नियाभर में फैल चुका आर्थिक संकट अमेरिका में घर बनाने के लिए दिए गए बेहिसाब कर्ज के डूबने से शुरू हुआ. वहां के वित्तीय संस्थानों ने अपना व्यापार बढ़ाने के लिए पहले तो बिना सोचे-समझे कर्ज दिया. इसके बाद इन कर्जों को उन्होंने सही कर्जों के साथ मिला कर दूसरे वित्तीय संस्थानों को बेच दिया. अब चिंतामुक्त हो के इन पहले वाली संस्थाओं ने आंख मूंद के और भी कर्ज बांटना शुरू कर दिया. जब आंख मूंद कर दिए इस कर्ज की वापसी में समस्या आई तो ये संस्थाएं बुरी हालत में आने लगीं, इनके पास अपना कर्ज चुकाने के लिए पैसों के लाले पड़ने लगे. ये जान कर इन वित्तीय संस्थाओं के पास अपना पैसा जमा करने वालों ने इसे निकालना शुरू कर दिया. उदारीकरण के इस जुड़े हुए दौर में अमेरिका की ये समस्या पूरी दुनिया में निर्यात हो गई.
मगर भारत में हालात काफी हद तक काबू में हैं. आखिर क्या है इसकी वजह? और आगे का रास्ता क्या है? क्या भारत अपनी ही तरह की आर्थिक नीतियों पर चले या फिर धीरे-धीरे कर पूरी तरह से दुनिया के रंग में रंग जाए?
साठ साल का सार
आजादी के बाद छह दशकों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था छह अलग-अलग चरणों से गुजरती हुई आगे बढ़ी. पहला दौर था व्यवस्थित होने का. ये 1950 का दशक था. आजादी और इसके बाद बंटवारे की उथल-पुथल पीछे छूट चुकी थी और नीति-निर्माताओं के सामने देश को फिर से बनाने की चुनौती सिर उठाए खड़ी थी. उन दिनों भारत में ज्यादा कुछ नहीं बनता था. यहां तक कि हमें सुई भी विदेशों से मंगानी पड़ती थी.
फिर 60 का दशक आया. ये बुनियाद पड़ने का दौर था. जर्मनी, ब्रिटेन और तत्कालीन सोवियत संघ से तकनीकी मदद लेकर स्टील के नए कारखाने लगाए गए. विदेशी सहयोग से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) की स्थापना की गई. बेहतरीन अमेरिकी बिजनेस स्कूलों की मदद लेकर अहमदाबाद और कलकत्ता में भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम) खोले गए. आणविक ऊर्जा आयोग बना. जो अच्छे बीज उस समय रोपे गए थे उनके फलों का फायदा अर्थव्यवस्था आज भी उठा रही है.
इसके बाद आया 1970 का दशक. विदेशी मुद्रा की भारी कमी के चलते अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी. आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी हो गया. मशीनें और भारी उपकरण बनाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां बनाईं गईं. निजी कंपनियों से कहा गया कि सब कुछ अपने बूते करिए. अपने उत्पाद खुद डिजाइन करिए, अपनी मशीनें भी खुद बनाइए और अपने मजदूरों, इंजीनियरों और डिजाइनरों को प्रशिक्षण भी खुद ही दीजिए. यही वजह थी कि टाटा मोटर्स (तब टेल्को) को मशीनों और टूल एवं डाई बनाने के लिए नए संयत्र खोलने पड़े. इससे पहले कंपनी इन चीजों को आयात करती थी. भारतीय कंपनियों के लिए ये काफी मुश्किल दौर था क्योंकि काफी हद तक विदेशी सहयोग के बगैर उन्हें, अपने बूते बचे रहना, काम करना और कामयाब होना था.
