आतंक : 'अ' से 'ज्ञ' तक

आखिर में आतंकी हमले की चेतावनियां कागजों पर ही धरी रह गईं. रात के अंधेरे में गेटवे ऑफ इंडिया के इलाके से मुंबई में दाखिल होने वाले आतंकियों को फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं थी. उन्हें देखकर कोई भी नहीं कह सकता था कि एक घंटे बाद वे ऐसा कहर बरपाने वाले हैं जिसे सारी दुनिया दम साधे देखेगी. कोई नहीं बता सकता था कि शहर के किसी आम नौजवान की तरह दिखने वाले ये लोग अभी-अभी लंबी समुद्री यात्रा तय करके आए हैं और मुंबई में आतंक की बरसात करने वाले हैं. 

वसे अपनी योजना पर अमल आतंकियों ने अल कुबेर नामक ट्रालर के कप्तान अमर सिंह सोलंकी की बेरहमी से हत्या करने के साथ ही शुरू कर दिया था. अल कुबेर यानी वो ट्रालर जिसमें उन्होंने मुंबई तक की अपनी यात्रा का दूसरा चरण पूरा किया था. आतंकी 24 नवंबर को इस ट्रालर पर चढ़े थे और मुंबई के पास पहुंचने के बाद एक स्पीडबोट की मदद से शहर के तट तक आए थे.

सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में जिंदा पकड़े गए एकमात्र आतंकी कसाव का कहना है कि वो और मारे गए उसके नौ साथी कराची के अजीजाबाद से एक छोटे जहाज में चढ़े थे. जल्द ही उन्होंने जहाज बदल लिया. अब ये अल हुसैनी नाम का पाकिस्तानी जहाज था जो कराची से 200 नॉटिकल मील की दूरी पर था. अगला नंबर कुबेर का था जो उन्हें उनके मकसद यानी मुंबई तक ले जाने वाला था. रास्ते में सोलंकी के चार साथियों की हत्या कर उनकी लाशें अरब सागर की अथाह गहराइयों में फेंक दी गईं. सोलंकी को तब तक जिंदा रखा गया जब तक आतंकियों को दूर से मुंबई की चमचमाती इमारतें नहीं दिखने लगीं. इसके बाद उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी गई. उनके हाथ-पांव भी बांध दिए गए और फिर क्रूरता से गला रेत कर उनकी हत्या कर गई.

इस दौरान आतंकियों ने तटरक्षक बलों की निगाह को चकमा दिया और नौसेना की सुरक्षा दीवार में सेंध लगाई. अब मुंबई सिर्फ तीन या चार नॉटिकल मील दूर रह गई थी और उन्हें ज्यादा फिक्र करने की जरूरत नहीं थी. धर्माधता और घृणा के घोल से भरे गए इन दिमागों की आखिरी मंजिल जन्नत थी.

आज भी कम ही लोग इससे असहमत होंगे कि जिस सहजता से वे लोग आए उससे यही आभास होता था कि वे बोट की सवारी करके ही लौट रहे हैं.

अजय मिस्त्री उन लोगों में से हैं जिन्होंने आतंकियों को सबसे पहले देखा. कफ परेड इलाके में मछुआरों की खाड़ी की तरफ से किनारे पर आए छह लोगों पर मिस्त्री की नजर पड़ी तो बीस से पच्चीस साल की उम्र के दिखते ये नौजवान पहनावे से उन्हें कालेज के छात्रों जसे लगे. दूसरा प्रत्यक्षदर्शी भारत और इंग्लैंड के बीच क्रिकेट मैच देखने में मशगूल एक लड़का था जो जब किसी काम से घर के बाहर आया तो उसने इन लोगों को देखा. जब उसने उनके बारे में पूछा तो उनमें से एक ने कहा कि वे कालेज स्टूडेंट्स हैं और अभी-अभी बोट की सवारी करके लौट रहे हैं. एक और प्रत्यक्षदर्शी अनिता राजेंद्र उदयार के सवाल पर आतंकियों ने कहा, ‘अपना काम करो.’

यहां के बाशिंदे बोट की सवारी का आनंद लेने वाले पर्यटकों को देखने के आदी थे मगर कंधों पर सामान्य से कहीं भारी बैग लटकाए लोग उनमें से नहीं थे. विडंबना देखिए कि आज भी कम ही लोग इससे असहमत होंगे कि जिस सहजता से वे लोग आए उससे यही आभास होता था कि वे बोट की सवारी करके ही लौट रहे हैं.

