'सिर्फ उदारीकरण हल नहीं है'

नए साल में भारत के सामने मुख्य रूप से कौन-कौन सी चुनौतियां हैं?

चुनौतियां कईं हैं. कुछ परंपरागत हैं और कुछ नईं. परंपरागत चुनौतियों में से एक ये भी है कि हमारे लोकतंत्र की कार्यप्रणाली और मजबूत बने. देश में जल्द ही चुनाव होने को हैं, इनमें आम जनता की व्यापक भागीदारी बेहद जरूरी है. यह भी महत्वपूर्ण है कि धर्मनिरपेक्षता, सुरक्षा, आर्थिक विकास और गरीबी हटाने, समता तथा निरक्षरता जैसे मुद्दों पर ध्यान दिया जाए. चुनाव इस बात का सही मौका होगा कि जातिगत समीकरणों के बजाय इन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जाए.

एक और पुरानी चुनौती है लोगों को अभावों से छुटकारा दिलाना. देश में करोड़ों लोग भुखमरी, कुपोषण, स्कूली शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं. राजनीतिक दलों को फौरन इस तरफ ध्यान देना चाहिए. पिछले साल अगस्त में संसद में दिए अपने भाषण के दौरान मैंने जिक्र किया था कि कैसे कभी-कभी मैं इस बात से बेहद निराश होता हूं कि सरकार पर उन मुद्दों को लेकर ज्यादा दबाव नजर आता है जिनका सरोकार आबादी के एक छोटे से हिस्से से होता है मसलन भारत-अमेरिका परमाणु समझता या फिर पेट्रोल-डीजल की कीमतें. दूसरी तरफ तरह-तरह के अभावों से जूझ रहे आबादी के एक बड़े हिस्से की अक्सर उपेक्षा देखने को मिलती है.

वैश्विक आर्थिक मंदी भी एक बड़ी चुनौती है जो भारत के लिए मुश्किलें पैदा करेगी, हालांकि इस साल भारत में इसका इतना बुरा असर देखने को नहीं मिला लेकिन साल 2009 में स्थितियां बदतर हो सकतीं हैं. मुझे आशंका है कि विकास दर, जो कि पहले ही नौ से घटकर सात फीसदी के स्तर पर आ गई है, आगे गिरकर पांच या छह फीसदी तक पहुंच सकती है. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस आंकड़े को खराब नहीं कहा जा सकता मगर अहम बात ये है इस मंदी की मार पहले से ही साधनहीन वर्ग पर ज्यादा पड़ेगी.

जैसा कि आपने कहा था कि बाजार पर अतिनिर्भरता का इस आर्थिक मंदी में खासा योगदान है, तो क्या अब मुक्त बाजार की अवधारणा पर दोबारा विचार करने की जरूरत है?

भारत के संदर्भ में मामला कुछ और जटिल है. बाजार पर अतिनिर्भरता वाली बात अमेरिका के बारे में कही गई थी. वहां पर राज्य की निगरानीवाली भूमिका बहुत हद तक खत्म हो चुकी थी. अमेरिका में सब-प्राइम ऋण जैसी वित्तीय गतिविधियां संचालित की जा रही थीं. इन पर किसी तरह का कोई नियम भी लागू नहीं था. इस तरह से ये जोखिम भरे ऋण जल्दबाजी में बेच दिए गए. अब ऐसे में आप पता नहीं लगा सकते कि किसने, किसके साथ कितना गलत किया.

जहां तक भारत का सवाल है तो यहां बाजार पर निर्भरता जरूरत से ज्यादा नहीं बल्कि कम ही थी. यहां जो सबसे खतरनाक बात हुई है वो है स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षातंत्र का जल्दबाजी में किया गया निजीकरण. राज्य द्वारा दी जा रही निम्नस्तरीय प्राथमिक शिक्षा और खराब स्वास्थ्य सेवाओं ने स्थितियों को और जटिल बना दिया है. इसका मतलब है कि धनी लोग ही निजी शिक्षा संस्थानों और निजी अस्पतालों का उपयोग कर सकते हैं और सरकार पर इन मुद्दों को लेकर कोई दबाव नहीं है. स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में स्थिति इसलिए ज्यादा खराब है कि जो लोग इस व्यवसाय में हैं उन्हें मरीजों की फिक्र ही नहीं होती, इस हिसाब से निजी क्षेत्र में कोई बुराई नहीं है पर ये समस्या का हिस्सा जरूर है. लेकिन इससे बड़ी समस्या सार्वजनिक क्षेत्र की अक्षमता है.