1980 के दशक में राजीव गांधी के कमान संभालने के साथ अर्थव्यवस्था ने एक बार फिर से बाहर की तरफ देखना शुरू किया. विदेशी सहयोग की अनुमति देने में उदारता बरती जाने लगी. आटोमोबाइल क्षेत्र में जापानी कंपनियों का आगमन हुआ और उन्होंने इस क्षेत्र में काम कर रही देसी कंपनियों को हिलाकर रख दिया. उस समय तक भी घरेलू कंपनियों पर दिल्ली में बैठे नौकरशाहों का शिकंजा जारी था जो ये तय करते थे कि उनकी फैक्ट्रियों में क्या बनेगा और क्या नहीं. इसका एक दिलचस्प उदाहरण है. भारत आईं जापानी कंपनियों का मुकाबला करने के लिए टाटा मोटर्स ने सरकार से अपील की कि उसे हल्के ट्रक बनाने की इजाजत दी जाए. कंपनी का तर्क था कि आत्मनिर्भर बनने के लिए उसने कई सालों की कड़ी मेहनत के बाद डिजाइन और निर्माण संयंत्र लगाए हैं और उसे भारत में आने वाले विदेशियों से प्रतिस्पर्धा करने की इजाजत दी जानी चाहिए. नौकरशाह इसके लिए तैयार नहीं थे क्योंकि टाटा का लाइसेंस कहता था कि कंपनी अपने कारखाने में सिर्फ मीडियम साइज के ट्रक ही बना सकती है! आखिरकार टाटा को ये ट्रक बनाने की अनुमति मिल गई. मगर इसके साथ शर्त जोड़ी गई कि इसके लिए कोई भी कलपुर्जा बाहर से नहीं मंगाया जाएगा. मजे की बात ये है कि उनके जापानी प्रतिस्पर्धी ऐसा कर सकते थे.
तो अर्थव्यवस्था के दरवाजे कुछ इस तरह से खुल रहे थे और भारतीय कंपनियों की परीक्षा हो रही थी. टाटा मोटर्स इन परिस्थितियों में न सिर्फ बची रह सकी बल्कि उसने जापानी प्रतिस्पर्धियों को धूल भी चटा दी. मगर दूसरी भारतीय आटोमोबाइल कंपनियों की किस्मत इतनी अच्छी नहीं रही. प्रीमियर आटोमोबाइल और हिंदुस्तान मोटर्स जसे उस समय के दिग्गज मारुति-सुजुकी के हमले का मुकाबला नहीं कर सके और कुम्हला गए.
1991 में विदेशी मुद्रा संकट के बाद भारत सरकार को मजबूरी में उदारीकरण की राह पर कदम रखने पड़े. ये दरवाजे पूरी तरह से खुलने का दौर था. विदेशी कंपनियां पहले की तुलना में कहीं अधिक आसानी के साथ देश में व्यापार करने आ सकतीं थीं. दूसरी तरफ भारतीय कंपनियों के लिए लाइसेंस राज खत्म हो गया था. वे अपनी मर्जी से अपने उत्पादों, बाजारों और सहयोगियों का चुनाव कर सकतीं थीं. 2000 के बाद कायापलट की इस प्रक्रिया में तेजी आई. भारत में व्यापार की एक नई दुनिया उभर आई थी. पहले दुर्लभता से देखी जाने वाली चीजें मसलन विदेशी कारें, टीवी, घरेलू उपकरण अब सर्वसुलभ थीं. मध्य वर्ग की आय बढ़ गई. उसने दुनिया देखनी शुरू की. विदेशों में भारतीय आईटी कंपनियों की धूम मच गई. जीडीपी विकास दर दो अंकों की तरफ बढ़ने लगी. शेयर बाजार उड़ान भरने लगा. भारत उदय हो रहा था.
भारत उदय या इंडिया शाइनिंग के इस शोर के बीच 2004 में सत्ताधारी एनडीए ने जीत की संभावनाएं देखते हुए आम चुनाव का ऐलान कर दिया. मगर उसे मुंह की खानी पड़ी. इसकी वजह ये थी कि उसने सिर्फ स्टॉक मार्केट के सूचकांक को देखा और सीढ़ियों पर बैठे बदहाल भूखे लोगों को नहीं. इस तरह से आने वाली सरकार के लिए इस चुनाव परिणाम का सबक ये रहा कि विकास तभी सार्थक है जब इसका फायदा सब तक पहुंचे. यूपीए सरकार के जिस प्रधानमंत्री ने कभी वित्तमंत्री के रूप में उदारीकरण की नींव रखी थी वही अब कंपनियों के सीईओ से दिखावा कम करने और सामाजिक सरोकारों की तरफ ज्यादा ध्यान देने की सलाह दे रहा था. कॉरपोरेट्स और मीडिया जगत ने हल्ला मचाया कि प्रधानमंत्री समाजवादियों जैसी बातें कर रहे हैं. उन्होंने मांग की कि आर्थिक सुधार जारी रहें और निजी उद्योगों व विदेशी कंपनियों को और भी ज्यादा आजादी दी जाए. बैंकिंग और बीमा क्षेत्र के दरवाजे और भी खोलने की मांग की गई.
