कुरूक्षेत्र के कई सव्यसाची

बीसवीं सदी के आठवें दशक में अमेरिका के राष्ट्रपति रीगन और ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थैचर ने मिल कर वित्तीय पूंजीवाद का नया मॉडल बनाया जो नवउदारवादी वाशिंगटन सहमति के नाम से जाना गया. दशक का अंत होते-होते सोवियत संघ बिखर गया. इसे समाजवाद का अंत और पूंजीवाद की अंतिम निर्णायक विजय घोषित कर के अमेरिका ने पूरे संसार में नई नव उदार व्यवस्था लागू करने का अभियान चलाया. भारत इसका पहला रंगरूट बना क्योंकि यहां का परजीवी मध्यवर्ग सोवियत संघ में विघटन के बाद ऐसी विश्व व्यवस्था से जुड़ना चाहता था जो उसे उसकी आत्महीनता में भी आश्वस्त रख सके. आपने देखा होगा कि पश्चिमी विद्या कौशल वाला मध्यवर्ग नौवें दशक में ऐसे अवसर प्राप्त कर सका जो उसे पूरी सदी भर ऐतिहासिक कारणों से मिला नहीं था. राज्य के संरक्षण में मुटियाए उद्योगपति और बड़े व्यापारी वह उदार व्यवस्था में पश्चिमी वित्तीय पूंजी के एजंट हो गए. भूमंडलीकरण के साथ नियोग से भारतीय पूंजी ने गजब की उर्वरता दिखाई और भारत में भी अमेरिकी पूंजीपतियों को मात देते पूंजीपति और फार्चून कंपनियों में शामिल हो सकने वाली कंपनियां बन गईं. वृद्धि और विकास के लिए कारपोरेट्स को आगे करने वाली मनमोहनी नीतियों ने धीरे-धीरे उद्योगपतियों, पूंजीपतियों के बीस घरानों को देश के सकल घरेलू उत्पाद का बाईस प्रतिशत हिस्सा दे दिया.

अर्थव्यवस्था के इस तथाकथित भूमंडलीकरण से राजनीति अछूती नहीं रह सकती थी. पिछली सदी के नौवें दशक में राजनीति के मंडल और कमंडल के दो शक्तिशाली ध्रुवों से चल रही थी. सामाजिक सांस्कृतिक रूप से देखें तो यह भारतीय समाज के दो पुरातन तत्वों, जाति और संप्रदाय के निरंतर संघर्ष का नतीजा था. मंडल यानी जाति की शक्तियों को विश्वनाथ प्रताप सिंह ने निर्बन्ध और निर्बाध किया था और लालकृष्ण आडवाणी जी  कमंडल लेकर निकले ये उससे सांप्रदायिक शक्तियां सारे परदे फाड़ कर प्रकट हो गई थी. बीसवीं सदी का आखिरी दशक जाति और संप्रदाय की पहचान की राजनीति से तहस-नहस होता रहा.क्षितिज पर दिखता तो कुछ नहीं है. लेकिन राजनीति के साथ चित्रकारी करने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह कहा करते थे कि राजनीति लेंडस्केप की तरह नहीं बदलती. राजनीति स्काईस्केप है. देखते-देखते बादल झूम के घिरते और बरसते हैं

लेकिन मनमोहन सिंह ने भूमंडल की ताकतों को जो नल सन् इकानवे में खोला था वह मंडल और कमंडल के अनिवार्य संघर्ष के दौरान पहले नाला बना और फिर इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में नदी बन गया. यह संयोग नहीं है कि कमंडल के कर्ताओं को भूमंडल के सबसे बड़े भारतीय एजंट अंबानी के राजनैतिक एजंट प्रमोद महाजन ने मरवाया और गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधान सभाओं में विजय के रथ पर बैठा कर लोकसभा के मैदान में उतार दिया. मंडल और कमंडल दोनों क्षीण हो रहे थे. भूमंडल और भारतीयता का नया संघर्ष चल निकला. भाजपा की अगुवाई वाला कमंडली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन हार गया. कांग्रेस की अगुवाई में नया गठबंधन बना – यूपीए. उसी ने सत्ता संभाली. यह भी संयोग नहीं था कि इसके प्रधानमंत्री का पद मनमोहन सिंह को मिला जो भूमंडल की आर्थिक-राजनैतिक शक्तियों के अग्रणी पहरुए थे. यह भी संयोग नहीं था कि भारत के भूमंडलीकरण पर अंकुश लगाने वाले वामपंथी इसे बाहर से समर्थन दे रहे थे.

वामपंथियों को भारतीयता की नई शक्ति कहना तो हास्यास्पद होगा क्योंकि वे अपने वामपंथी चोले से बाहर नहीं आ सकते थे. उनमें इतनी रचनात्मक ऊर्जा ही नहीं थी कि भूमंडलीकरण के वित्तीय पूंजीवादी हमले के सामने खड़ी हो रही भारत के किसानों और मजदूरों की नई भूमि में वैचारिक हल चला कर नई फसल उगा सकें. वे सिर्फ वित्तीय पूंजी के भूमंडलीकरण से पैदा हुए नए इंडिया पर राजनैतिक अंकुश अमेरिका से अणु करार कर के भारत में नव उदार आर्थिक सुधारों के लिए नई भूमि हथियाने का निश्चय किया.

