25 वर्षीय राहुल राज की इच्छा सेना का अधिकारी बनने की थी लेकिन वो एनडीए की परीक्षा ही पास नहीं कर सका. इसके बाद उसने बीएससी की. फिर रेडियोलॉजी में डिप्लोमा करने के बाद राहुल नौकरी की तलाश में मुंबई पहुंच गया. उसकी सामान्य-सी, शांत जिंदगी से कभी भी किसी को ऐसा कोई संकेत नहीं मिला जो ये बताता हो कि मरने के बाद इस युवक को ‘बिहार का मंगल पांडे’ कहकर सम्मानित किया जाएगा. एक ऐसा नायक, जिसने बिहार के सम्मान के लिए अपनी जान दे दी.
27 अक्टूबर को मुंबई की एक डबल डेकर बस में राहुल ने राज ठाकरे की चरम क्षेत्रीय राजनीति के खिलाफ बंदूक लहराने का दुस्साहस किया और पुलिस की गोलियों का निशाना बन गया. अपनी मौत के बाद राहुल उन दसियों लाख बिहारी युवाओं के लिए एक प्रेरणा स्तंभ बन गया जिनकी भावनाएं राज ठाकरे के उत्तर भारतीयों के खिलाफ शुरू किए हिंसक अभियान के चलते काफी समय से उबाल खा रहीं थीं. मुंबई में बिहारी समुदाय के प्रति अछूतों जसा बर्ताव और हिंसा की घटनाओं की वजह से पैदा हुई कुंठा और गुस्से के ज्वार ने जानकारों को ये कहने पर मजबूर कर दिया है कि भगवान बुद्ध के बिहार में एक नए किस्म का आतंकवाद सिर उठा सकता है.
स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिहार सरकार को राहुल के परिवार वालों से उसका अंतिम संस्कार रात्रि में कराए जाने का आग्रह करना पड़ा. राहुल के घर कदमकुंआ से गुलाबीघाट तक पूरी शव यात्रा के दौरान सैंकड़ो युवा ‘तुम्हारा बलिदान खाली नहीं जाएगा’ के नारे लगाते रहे. बिहार की जटिल सामाजिक स्थितियों की गहरी समझ रखने वाले समाजशास्त्रियों के मुताबिक युवाओं के बीच पैदा हुए इस आक्रोश को कोरी राजनीति कह कर झुठलाया नहीं जा सकता. राहुल के अंतिम संस्कार में जुटी भीड़ और उसके पहले राज्यभर में मनसे के खिलाफ भड़का विरोध का ज्वालामुखी काफी हद तक स्वत:स्फूर्त था.
सवाल उठता है कि आखिर किस चीज ने स्वभाव से गंभीर, पायलट पिता के पुत्र राहुल को बंदूक उठाने वाले एक प्रतिशोधी युवक में तब्दील कर दिया? आखिर कैसे नौकरी की तलाश में मुंबई गया राहुल, जिसका कोई थप्पड़ मारने जसा आपराधिक रिकॉर्ड तक नहीं था, राज ठाकरे के घृणा फैलाने वाले संकीर्ण क्षेत्रवादी अभियान की भेंट चढ़ गया? अब राहुल जिंदा नहीं है और हम शायद कभी ये नहीं जान सकेंगे कि जो कुछ उसने किया उसकी असल वजह क्या थी. लेकिन अगर 19 अक्टूबर को नालंदा के पवन की मनसे कार्यकर्ताओं द्वारा कथित हत्या के बाद से तोड़फोड़ पर उतारू बिहारी युवाओं के नजरिए से देखा जाए तो राहुल के ऐसा करने का औचित्य साफ-साफ नजर आ सकता है. हर तबके के युवाओं में इस बात का क्षोभ है कि राहुल को गिरफ्तार करने के बजाय उसे गोली क्यों मारी गई. उसके बाद महाराष्ट्र के नेताओं द्वारा पुलिस के कारनामे की प्रशंसा और उसे न्यायसंगत ठहराने की कोशिश ने उनके घावों पर और भी नमक छिड़का.
तहलका ने बड़ी संख्या में बिहारी युवाओं से बातचीत की और पाया कि लगभग सभी को इस बात पर पूरा यकीन था कि राहुल, राज ठाकरे की हरकतों की वजह से उसे मार डालना चाहता था. ऐसा प्रतीत होता है कि जसे राहुल की ‘असफलता’ ने सैंकड़ो ‘बहादुर बिहारी’ युवाओं के मन में ‘राहुल का सपना’ पूरा होते देखने की तीव्र इच्छा पैदा कर दी है. परिणाम ये कि बिहार में राज ठाकरे और आरआर पाटिल के पुतले फूंके जा रहे हैं और राहुल अब सिर्फ राहुल न रह कर बिहारी अस्मिता का प्रतीक और शहीद बन चुका है.