अब अक्टूबर 2008 पर आ जाएं. वही अमेरिकी वित्तीय कंपनियां जो कल तक भारत सरकार से कह रही थीं कि हमारे रास्ते से हट जाओ, अब अपना अस्तित्व बचाने के लिए अपनी-अपनी सरकारों से गुहार लगा रही हैं. लालची पूंजीवादियों को लेकर वहां गर्मागर्म बहस छिड़ी है और यहां भारतीय उद्योगपति नियामकों का शुक्रिया अदा कर रहे हैं जिन्होंने सावधानी बरतते हुए लगाम पूरी तरह से उतारकर नहीं फेंकी. हाल तक गरीब किसानों की कर्ज माफी के लिए सरकार पर समाजवादी होने का तंज कसने वाले पूंजीवाद के समर्थकों को आज तब कोई दिक्कत नहीं हो रही जब देनदारियां न चुका पाने के कारण दीवालिया हो चुके इनवेस्टमेंट बैंक लेहमैन ब्रदर्स को बचाने के लिए अमेरिकी सरकार ने आयकर दाताओं के कई सौ अरब डालर होम कर दिए हैं.
हालांकि जो हो रहा है उसके अपने सबक भी हैं. भारत में अब तक के अपर्याप्त आर्थिक विकास का ठीकरा सरकार पर फोड़ने और हालिया तेज विकास का सारा श्रेय निजी क्षेत्र को देने का चलन पिछले कुछ साल में आम हो चला था. उद्योगपति अक्सर गर्व से दावा करते दिखाई देते थे कि सरकार को रास्ते से हटाइए और देखिए हम क्या कर सकते हैं. टेल्कॉम के क्षेत्र में मिली अभूतपूर्व सफलता को इसके उदाहरण के तौर पर गिनाया जाता था. सीआईआई के एक पूर्व अध्यक्ष ने तो यहां तक कह दिया कि भारतीय अर्थव्यवस्था तभी काम करती है जब सरकार सो जाए.
मगर अब साफ हो चुका है कि कहानी इतनी सीधी नहीं है. इसमें कई पेंच हैं. उद्योग से जुड़े लोगों को ये नहीं भूलना चाहिए कि जिस आजादी का आज वो आनंद ले रहे हैं वो राजनेताओं की वजह से ही है. और इसके लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोलकर उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन पर बड़े खतरे मोल लिए हैं. इसके अलावा उदारीकरण के बाद अगर भारतीय आईटी कंपनियों ने दुनियाभर में अपना लोहा मनवाया तो ऐसा इसीलिए हो पाया कि सरकार ने अतीत में ही इस सफलता के लिए बुनियादी काम कर रखे थे. उदाहरण के लिए आईटी कंपनियों के लिए प्रशिक्षित इंजीनियर आईआईटी ने पैदा किए. फार्मा, ऑटो पार्ट्स, इंजीनियरिंग जसे क्षेत्रों में अगर भारतीय कंपनियों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना सिक्का जमाया तो इसके पीछे वजह यही थी कि अपने क्षेत्र में उनका ज्ञान चीन जैसे दूसरे विकासशील देशों की कंपनियों से कहीं गहरा था. ये दक्षता उनमें इसलिए आ सकी क्योंकि सरकार ने उन्हें 70 और 80 के दशक में आत्मनिर्भर होने के लिए प्रोत्साहित किया.
कुछ विद्वानों की मानें तो पूंजीवाद बनाम समाजवाद की बहस सोवियत संघ के पतन और पूंजीवाद के अमेरिकी संस्करण की जीत के साथ ही खत्म हो गई थी. मगर हाल की घटनाओं ने इसे फिर से जिंदा कर दिया है. ये सवाल उठ रहा है कि सरकार अपनी भूमिका किस तरह निभाए कि आर्थिक विकास की प्रक्रिया में कोई रुकावट न आए और इसके फायदे भी सभी तक पहुंचें? क्या सरकार इस मुद्दे को पूरी तरह से बाजारवादी ताकतों के हवाले कर दे?