मिस्त्री के मुताबिक ये रात के करीब साढ़े आठ बजे की बात थी. एक घंटे बाद दो आतंकी एके-47 राइफलों के साथ छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (सीएसटी) में दाखिल हुए. खुल्लेआम राइफलें लहराते हुए कसाव और अबू इस्माइल नाम के ये आतंकी प्लेटफार्म नंबर 13 पर पहुंचे जो रेलवे स्टेशन के प्रवेश द्वार के नजदीक ही है. सीएसटी उनका पहला निशाना था. रोज की तरह यहां काफी भीड़ थी. इससे पहले कि लोग कुछ समझ पाते अंधाधुंध गोलियां बरसने लगीं. कुछ ही पलों में प्लेटफॉर्म पर चीख-पुकार और अफरातफरी मच गई. जिन्हें गोलियां नहीं लगीं वे डर के मारे इधर-उधर भागने लगे. किसी को भी पता नहीं था कि क्या हो रहा है. स्टेशन पर तैनात एक सफाई कर्मचारी आनंद शेलगांवकर बताते हैं कि आतंकियों ने स्टेशन के बीचों-बीच एक हथगोला फेंका. इसका एक छर्रा उस रेलवे कर्मचारी की छाती में घुस गया जिसका काम ट्रेनों के प्रस्थान और आगमन की घोषणा करना था.

सवाल उठता है कि रेलवे पुलिस कहां थी? 11 जुलाई 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेनों में हुए धमाकों में 187 लोगों के मरने के बाद रेलवे स्टेशनों पर सुरक्षा बढ़ाए जाने का दावा किया गया था.

गोलीबारी के प्रत्यक्षदर्शी रहे और उससे थोड़ी ही देर पहले नाइट डच्यूटी पर आए कांस्टेबल राजेंद्र सदाशिव इस अहम सवाल का जवाब देते लगते हैं. उनके शब्दों में ‘वे आर्मी वालों की तरह लग रहे थे. आर्मी वालों की तरह ही उन्होंने गहरे रंग के कपड़े पहन रखे थे और उनके पास बंदूकें थीं. इसलिए किसी को उन पर शक नहीं हुआ. मगर जब उन्होंने फायरिंग शुरू कर दी तो मेरे सीनियर इंस्पेक्टर शशांक शिंदे ने उन पर फायरिंग करते हुए मुकाबला करने की कोशिश की तो उन्होंने भी ताबड़तोड़ जवाबी फायरिंग की. शिंदे घटनास्थल पर ही मारे गए. उन्होंने मुझ पर भी गोलियां चलाईं. हालांकि मुङो गोली लगी नहीं मगर मैं जमीन पर गिर पड़ा और खून में सन गया. उन्हें लगा कि मैं मर गया हूं और वे मेरे पास से फायरिंग करते हुए आगे बढ़ गए. ये सब करते हुए उन्होंने कोई बात नहीं की. किसी ने भी एक शब्द नहीं कहा. वे आपस में हाथों के इशारों से बात कर रहे थे.’ 

बिना किसी रुकावट मौत के ये सौदागर अपना काम करते रहे. कुछ ही मिनट के भीतर उन्होंने 40 जिंदगियां खत्म कर दीं थीं. अब उन्हें आगे बढ़ना था. रेलवे स्टेशन पर बूट पालिश करके पेट पालने वाला 11 साल का विलास हाथ में बड़ी सी बंदूक लिए एक आतंकवादी को देखकर फौरन एक बोर्ड के पीछे छिप गया. उसे अहसास हो गया था कि ये कोई गैंगवार या एनकाउंटर नहीं है क्योंकि फायरिंग एक-एक करके नहीं बल्कि बौछार के रूप में हो रही थी.

स्टेशन से बाहर निकलकर टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग के सामने से गुजरते हुए कसाव और इस्माइल, कामा हास्पिटल में दाखिल हो गए. विलास ने बोर्ड के पीछे से झंककर देखा तो उसे लाशें, खून और बिखरे सामान के अलावा और कुछ नजर नहीं आया. इस तरह के किसी हमले के कुछ ही मिनट के भीतर हरकत में आ जाने वाले क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप का कहीं अता-पता नहीं था. घायल, जिनमें ज्यादातर महिलाएं और बो थे, बस भगवान भरोसे थे. कामा अस्पताल के वे सुरक्षा गार्ड भी भगवान भरोसे थे जो आसानी से गोलियों का शिकार हो गए.

