सॉरी भाई:लीक से कुछ ज्यादा ही हटके

सबसे पहले काम की बात. सॉरी भाईछोटे और मझोले शहरों की जनता के लिए कतई नहीं है. थोड़ा आगे बढ़ के ये भी कहा जा सकता है कि फिल्म बड़े शहरों में भी हरेक के लिए नहीं बल्कि केवल मल्टीप्लेक्स में फिल्में देखने वाली जनता के लिए है. मगर शायद ये मल्टीप्लेक्स में भी 700 रुपये वाले लाउंज में लेट कर फिल्म देखने वालों और चंद दूसरे लोगों के लिए ही है. क्यों भई?

दो प्यार करने वाले शादी करने जा रहे हैं..लड़के के परिवार वाले इसमें शामिल होने आते हैं और होने वाले देवर और होने वाली भाभी को एक-दूसरे से प्यार हो जाता है. थोड़ी बहुत ऊंच-नीच के बाद बाकी सबकी समझ में ये सब आ जाता है – इनमें बड़ा भाई भी शामिल है – मगर मां को ये अजीबोगरीब उलट-पुलट कतई मंजूर नहीं. वो, देवर, जो अब पति बनने की जुगाड़ में है, को अपनी कसम खिला कर शादी करने से रोक देती है. बाद में किसी वजह से मां भी उलटफेर के लिए तैयार हो जाती है मगर..अब समस्या ये आती है कि जो मां की कसम खाई गई थी उसका क्या. तो उसका भी हल ढ़ूंढ़ लिया जाता है.जमाना आधुनिक है और शादी किए बिना भी तो पति-पत्नी की तरह रहा जा सकता है. मजे की बात ये कि ये सुझाव मां की तरफ से ही आता है. अब शायद क्यों का जवाब मिल गया होगा. मगर एक बात शायद 700 रुपये खर्चने वाले अतिआधुनिक दर्शक को भी नहीं पचेगी और वो ये कि मां की कसम जसी पुरातनपंथी चीज की खातिर लिव-इन रिलेशन जसी आधुनिक व्यवस्था का चुनाव किया जाना.

ओनीर रिश्तों की जटिलताओं को बहुत बढ़िया तरीके से बरतने के लिए जाने जाते हैं, जो कि इस फिल्म में भी नजर आता है. फिल्म में एक बहुत ही उच्च कोटि के सधे हुए हास्य के भी यत्र, तत्र, सर्वत्र दर्शन होते हैं, जिसे फिल्म के करीब-करीब सभी पात्र – विशेषकर बोमेन ईरानी, शबाना आजमी, शर्मन जोशी – उतने ही सधे तरीके से निभाते नजर आते हैं. सॉरी भाई से चित्रांगदा सिंह ने फिल्मों में वापसी की है और उनका अभिनय देख कर लगता है कि अपरंपरागत मगर ग्लैमरस और कमर मटकाऊ नहीं बल्कि दिमाग चलाऊ भूमिकाएं और वो मानो एक-दूसरे के लिए ही बने हों.

कुल मिलाकर निर्देशन या किसी दूसरे तकनीकी पक्ष में कोई कमी न होने के बाद भी सॉरी भाईकुछ ऐसी फिल्म है जिसे देख के पसंद करने के लिए कुछ अलग ही तरह की पसंद वाला होना जरूरी है. अलग मतलब सही मायनों में अलग.

संजय दुबे