सरकारी बनाम निजी क्षेत्र की लड़ाई का सरोकार विश्वास से है. सवाल ये है कि अपने हितों का समुचित ध्यान रखने के लिए लोगों को किस पर यकीन करना चाहिए? आजादी के बाद के कुछ दशकों तक निजी क्षेत्र में नौकरी को बहुत अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था. निजी क्षेत्र की कंपनियों में पैसा भले ही अधिक था मगर इज्जत सरकारी नौकरी की ज्यादा थी. छात्रों की नजर में सरकारी नौकरी के मायने देश को बनाने के लिए अपना कंधा लगाने से थे जबकि प्राइवेट नौकरी का मतलब था साबुन और सिगरेट बेचकर ज्यादा से ज्यादा कमाई करना. मैनेजमेंट के जिन छात्रों से आज मेरा संवाद होता है उनमें से कोई भी सरकारी सेवा में नहीं जाना चाहता. निजी क्षेत्र की ऊंची तनख्वाहें और सरकारी सेवा के लिए आदर की कमी को वे इसकी वजह गिनाते हैं. उन दिनों लोग निजी क्षेत्र की बजाय सरकार पर भरोसा करते थे. अक्सर सुनने को मिल जाया करता था कि सरकारी स्कीम है तो ठीक ही होगी. हालांकि टाटा जैसे कुछेक अपवाद जरूर थे. जेआरडी टाटा ने एक बार कहा था कि जब भी उन्होंने देश की भलाई के लिए कोई काम किया तो इससे उनका भी भला हुआ. ठीक इसके उलट बात उनसे कुछ साल पहले जनरल मोटर्स के चेयरमैन ने की थी जिनका कहना था कि जो जनरल मोटर्स के लिए अच्छा है वही अमेरिका के लिए भी अच्छा है.
मगर इस भरोसे के बावजूद जनता तक सुविधाएं पहुंचाने के मामले में सरकारों का प्रदर्शन बहुत खराब रहा. उदारीकरण के बाद निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ी और लोगों को इससे फायदा हुआ. नतीजतन उनका भरोसा अब सरकार से ज्यादा निजी क्षेत्र में हो गया. मगर शहरी मध्यवर्ग में हुए हालिया सर्वेक्षण बताते हैं कि लोग अभी भी इन बुनियादी सुविधाओं को निजी हाथों में दिए जाने के लिए तैयार नहीं हैं. उनके मुताबिक उनका डर ये है कि निजी क्षेत्र का ध्यान सामाजिक सरोकारों से कहीं ज्यादा लाभ कमाने पर होगा.
उद्योग जगत के खिलाड़ी चाहते हैं कि उन्हें और भी आजादी दी जाए. इसके लिए विश्वास जीतना बहुत जरूरी है. अमेरिका में वित्तीय संस्थाओं के मुखियाओं से लोगों का भरोसा उठ चुका है. एनरॉन जसे उदाहरणों की वजह से का¬रपोरेट लीडर्स पर तो उन्हें पहले से ही विश्वास नहीं रहा था. ये अवश्यंभावी था क्योंकि जब हानिकारक न लगने वाले प्रबंधन के दो सिद्धांत आपस में मिलते हैं तो नतीजा बहुत विस्फोटक होता है. पहला सिद्धांत ये है कि कॉरपोरेट लीडर्स को अपना व्यापार और लाभ बढ़ाना चाहिए और सामाजिक सरोकारों की वजह से अपना ध्यान विचलित नहीं करना चाहिए. दूसरा सिद्धांत ये है कि कॉरपोरेट कंपनी के किसी कर्मचारी का हित पूरी तरह से उसकी कंपनी के वित्तीय प्रदर्शन से बंधा होता है. बाजारवाद के इस दौर में हर तिमाही में वित्तीय प्रदर्शन की समीक्षा होती है और फिर उसके हिसाब से कर्मचारी को फायदे यानी इंसेंटिव्स मिलते हैं. ऐसे में अगर उस कर्मचारी को इससे कोई सरोकार ही न हो कि उसके काम का उसके समाज पर क्या असर हो रहा है तो इसमें हैरानी की बात क्या है. क्योंकि जिस व्यवस्था से वह बंधा हुआ है वह उससे इस बात की अपेक्षा ही नहीं करती. इसका नतीजा ये होता है कि समाज अपने कल्याण के लिए ऐसे लोगों पर भरोसा नहीं कर सकता. नतीजतन वह व्यवस्था भी भरोसे के काबिल नहीं होती जो इस तरह के लोगों से मिलकर बनती है.