ये पता चलने के बाद कि पुलिस की एक कार हॉस्पिटल के पास आ रही है, दोनों आतंकियों में से एक चौथी मंजिल से दौड़ता हुआ नीचे आया. ये पहला संकेत था कि आतंकवादियों के पास फोन भी था.(अब जांच हो रही है कि उन्हें सिमकार्ड कैसे मिले और वे इतने जल्दी एक्टिवेट कैसे हो गए). यानी वे आपस में संपर्क कर सकते थे.

इस तरह के किसी हमले के कुछ ही मिनट के भीतर हरकत में आ जाने वाले क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप का कहीं अता-पता नहीं था. घायल, जिनमें ज्यादातर महिलाएं और बो थे, बस भगवान भरोसे थे.

इसलिए जब तक एटीएस के मुखिया हेमंत करकरे, एनकाउंटर विशेषज्ञ विजय सालस्कर और एसीपी अशोक काम्टे को निशाना साधने का मौका मिलता तब तक गोलियों की ताबड़तोड़ बौछार उन्हें छलनी कर चुकी थी. कांस्टेबल अरुण जाधव को भी चार गोलियां लगीं और वे अचेत हो गए. आतंकियों ने उन्हें मरा समझकर छोड़ दिया. अब जाधव एक अहम गवाह हैं.

आईसीयू में अपनी चोटों से उबर रहे जाधव बताते हैं कि करकरे, सालस्कर और काम्टे की लाशों को क्वालिस से बाहर फेंकने के बाद दोनों आतंकी कार में सवार होकर मेट्रो सिनेमा की तरफ चल पड़े. इस दौरान वे रास्ते में चल रहे लोगों पर लगातार फायरिंग कर रहे थे. सड़क  के दूसरी तरफ खड़े पुलिसकर्मियों ने पहले तो सोचा कि क्वालिस में उनके अधिकारी सवार हैं मगर जल्द ही उन्हें समझ में आ गया कि आतंकियों ने कार पर कब्जा कर लिया है. उन्होंने भी जवाबी फायरिंग शुरू कर दी. इस बीच क्वालिस का टायर फटने से एक जोर का धमाका हुआ. मगर आतंकियों ने कार दौड़ाना जारी रखा. थोड़ी दूर जाने पर उन्हें एक स्कोडा कार दिखी जिसमें चार लोग सवार थे. बंदूकधारियों को देखते ही चारों डरकर कार से बाहर निकल आए और कार उनके हवाले कर दी. कसाव और उसके साथी को बहुत जल्दी थी. एक पुलिस सबइंस्पेक्टर खेडकर उनका पीछा कर रहे थे. खेडकर ने तुरंत इन चार लोगों से कार का नंबर लिया और पुलिस कंट्रोल रूम को सूचित कर दिया.

गिरगांव के नजदीक एक पुलिस चेक पोस्ट पर जब इस कार को रोकने की कोशिश की गई तो कार चला रहे इस्माइल ने यू टर्न लेना चाहा. मगर इस कोशिश में कार डिवाइडर से टकरा कर रुक गई. इससे पुलिसकर्मियों को फायरिंग करने का मौका मिल गया. अब मुकाबला थ्री नॉट थ्री और एके-47 के बीच था. इसमें एक पुलिसकर्मी तुकाराम उंबले और इस्माइल की मौत हो गई. खेडकर बताते हैं कि उन्होंने कसाव को भी मरा हुआ समझ लिया था मगर अस्पताल पहुंचने पर हमने पाया कि वह जिंदा है और गोलियों से उसे सिर्फ खरोंचें आई हैं.

