउडर ही कुछ लोगों को नजर आया; दूसरी ओर विडम्बना यह कि मीडिया ने इस हादसे पर मुंबइकरों की राय जमा करने में ‘पेज थ्री’ के लोगों को सबसे ज्यादा जगह दी.

मनोरंजन, समाचार और विज्ञापन की मिली-जुली दुनिया में गाँव से लेकर महानगर की हर तबके की औरत की प्रतिभा, उसकी सुंदरता, उसका क्रोध और यहाँ तक कि उसकी आजादी और गुलामी का भी एक मूल्य है जैसे बाजार में किसी भी सामान का होता है. लेकिन उसकी अपनी अस्मिता या मनुष्य के रूप में उसकी उपस्थिति का यहाँ जो क्षय या अवमूल्यन है, वह इतना महीन और इतना मनोरंजक है कि आम तौर पर खुद उसे किसी तरह की शिकायत नहीं होती. अक्सर आप उसके चेहरे पर एक संतोष और एक गर्व का भी भाव देख सकते हैं.

भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश में नारी की स्थिति को आँके, तो सत्ता के सबसे ऊँचे गलियारों में औरतें हैं. भले बेनजीर भुट्टो और इन्दिरा गाँधी- सोनिया गाँधी और शेख हसीना को वंशानुगत लाभ के चलते सत्ता मिली, लेकिन  हमारे यहाँ नीचे से ऊपर उठी पिछड़ों की रहनुमा हीरों से जगमगाती मायावती भी हैं. यह कहना मुश्किल है कि इनमें से किस महिला को महिला होने का कितना लाभ मिला या उसे महिला होने की क्या कीमत चुकानी पड़ी है. अक्सर हमारे यहाँ आधुनिकता एक बेहद उलझ हुआ मामला नजर आता है, जिसमें वर्ग, लिंग, जाति और संप्रदाय के तत्व गड्डमड्ड रहते हैं. कोडोंलिजा राइस या हिलेरी क्लिंटन के साथ इस तरह की बातें भले न काम करती हों, पर अमेरिका में ही सारा पालिन का स्त्रीत्व उनके उत्थान-पतन में निर्णायक रहा है.

भारत में आधुनिक युग के अंदर और उसके समानांतर मध्ययुग चलता आया है. आनेवाले समय में स्त्री के स्थान को लेकर आशावादी होना मुश्किल है क्योंकि विश्वव्यापी मंदी के दौर में उपभोक्तावादी वृत्ति हमारे यहाँ कन्या-भ्रूण की हत्या से लेकर दहेज की हत्याओं का सिलसिला बढ़ाने ही वाली है. मनोरंजन की मंडी में स्वस्थ, सुंदर और वाक्पटु औरत का इस्तेमाल ‘टी आर पी’ या मुनाफा बढ़ाने की सामग्री के तौर पर किया जाता रहेगा. साहित्य-राजनीति और दूसरे क्षेत्रों में स्त्रीत्व के बिल्ले के साथ उसकी जगह अपनी बाड़ में तय की जाती रहेगी.                                                                                                                                        

                                                                                                                                             अलका सरावगी