आर्थिक विकास का भारतीय मॉडल
हम पूंजीवाद और समाजवाद की पुरानी बहस में अटके नहीं रह सकते. हमारा आर्थिक विकास कैसे हो इस दिशा में मार्गदर्शन के लिए हमें सारी दुनिया से अलग एक नया और बेहतर दर्शन खोजने की जरूरत है. इसी बात पर विचार करने के लिए कुछ साल पहले अलग-अलग क्षेत्रों के सरोकारी लोग आपस में मिले. इनमें अर्थशास्त्री, वरिष्ठ सरकारी अधिकारी, पत्रकार, कलाकार, व्यापारी, शिक्षक, छात्र, नेता और दूसरे लोग शामिल थे. दरअसल 1980 का दशक आते-आते देश का विकास पहले की तुलना में तेज गति से तो होने लगा था मगर इसके बावजूद ये रफ्तार इतनी तेज नहीं थी कि गरीबी और कमजोर बुनियादी ढांचे जसी समस्याएं जल्द खत्म हो जाएं. इन सभी लोगों ने अपनी-अपनी समझ मिलाई और ये जानने की कोशिश की कि किस परिस्थिति विशेष के पीछे कौन से सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक कारक किस तरह से काम कर रहे हैं. इसके बाद उन्होंने भारत की चार तस्वीरें बनाईं जो भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य की झलक थीं. इनमें भारत के विकास और उसके लिए जरूरी नेतृत्व के लिए चार वैकल्पिक मॉडल छिपे थे. कहा भी जाता है कि एक तस्वीर में 1000 शब्दों से ज्यादा संप्रेषण क्षमता होती है.
पहली तस्वीर पोखर में नहाती भैंसों की है. भारत में ज्यादातर गांवों में आपको ये नजारा दिख जाएगा. पोखर में तैरती किसी भैंस के लिए हिलना-डुलना मुश्किल होता है क्योंकि वो दूसरी भैंसों से घिरी होती है. इस तरह के परिदृश्य में नीतियां तय करने और जरूरी बदलाव लाने की जिम्मेदारी कई नौकरशाहों और विशेषज्ञों के हाथ में होती है. मगर उन सब में किसी बात को लेकर सहमति नहीं बन पाती. एक कोई बात कहता है तो दूसरा उसका विरोध करता है. इस चक्कर में ज्यादा कुछ नहीं हो पाता. इस बीच देश में लोग, खासकर वे जिन्हें कुछ समय बाद नौकरी की जरूरत होगी, विकास का इंतजार करते रहते हैं. काफी हद तक ये तस्वीर 1990 के दशक के अंत तक भारत की प्रगति को दर्शाती है.
दूसरी तस्वीर खुले बाजार की कहानी को दर्शाती है जिसमें सरकार सब कुछ बाजारवादी ताकतों पर छोड़ देती है. इस तस्वीर में एक महिला है जो अपने दालान में छोटी-छोटी गौरेयाओं को दाना खिला रही है. कुछ कबूतर आते हैं और गौरयाओं को हटा देते हैं. फिर एक मोर आता है और कबूतर हट जाते हैं. बाकी सारी चिड़ियाएं मोर के बड़े आकार और उसकी सुंदरता की तारीफ करती हैं. छोटी गौरेयाएं उम्मीद करती हैं कि मोर का पेट भर जाने के बाद उनके लिए कुछ बच जाएगा. अगर आज नहीं तो कल सही. ये तस्वीर बताती है कि सब कुछ बाजार के हवाले करने का क्या अंजाम होता है. दुनिया के सबसे बड़े धनकुबेरों में भारत के भी कई नाम शामिल हो गए हैं. वहीं दूसरी ओर देश में करोड़ों लोग ऐसे भी हैं जिन्हें पता ही नहीं कि उन्हें अगली बार खाना कब नसीब होगा. सवाल उठता है कि क्या ऐसी व्यवस्था को सफल कहा जा सकता है जिसका नतीजा मुट्ठीभर लोगों के पास अकूत दौलत और आबादी के बड़े हिस्से के भुखमरी का शिकार होने के रूप में सामने आता हो?