यदि आप यूरोप, अमेरिका, कनाडा, जापान, दक्षिण कोरिया की बात करें तो आप देखेंगे कि इन सारे देशों में पूर्ण साक्षरता, सरकार संचालित प्राथमिक शिक्षा तंत्र के माध्यम से ही आ पाई है. और इन सभी देशों में अमेरिका के अलावा बाकी देशों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा सरकारी तंत्र के अंतर्गत ही उपलब्ध कराई जाती है.

ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी नीतियों का झुकाव कॉर्पोरेट भारत के पक्ष में है, ऐसे में क्या आपको लगता है कि हमारे राजनेता इस दिशा में कुछ काम करेंगे?

ये बात सही है कि कॉर्पोरेट भारत और आम जनता के हितों के बीच संतुलन नहीं है और पलड़ा कॉर्पोरेट भारत के पक्ष में झुका हुआ है. लेकिन चुनाव और मीडिया की आलोचना आम जनता को ये मौका देते हैं कि वे इन मुद्दों पर अपना मत व्यक्त कर सकें. हालांकि हर पांच साल की बजाय इन मुद्दों को लगातार उठाया जाना जरूरी है. हमें लगातार निम्नस्तर की बुनियादी शिक्षा और घटिया स्वास्थ्य सेवाओं पर सवाल उठाना पड़ेगा ताकि राजनेताओं को ये समझ आ सके कि अभी बहुत से क्षेत्र बचे हुए हैं जिनमें उन्हें काम करके दिखाना है.

आपने कहा था कि शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी निवारण के लिए और वित्त मुहैया कराना चाहिए. हालांकि सरकार के सामाजिक सुधार के कार्यक्रमों (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, किसान कर्जमाफी योजना) का कोई खास नतीजा नहीं मिल पा रहा है. आपके हिसाब से ठोस नतीजों को लिए क्या किया जाना जरूरी है?

ऐसा नहीं है कि इन कार्यक्रमों से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. यदि आप राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की बात करें तो ये सही है कि इसमें कई समस्याएं सामने आ रही हैं. लेकिन कुछ राज्यों में ये सफलतापूर्वक भी लागू की गई है. इसके अलावा एकीकृ त बाल विकास योजना भी कुछ राज्यों जैसे तमिलनाडु में सफलतापूर्वक संचालित की जा रही है लेकिन कुछ जगह इसे सफलता नहीं मिली है. सो हमें इन कार्यक्रमों की असफलता के कारणों को खोजना होगा.

वित्त की कमी निश्चित रूप से एक समस्या है और इसे दूर करना बहुत जरूरी है. साथ में इन कार्यक्रमों के प्रशासन और वितरण प्रणाली में भी सुधार की आवश्यकता है. तमिलनाडु और केरल ने सबसे अच्छी वितरण प्रणाली का विकास किया है जो कि और कहीं संभव नही हो पाया है. पं बंगाल में यह तंत्र कहीं बीच की स्थिति में है.

साल 1998 में जब मुझे नोबेल पुरस्कार मिला था उस दौरान मैंने ‘प्रतिची’ नाम की संस्था बनाई थी, यह प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रही है. इसी के साथ काम करते हुए मुझे लगा कि विभिन्न यूनियनों के सहयोग से सकारात्मक बदलाव आ सकता है. हम प्राइमरी टीचर असोसिएशन के साथ काम कर रहे हैं ये प्राथमिक विद्यालयों में सबसे बड़ा संगठन है. इस क्षेत्र में की गई अपनी रिसर्च के नतीजों के हिसाब से मेरे गृह जिले बीरभूम के प्राथमिक विद्यालयों में उपस्थिति 50 फीसदी से बढ़कर 80 फीसदी हो गई है, इसी तरह से अन्य जिलों में भी वृद्धि हुई है. मुझे लगता है कि हमें भारत में संगठनात्मक अवधारणा में परिवर्तन की जरूरत है. हमारे यहां सार्वजनिक क्षेत्र का कृषि और सहकारी खेती में निराशाजनक प्रदर्शन है जबकि अन्य उद्योगों में भी इसे मुश्किल से ही सफल कहा जा सकता है. लेकिन कुछ अन्य उद्योगों जैसे रेलवे का प्रदर्शन उम्मीद से बेहतर है.