उधर, जब सीएसटी में गोलियां चल रहीं थीं,तो तकरीबन उसी वक्त कसाव के दो साथी दक्षिण मुंबई में काफी लोकप्रिय लियोपोल्ड कैफे के दरवाजे पर खड़े थे. ये रेस्टोरेंट स्थानीय लोगों और विदेशी पर्यटकों का पसंदीदा ठिकाना है. रेस्टोरेंट में रोज की तरह भीड़ थी. दस मिनट के इंतजार के बाद वेटर ने दोनों को भीतर आने का न्यौता दिया. दोनों आतंकियों ने 1871 में बने इस रेस्टोरेंट में दाखिल होकर चारों तरफ निगाह डाली और कुछ सेकेंड बाद ही खाने में तल्लीन बेखबर लोगों पर गोलियों की बौछार कर दी. लियोपोल्ड के बाहर खड़े महमूद पटेल याद करते हैं कि उसके बाद आतंकी आराम से टहलते हुए बाहर निकले और थोड़ी ही दूरी पर स्थित ताज होटल की तरफ बढ़ गए.

सीएसटी में तबाही का मंजर था, गोलियों से छलनी महाराष्ट्र के शीर्ष पुलिस अधिकारियों के शव अस्पताल के बाहर पड़े थे और अब लियोपोल्ड में लाशों की गिनती होनी थी. भारत की आर्थिक राजधानी को बंधक बना लिया गया था. एक ही समय पर अलग-अलग जगहों पर हमले हो रहे थे और सरकार हैरान थी कि क्या हो रहा है.

मगर आतंकी हैरान नहीं थे.

लियोपोल्ड से निकलकर दोनों हत्यारे ताज पहुंचे जहां उनके दो साथी पहले ही मौत का खूनी खेल शुरू कर चुके थे. फायरिंग की खबर सुनकर यहां पहुंचे वसंत प्रभु नाम के एक प्रेस फोटोग्राफर ने एक आतंकी को ताज में घुसते हुए देखा और वे उसके पीछे चल पड़े. रास्ते में उन्हें एक डीसीपी मिले जो अपने एक अंगरक्षक और दो सुरक्षाकर्मियों के साथ होटल के भीतर दाखिल हो रहे थे. वसंत याद करते हैं, ‘जब तक हम पहली मंजिल पर पहुंचे तब तक आतंकियों ने फायरिंग शुरू कर दी थी. किसी तरह से हम तीसरी मंजिल तक पहुंच गए. डीसीपी के पास सिर्फ एक सर्विस रिवॉल्वर थी. सावधानी बरतते हुए उन्होंने नीचे यानी दूसरी मंजिल में झंकने की कोशिश की मगर एक आतंकी ने हमें देख लिया और हमारी तरफ गोलियां बरसानी शुरू कर दीं. बचने के लिए हम फर्श पर लेट गए और रेंगते हुए सीढ़ियों की तरफ बढ़ने लगे.’

एक ही वक्त पर कई जगहों पर हमले हो रहे थे. साढ़े नौ बजे के आसपास दो बंदूकधारियों ने कोलाबा में स्थित एक भारत पेट्रोलियम के एक फिलिंग स्टेशन पर हथगोला फेंका. ये स्टेशन यहूदियों के ठिकाने चबाड हाउस, जिसे नरीमन हाउस के नाम से भी जाना जाता है, के बगल में ही है. इन दो आतंकियों का लक्ष्य यही था और बिना रास्ता भटके जिस तरह से वे इसमें दाखिल हुए उससे नजदीक ही मिठाई की दुकान चलाने वाले विकी पाटिल हैरान रह गए. पाटिल कहते हैं, ‘किसी आम आदमी को ये जगह ढूंढने में अच्छी-खासी दिक्कत हो सकती है मगर उन लोगों को हर गली का पता था. ऐसा लग रहा था जसे उन्होंने इस जगह का बारीकी से अध्ययन किया हो.’

चबाड हाउस के मालिक रब्बी ग्रैबिएल होल्सबर्ग दुनिया भर से भारत आने वाले यहूदी घुमंतुओं को अपने यहां शरण देते थे. हथगोले के धमाके से चिंतित रब्बी ने पुलिस को फोन किया मगर तब तक आतंकी नरीमन हाउस में दाखिल हो चुके थे. उन्होंने वहां मौजूद नौ लोगों को बंधक बना लिया. रब्बी का दो साल का बेटा मोशे हालांकि भाग्यशाली रहा क्योंकि उसकी आया उसे सुरक्षित जगह पर ले जाने में कामयाब रही. जांच अधिकारियों का मानना है कि आतंकियों ने नौ बंधकों को एक-एक करके मारा. बचाव कार्य में मदद करने वाले विकी पाटिल बताते हैं कि बाहर निकाले जाने तक शवों की हालत बहुत खराब हो चुकी थी. एनएसजी के निदेशक जे के दत्ता ने भी बाद में माना कि तीनों जगहों-ताज, ओबेरॉय और नरीमन हाउस पर कमांडो कार्रवाई शुरू होने से पहले ही सारे बंधकों की हत्या कर दी गई थी.