तीसरी तस्वीर में मुट्ठी भर लोगों के हाथों में रहने वाली ताकत के उपयोग और दुरुपयोग की कहानी छिपी हुई है. इस तस्वीर में एक बाघ और कुछ शिकारी भेड़िए हैं. बाघ मनमर्जी से चलता है और किसी की परवाह नहीं करता. उसके चारों तरफ मौजूद भेड़िए असहाय छोटे जानवरों का शिकार करते रहते हैं. ये हिंसा का डर दिखाकर राज कर रहे नेतृत्व और उसके करीबियों द्वारा जनता के शोषण को दर्शाती है.
चौथी तस्वीर कुछ अलग है. ये दर्शाती है कि भारत जसा जटिल और विविधताओं से भरा समाज किसी एक केंद्र से नियंत्रित नहीं किया जा सकता. इसमें बदलाव उन लाखों लोगों द्वारा लाया जाएगा जो केंद्र में किसी शक्तिशाली नेतृत्व के उभरने का इंतजार करने के बजाय अपने-अपने केंद्र से कोई परिवर्तनकारी पहल करेंगे. ये भारत के देहात में गर्मियों की एक अंधेरी रात की तस्वीर है जिसमें पहले कुछ छोटे-छोटे जुगनू प्रकट होते हैं. धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ने लगती है और रात काअंधेरा उनकी रोशनी की चमक के आगे दम तोड़ता दिखने लगता है. देखा जाए तो सबसे पहले पहुंचने वाले जुगनू पहल करने वाले वे लोग हैं जो नई राह बनाते हैं और दूसरों को उस पर चलने की प्रेरणा देते हैं.भारत की तसवीर के अंधेरे हिस्से में ऐसे कई शुरुआती जुगनू पहुंच चुके हैं. अमूल का ही उदाहरण लीजिए जिसने लाखों गरीब पशुपालकों की जिंदगी बदल दी है. इस सहकारी संस्था के डेयरी उत्पाद आज बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पसीने छुड़ा रहे हैं. ऐसे कई संगठन आज अपने-अपने स्तर पर देश की तस्वीर बदलने में लगे हैं.
दरअसल देखा जाए तो आज के भारत में आपको इन चारों तस्वीरों की कुछ-कुछ झलक मिल जाएगी. इन परिदृश्यों को विकसित करने वाले समूह के विश्लेषण के मुताबिक चौथे परिदृश्य को पैदा करने के लिए एक स्वस्थ आर्थिक नीति के अलावा पांच और दिशाओं में काम किया जाना चाहिए. ये हैं:
नई तकनीक की मदद से बच्चों और महिलाओं में उनके लिए उपयोगी ज्ञान का विस्तार
स्थानीय पहल को सम्मान.
आधारभूत ढांचे की मजबूती
योग्यताओं और नेतृत्व के नए मा¬डलों का विकास
सफलता की कहानियों का प्रचार और आत्मविश्वास का निर्माण
मौजूदा वित्तीय संकट को जल्द से जल्द हल किए जाने की जरूरत है. उम्मीद है ऐसा हो सकेगा हालांकि कहीं-कहीं पर आग अभी कुछ समय तक सुलगती रहेगी. अगले कुछ महीनों में भारतीय अपनी पसंद की सरकार चुनने के लिए एक बार फिर से वोट करेंगे. सरकार कोई भी आए, लोगों का भरोसा और आदर फिर से पाने के लिए उसे सबसे पहले अपना घर दुरुस्त करना होगा. सरकारों और राजनीतिक पार्टियों, दोनों के लिए लोकतंत्र, पारदर्शिता, कार्यकुशलता और अच्छे मूल्य बहुत जरूरी हैं. जो भी सरकार बनती है उसे उद्योग जगत के साथ मिलकर ऐसा माहौल बनाना होगा कि करोड़ों जुगनू चमक उठें और अंधियारा, चाहे वो किसी भी कोने में हो, रोशनी में बदल जाए.
लेखक विश्व के जानेमाने परामर्शदाता समूह बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप के पूर्व चैयरमैन और वर्तमान में वरिष्ठ सलाहकार हैं