उत्तर भारतीयों विशेषकर बिहारियों के ऊपर महाराष्ट्रभर में हो रहे हमलों और उनकी मौत की खबरों को मीडिया द्वारा बार-बार दिखाए जाने से पूरे बिहार में न्याय की मांग बढ़ती जा रही है. ताजा हमलों की सूचना मिलने के बाद से उन बिहारी परिवारों में गुस्सा और निराशा बढ़ती जा रही है जिनके सदस्य वहां रोजगार में लगे हुए हैं. इससे और कई राहुल पैदा होने की संभावना बढ़ गई है’ बिहार के पूर्व डीजीपी डीपी ओझा कहते हैं.
एक ऐसा समुदाय जो दशकों से देश के अलग-अलग हिस्सों में सिर्फ बिहारी होने की वजह से लोगों के तानों और मजाक का पात्र बनता रहा हो उसके ऊपर हालिया हिंसक हमलों ने जसे सब्र का बांध तोड़ देने का काम किया है. ‘बिहारियों में विस्थापन की परंपरा रही है, इसके बावजूद वो अपनी संस्कृति को सहेज कर रखते हैं. इसने उन्हें एक आसान निशाना बना दिया है. तमाम विस्थापित समुदायों के विपरीत बिहारी अपने नए कामकाजी स्थानों पर स्थायी रूप से बसने की बजाय वापस बिहार लौट कर आते रहते हैं. इसकी और बिहार की जनसंख्या बढ़ने की वजह से, यहां कृषि, शिक्षा और दूसरे व्यावसायिक अवसर घटे हैं और विस्थापन में वृद्धि हुई है. इसने हितों के टकराव के लिए जमीन तैयार की है.’, वरिष्ठ समाजशास्त्री और एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के पूर्व निदेशक डा. एमएन कर्ण बताते हैं. डा. कर्ण के हालिया लेख ‘बिहारी बनने की जरूरत’ में बिहारियों के सामने खड़े पहचान के संकट को समझने की कोशिश की गई थी.
2005 में नितीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी जिसने बिहार के लोगों में 15 साल के ठहराव के बाद विकास की हल्की-सी उम्मीद जगाई. इस उम्मीद ने बिहारी उपराष्ट्रवाद की चर्चाओं को भी जन्म दिया. मगर विश्लेषकों की निगाह में ये विचार कभी भी मूर्त रूप इसलिए नहीं ले पाया क्योंकि बिहारी समाज जाति-समुदायों में बुरी तरह बंटा हुआ है. मगर अब बिहारी लोगों पर हमले बिहार के हर तबके को अपने में शामिल करने वाली एक नई पहचान को जन्म दे सकते हैं.
राहुल की मौत के दिन बिहार के तीन शीर्ष नेताओं – नीतिश कुमार, लालू यादव और रामविलास पासवान – ने दिल्ली में एक साझा प्रेस कान्फ्रेंस करके एमएनएस के खिलाफ अपनी एकजुटता का प्रदर्शन किया. ये एकजुटता थोड़े समय के लिए ही थी और अब राज ठाकरे के साथ-साथ राजनेताओं को भी एमएनएस की हिंसा की वजह बता कर उनकी खुल कर बिहार और बिहार के बाहर निंदा की जा रही है.
राजनीतिक विश्लेषक और पूर्व पत्रकार सुरेंद्र किशोर बिहारियों पर हो रहे हमले के लिए नीतिश कुमार और लालू यादव को ही पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराते हैं. ‘तीन बिहारी रेलमंत्रियों ने बिहारी लोगों को रेलवे में नौकरियां पाने में सहायता की. वोटबैंक की इस राजनीति ने महाराष्ट्र के लोगों के हितों को चोट पहुंचाई जिसके नतीजे में हालिया उग्र प्रतिक्रिया हुई है.’
किशोर के मुताबिक 2003 में सेंट्रल रेलवे की नौकरियों में जहां 48 फीसदी बिहारियों को चुना गया था वहीं इनमें महाराष्ट्र से केवल चार फीसदी लोग ही शामिल थे. किशोर बताते हैं, ‘बिहारी एलआईसी और बैंकों में इतनी नौकरियों पाने में सफल नहीं हुए लेकिन राजनीतिक समर्थन के एवज में उन्हें सरकारी नौकरियां बड़ी आसानी से मिलती रहीं. बिहार के नेता ही बिहारियों पर हो रहे हमलों की मूल वजह हैं.’
राहुल के पिता कुंदन कुमार सिंह उन बातों पर विश्वास करने को तैयार नहीं हैं जो उनके बेटे के बारे में कही जा रही हैं. वो सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं. नितीश कुमार ने भी सीबीआई जांच की मांग की है. इधर राज्यभर के युवा और छात्र संगठन एमएनएस के खिलाफ और राहुल की याद में हर दिन विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. आज बिहारी भावनाएं बुरी तरह से चोटिल हैं लेकिन राज ठाकरे और महाराष्ट्र शांति के रास्ते पर आगे बढ़कर उन घावों को भरने की कोशिश कर सकते हैं.