‘किसी आम आदमी को ये जगह ढूंढने में अच्छी-खासी दिक्कत हो सकती है मगर उन लोगों को हर गली का पता था.’

मगर कमांडो के आने में भी अभी भी पूरी रात बाकी थी. हमले की शुरुआत के ‘सिर्फ’ दो घंटे बाद एनएसजी को बुलाने का निर्देश दिया गया. सुबह पांच बजे कमांडो मुंबई में उतरे और वहां से उन्हें एक घंटा घटनास्थल पर पहुंचने में लगा. इस दौरान आतंकियों से लोहा लेने का जिम्मा मरीन कमांडोज यानी मार्कोस के कंधों पर था मगर अंधेरे और चालाक दुश्मन के सामने उनका हर दांव खाली गया. वसे भी डाइविंग और पानी के नीचे प्रशिक्षण लेने वाले मार्कोस के लिए ताज एक जमीनी भूलभुलैया था जबकि आतंकी उसकेचप्पे-चप्पे से वाकिफ थे.

सुबह एनएसजी कमांडो मुख्य द्वार के जरिए ताज में दाखिल हुए जहां पिछली रात को चार अनचाहे मेहमान अंधाधुंध फायरिंग करते हुए जा घुसे थे. आतंकियों की तैयारी कितनी जबर्दस्त थी इसका पता इस बात से चल जाता है कि होटल को उनसे मुक्त कराने में तीन दिन लग गए. उन्होंने कमरों में मौजूद मिनीबार से निकालकर शराब कालीनों और परदों पर छिड़क दी थी ताकि उनमें आसानी से आग और धुआं भड़क सके. इससे वे आगे बढ़ रहे कमांडो के रास्ते में रुकावटें खड़ी कर सकते थे. ऐसा हुआ भी.

होटल में रह रहे 19 साल के ओस्कारी पोल्चो दूसरी मंजिल पर बने अपने कमरे से बाहर आ रहे थे जब उन्होंने एक आतंकी को लोगों पर फायरिंग करते हुए देखा. जब तक वह कुछ समझ पाते तब तक बंदूक उनकी तरफ तन चुकी थी. एक गोली पोल्चो के हाथ में लगी और दूसरी जांघ में. कांपती आवाज में पोल्चो बताते हैं, ‘आतंकी को लगा कि मैं मर चुका हूं और वो दूसरे कमरों की तरफ बढ़ गया. मैं खून से लथपथ चुपचाप पड़ा रहा. फिर कमांडो पहुंचे और मुङो बचाया.’

उधर, आतंकियों का एक दूसरा जोड़ा ओबरॉय में दाखिल हो चुका था. रिसेप्शन पर फायरिंग करते हुए आतंकी, होटल के लोकप्रिय रेस्टोरेंट टिफिन में घुस गए. यहां उन्होंने एक बार फिर से गोलियों की बौछार की और इसके बाद कंधार की तरफ बढ़ गए. उन्होंने 17 लोगों को बंधक बना लिया और रेस्टोरेंट के ही एक कर्मचारी से ही उस जगह को आग में झोंकने को कहा. फिर वे बंधकों को 20वीं मंजिल पर ले गए. इस दौरान इनमें से एक बंधक ने अपनी पत्नी को फोन कर फुसफुसाते हुए अपनी हालत के बारे में बताया. ये पति-पत्नी की आखिरी बातचीत थी. गलियारे में बंधकों से दीवार की तरफ मुंह करने को कहा गया. एक बंधक ने पूछा भी कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं. जवाब आया, क्या तुमने बाबरी मस्जिद के बारे में नहीं सुना? क्या तुमने गोधरा के बारे में नहीं सुना? इसके बाद अगली आवाज ट्रिगर दबने की आई और सब कुछ खत्म हो गया.