लेकिन उन्हें पूंजी से की गई खरीद-फरोख्त से मिली जीत का जश्न मनाने को डेढ़ महीना भी नहीं मिला. बाईस जुलाई को जीते और पंद्रह सितंबर को वित्तीय पूंजीवाद की राजधानी वॉल स्ट्रीट का दिवाला पिट गया. वित्तीय पूंजीवाद के नव उदारवादी सारे काशी, मक्का और काबे ढह गए. उनमें बैठे देवी-देवता और भगवान झूठे साबित होकर डूब गए. मनमोहन सिंह डूबते अमेरिकी जहाज से भारतीय नौका को अलग कर के बचाने में मजबूरन लग गए. बीस हजार के पार उछलता सेंसेक्स आठ हजार पर उतर आया. एक अमेरिकी ने कहा कि कितने ट्रिलियन डॉलर डूबने से कितने धनपति कंगाल हुए हैं इसका पता तो तभी चलेगा जब ज्वार उतरेगा क्योंकि तभी दिखेगा कि समुद्र में कौन-कौन नंगे तैर रहे थे. सन् तीस से भी बड़ी महामंदी आ गई है और भारत मंदी के भूमंडलीकरण से बचने में लगा है. मनमोहन सिंह अपनी सबसे बड़ी विजय अमेरिका से अणु करार के बाद अब मंदी के भूमंडलीकरण से भारत को बचाने में लगे हैं. उनकी नदी मंदी के रेगिस्तान में मिल गई है.

इक्कीसवीं सदी का पहला दशक अपने नौवें साल में भूमंडलीकरण से उपजे भस्मासुर इस्लामी आतंकवाद को गेट वे इंडिया के ताज महल और ओबरॉय होटलों में ले आया है. नकली ईडन गार्डन से आदमी तो निकाल दिया गया है और बड़े-बड़े नखों और दांतों वाला राक्षसी जानवर बैठा दिया गया है. समझदार लोग जानते हैं कि यह राक्षसी जानवर ही भूमंडलीकरण की औरस संतान है. इसलिए आपने देखा कि ताज और ओबरॉय में गिन-गिनकर और चुन कर अमेरिकी और यूरोपीय नागरिकों को मारा गया और नरीमन हाउस में यहूदियों को. यह इस्लामी अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का भारत पर खास कर भूमंडलीकृत इंडिया पर हमला था. आपने देखा कि इस इंडिया ने पाकिस्तान के रास्ते आए राक्षसी जानवर का कैसा विरोध किया और इंडिया के राज्य ने नए इंडिया से माफी मांगी और सख्त तानाशाही कानून तैयार किए. क्या इंडिया पाकिस्तान पर सैनिक हमला चाहता है जैसा बुश ने इराक और अफगानिस्तान पर किया था. उसे बुश की पराजय और ओबामा की जीत का मतलब समझ में नहीं आता. समझदार भारत नए इंडिया की नपुंसक आक्रामकता को रोके हुए है.

ऐसे में नौ का साल लग गया है. नौ पूर्णाक और शुभ माना जाता है. क्या इस साल नई राजनीति आएगी? जम्मू कश्मीर में जनता ने अलगाववाद, आतंकवाद और पार्टियों की मौकापरस्ती को पराजित कर के लोकतंत्र को नई ताकत और नया विश्वास दिया है. लोकसभा चुनाव बराबरी के एक सेमीफाइनल के बाद फाइनल की तरह हो रहा है. तीनों संगठित और राष्ट्रीय पार्टियां – कांग्रेस, भाजपा और वामपंथी – क्षेत्रीय मददगारों की तलाश में है. यूपीए, एनडीए और वामपंथी बनने और टूटने की प्रक्रिया में है. क्या यह चुनाव कोई नई और स्वायत्त भारतीय शक्ति को प्रक्षेपित कर सकता है?

क्षितिज पर दिखता तो कुछ नहीं है. लेकिन राजनीति के साथ चित्रकारी करने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह कहा करते थे कि राजनीति लेंडस्केप की तरह नहीं बदलती. राजनीति स्काईस्केप है. देखते-देखते बादल झूम के घिरते और बरसते हैं और उजली धूप नीले स्वच्छ आकाश को चमका देती है. फिर कहीं से एक बादल आता है और सारा दृश्य बदल जाता है. बादल कहां से आता और कहां चला जाता है कोई नहीं जानता. कोई भविष्यवाणी नहीं होती. कोई भविष्यवाणी सही नहीं निकलती.

अब बताइए कि कौन जानता था कि राष्ट्रपति पद का चुनाव हारे और उप राष्ट्रपति पद से रिटायर हुए भरोंसिंह शेखावत एक पांव राजस्थान और एक पांव दिल्ली में रखते हुए लोकसभा चुनाव में अपनी सतरंगी पगड़ी उछाल देंगे? एक चुनौती की तरह.

अगर वे सचमुच लड़ गए तो भाजपा और एनडीए लाख हथेली लगा लें लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री नहीं बना सकते. कौन जानता था कि आडवाणी के रास्ते में भरोंसिंह शेखावत हनुमान की तरह लेट जाएंगे. शेखावत एनडीए को ही हिला नहीं सकते वे यूपीए को भी चमका सकते हैं. उनके आने से शरद पवार, मुलायम सिंह आदि की महत्वाकांक्षाओं को नए पर लग सकते हैं. भारत की दक्षिणपंथी शक्तियां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मुक्त हो सकती हैं. यानी पूंजीवाद सांप्रदायिकता के ग्रहण से बाहर निकल सकता है. वामपंथी भी नई जमीन खोद सकते हैं. शेखावत जेपी और वीपी दोनों की भूमिका में उभर सकते हैं.

और शेखावत तो इतिहास के एक सव्यसाची हैं. कई सव्यसाची अभी कुरूक्षेत्र में खड़े लड़ूं कि न लड़ूं की दुविधा में हैं. राजनीति स्काईस्केप है.