दरअसल सबसे गंभीर समस्याएं स्वास्थ्य, शिक्षा और बाल विकास के मोर्चे पर हैं.मेरे हिसाब से हमें इन मुद्दों पर विभिन्न यूनियन से सहयोग की जरूरत है और इसके लिए आवश्यक है कि हम अपनी सोच में बदलाव लाएं, न सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर बल्कि यूनियन के स्तर पर भी. विभिन्न यूनियनों को सिर्फ उनके सदस्यों के बारे में ही नहीं सोचना चाहिए बल्कि अपनी सोच और काम के  दायरे में समुदाय और देश को भी शामिल करना चाहिए. इसी तरह से आम लोगों को भी हमेशा यूनियनों को संदेह की नजर से नहीं देखना चाहिए. लोग मानते है कि यूनियनों के माध्यम से शायद ही कोई अच्छा काम हो सकता है. हमें इस धारणा में बदलाव की जरूरत है इसके साथ ही यूनियनों को भी इस तरह से काम करना होगा ताकि लोगों का उन पर भरोसा बना रहे.

बहुत से लोगों का मानना है कि पूंजीवादी व्यवस्था और वैश्वीकरण के फायदे जमीनी स्तर तक नहीं पहुंचे, फिर भी क्या ये सही नहीं है कि वैश्वीकरण से रोजगार के अवसर पैदा होते हैं और इससे धीरे-धीरे गरीबी दूर हो सकती है?

सिर्फ उदारीकरण से भारत का भला नहीं होने वाला. ये महत्वपूर्ण है पर देश की समस्याओं से निपटने के लिए सिर्फ यही काफी नहीं. हमें एक साथ कई मोर्चे पर काम करना होगा. कई क्षेत्रों के लिए नीतियां बनानी होंगी. हमें विश्व बाजार का फायदा उठाना होगा जो कि बेहद महत्वपूर्ण है. मेरा मानना है कि इसके लिए नीतिगत स्तर पर बेहतर निर्णय लिए जाना भी बेहद जरूरी है.

विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) की अवधारणा पर आपका क्या मत है?

मैं काफी हद तक सेज बनाए जाने का विरोधी हूं. यदि आप सेज बनाने की अनुमति देते हैं तो आपको राजस्व नहीं मिलता क्योंकि इन्हें कर में छूट दी जाती है. मेरे हिसाब से सेज भ्रष्टाचार को और बढ़ावा दे सकते हैं. इनकी स्थापना के बारे में बड़ा ही अजीबोगरीब तर्क दिया जाता है कि इनका निर्माण बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के लिए किया जा रहा है लेकिन वास्तव में यदि सेज का विकास बाजार आधारित व्यवस्था के लिए किया जा रहा है तो इन्हें राज्यों का संरक्षण क्यों है? मेरे विचार से हम बाजार और विश्व अर्थव्यवस्था उचित भागीदारी से बेहतर स्थिति में आ सकते हैं और इसके लिए सोच विचार कर नीतियां बनाने की आवश्यकता है.

आपके  बारे में कहा जाता है कि आप की विचारधारा वामपंथ के ज्यादा नजदीक है, क्या आज वाम पार्टियां अपने आदर्शों के अनुरूप आचरण कर रही हैं?

मेरा मानना है कि आज वाम पार्टियों को भारत-अमेरिका परमाणु करार की बजाय अशिक्षा, अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और वंचित लोगों पर ध्यान देने की जरूरत है. मेरे ख्याल से इन मुद्दों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. मैं वामपंथी हूं और ये मेरा राजनीतिक मत है. मैं चाहूंगा कि ये पार्टियां समुदाय के सबसे गरीब तबके की समस्याओं के बारे में ज्यादा चिंता करें और उनके हितों से संबंधित मुद्दों को उस स्तर तक ले जाएं जहां उनकी आवाज सुनी जा सके. इसके साथ ही वाम पार्टियां कोशिश करें कि निचले तबके की आवाज कमजोर न पड़ पाए.

अपने सपनों के भारत के बारे में कुछ बताइए?

मेरा सपना है एक ऐसा भारत जहां सबके पास व्यापक स्वतंत्रता हो, जहां लोगों को किसी तरह के अभाव से न जूझना पड़े, जहां हमें कुपोषण के स्तर, निम्नस्तरीय स्वास्थ्य सेवाओं और साक्षरता दर को लेकर शर्मिदा न होना पड़े.