दूसरी मंजिल पर मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के साथ मौजूद एनएसजी कमांडो सुनील कुमार उन पहले कुछ लोगों में से थे जिनका आतंकियों से सीधी मुठभेड़ हुई. कुमार को लगा कि कमरा नं. 271 से कुछ अजीब सी आवाजें आ रही हैं. उनका अंदाजा सही था. अचानक दरवाजा खुला, बंदूक लिए कोई छाया की तरह निकला और पलक झपकते ही गोलियां बरसाते हुए वापस कमरे में घुस गया. कुमार को तीन गोलियां लगीं थीं और मेजर को अब उन्हें सुरक्षित जगह पर ले जाना था. उन्होंने यही किया मगर अफरा तफरी में वे अपनी टीम से बिछड़ गए. उनके कान में एक छोटा सा रेडियो लगा था जिसके जरिये वे अपने अधिकारियों से बात कर सकते थे. मगर भीतर मौजूद अपने साथियों से संपर्क करने के लिए उन्हें उनका नाम लेकर आवाज लगानी पड़ी. उन्हें पता नहीं था कि एक आतंकी उनके काफी नजदीक है जिसने मेजर को निशाना बनाने में जरा भी देर नहीं लगाई. ऐसा स्वाभाविक ही था क्योंकि कसाव और दूसरे लोगों की तरह उसे भी एक साल से इसी तरह के कामों के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा था.

कसाव के साथियों ने मार्कोस और एनएसजी कमांडो को 60 घंटों तक उलझए रखा. एनएसजी के मुखिया भी मानते हैं कि उन्हें लगातार अपनी रणनीतियां बदलनी पड़ीं. अलग-अलग मंजिलों और उन कमरों से होते हुए आगे बढ़ना भी एक चुनौती थी जिनमें मेहमानों ने खुद को बंद कर रखा था. दरवाजे के भीतर और बाहर मौजूद दोनों लोगों के लिए ये एक भयावह अनुभव था. मेहमानों के लिए ये जानना मुश्किल था कि दरवाजे पर मौत दस्तक दे रही है या उनका रक्षक. इसी तरह कमांडो के लिए भी ये मुश्किल थी कि जिस दरवाजे पर वे दस्तक दे रहे हैं उसके पीछे संकट में फंसी कोई जान है या उनका इंतजार करती मौत. हर कमरे की जांच करना बहुत तनाव भरा और समय लेने वाला काम था. किसी को भी ठीक-ठीक पता नहीं था कि अंधियारे गलियारों में कुल कितने आतंकवादी घूम रहे हैं. आ¬परेशन खत्म होने के बाद ही ये पता चल पाया कि कुल जमा छह आतंकी दो होटलों में तीन दिन तक 200 कमांडोज को उलझए रहे.

नरीमन हाउस में भी कुल दो आतंकियों ने कमांडोज का इम्तहान लिया. पुलिस ने आसपास की इमारतों को खाली करवा लिया था क्योंकि खिड़कियों से गोलियां चलाते आतंकियों ने इमारत के पास खड़े कई लोगों को शिकार बना लिया था. बाद में हेलीकाप्टर की मदद से कमांडोज नरीमन हाउस की छत पर उतरे और आतंकियों को मारकर इमारत को मुक्त किया. मगर रब्बी और उनकी पत्नी की तब तक हत्या कर दी गई थी. दूसरे शवों के माथे पर गोलियों के निशान बताते थे कि उन्हें काफी नजदीक से गोली मारी गई थी.

ताज, ओबेरॉय और नरीमन हाउस में मौत बरसाने वाले आठ आतंकी बचकर वापस जाने के इरादे से बिल्कुल नहीं आए थे. नरीमन हाउस में रखा हुआ कई किलोग्राम मांस अनछुआ मिला. आतंकियों के पास से बरामद सूखे मेवों की मात्रा बता रही थी कि वे लंबे समय तक आतंक का खेल खेलने की पूरी तैयारी से आए थे. उन्हें मौतों का आंकड़ा ज्यादा से ज्यादा रखना था. अंतिम आधिकारिक जानकारी बताती है कि ये आंकड़ा 198 है.

इसमें वे चार मेहमान शामिल नहीं हैं जिन्हें ओबेरॉय के कंधार रेस्टोरेंट से बंधक बनाकर होटल की 20वीं मंजिल तक ले जाया गया था. गोलीबारी के बाद गिरे लोगों में से ये चार ऐसे थे जो मरे नहीं, काफी समय तक लाशों के ढेर में पड़े रहे और जिन्हें इस भयावह अनुभव की यादें जिंदगी भर सिहराती रहेंगी.’