बॉलीवुड में नारी शक्ति

पॉलिएस्टर की सफेद पतलून और उससे मेल खाते जूते पहने काम पर लगे अजीब से मर्दों की भीड़..दस साल पहले तक अगर आप किसी हिंदी फिल्म के सेट पर जाते तो नजारा कुछ यही होता. सिनेमेटोग्राफर, साउंड डिजाइनर, लाइटिंग एक्सपर्ट.. हर काम में सिर्फ पुरुष टेक्नीशियंस की मौजूदगी. फिल्म की हीरोइन अपनी वैनिटी वन में होती थी और सेट पर महिला चेहरों के नाम पर अगर कुछ होता था तो सिर्फ हेयर ड्रेसर्स.

मगर 10 साल में काफी कुछ बदल गया है. महिला टेक्नीशियंस अब उतनी दुर्लभ नहीं रहीं. कुछ समय पहले आई फिल्म हनीमूल ट्रैवल्स की निर्देशिका रीमा कागती की तकनीकी टीम में तो महिलाओं की अच्छी-खासी संख्या है. कुछ ऐसा ही जोया अख्तर के साथ भी है जिनकी फिल्म ‘लक बाई चांस’ अगले साल की शुरुआत में रिलीज होने वाली है.

हिंदी फिल्म उद्योग में महिला प्रोफेशनल्स को आज हर जगह देखा जा सकता है. 40 साल की मिरियम जोसेफ का ही उदाहरण लें. जोसेफ, फरहान अख्तर और रितेश सिधवानी की कंपनी एक्सेल इंटरनेनमेंट प्राइवेट लिमिटेड में एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर हैं. वो कहती हैं, ‘मेरे काम में शुरुआती तैयारी से शूटिंग तक और शूटिंग से फाइनल प्रोडक्ट देने तक सब कुछ शामिल होता है. यहां तक कि चीखना-चिल्लाना भी. हर किसी की जरूरतें मसलन लाइट्स, साउंड, कास्ट्यूम्स आदि प्रोडक्शन पर ही निर्भर होती है इसलिए अगर प्रोडक्शन टीम ने पूरी तैयारी कर रखी है तो झंझट काफी कम हो जाता है.’

स्क्रिप्ट सुपरवाइजर और प्रोडक्शन डिजाइनर जैसे पदों का चलन इंडस्ट्री में आ रहे नए पेशेवराना रवैये का संकेत है.

मिरियम बताती हैं कि छोटी से छोटी चीज तक पर काफी मेहनत की जाती है. वो कहती हैं, ‘किसी शॉट के लिए किस तरह के लेंस का इस्तेमाल होगा ये आपको निर्देशक से तीन महीने पहले ही सोचना पड़ता है.’ जोसेफ के साथ कई असिस्टेंट डायरेक्टर काम करते हैं और शूटिंग शुरू होने से पहले उनकी टीम को कम से कम पांच बार पूरी स्क्रिप्ट पढ़नी पड़ती है.‘16 दिसंबर’, ‘अग्निवर्षा’ और ‘स्प्लिट वाइड ओपन’ जसी फिल्मों में काम कर चुकीं और इन डेप्थ एंटरटेनिंग आर्ट्स नामक कंपनी में एक्जीक्यूटिव प्रोडच्यूसर 37 साल की अरुणिमा रॉय इससे सहमति जताते हुए कहती हैं, ‘स्क्रिप्ट आपकी उंगलियों पर होनी चाहिए वरना आपको बहुत दिक्कत हो सकती है. उदाहरण के लिए यदि कोई शॉट निर्धारित दिन फिल्माया नहीं जा रहा और इसके बजाय अगर आपको आगे का कोई शॉट फिल्माना हो तो आप कैसे करेंगे.’ रॉय के मुताबिक उनके काम में बजट की योजना बनाना और अलग-अलग तरह के लोगों से निपटना शामिल है.

अहम के टकराव के बीच काम करना फिल्म उद्योग का आम दुस्वप्न है. कई फिल्मों में सहायक निर्देशक और लाइन प्रोडयूसर के रूप में काम कर चुकीं 34 वर्षीय दीपिका गांधी कहती हैं, ‘आप हमेशा लोगों का गुस्सा शांत करने में लगे रहते हैं. बतौर फर्स्ट असिस्टेंट डायरेक्टर मैं कई बार निर्देशक और सिनेमेटोग्राफर के गुस्से के बीच फंस चुकी हूं. ऐसी हालत में आपको मसला सुलझना होता है.’ दीपिका मानती हैं कि स्क्रिप्ट सुपरवाइजर और प्रोडक्शन डिजाइनर जैसे पदों का चलन इंडस्ट्री में आ रहे नए पेशेवराना रवैये का संकेत है.

शायद यही नयापन भी एक वजह है कि फिल्म निर्माण की पढ़ाई करने के बाद अब महिलाएं उन क्षेत्रों में भी जा रही हैं जिनमें परंपरागत रूप से सिर्फ पुरुषों का बोलबाला रहा है. उदाहरण के लिए सिनेमेटोग्राफी और साउंड डिजाइन. 32 वर्षीय सिनेमेटोग्राफर पूजा शर्मा कहती हैं, ‘हमारे काम का कोई निश्चित समय नहीं होता. पर ये विकल्प हमने खुद चुना है.’

महिला होने की अपनी चुनौतियां हैं. उदाहरण के लिए काम के दौरान पहनने के लिए ठीक से कपड़ों का चयन. बाकी महिला टेक्नीशियंस की तरह पूजा भी इस बात का ख्याल रखती हैं कि उन्हें सेट पर किस तरह के कपड़े पहनने हैं. वो कहती हैं, ‘मैं कारगो और डार्क टी-शर्ट पहनती हूं. सेट पर कई तरह के लोग होते हैं जो आप पर छींटाकशी कर सकते हैं इसलिए मैं टाइट कपड़े नहीं पहनती. इस क्षेत्र में महिलाओं के आने के बावजूद हमारी संख्या अब भी कम है. इसलिए आपको ये संकेत देना होता है कि आप छोटी-सी भी बदतमीजी को बर्दाश्त नहीं करेंगी.’

महिलाओं के लिए एक चुनौती और भी है. अक्सर पुरुषों को ये पसंद नहीं होता कि कोई महिला उन पर हुक्म चलाए. तिगमांशु धूलिया की अगली फिल्म में काम कर रहीं पूजा कहती हैं, ‘कभी-कभी लाइटब्वॉयज किसी दूसरे पुरुष की बात तो सुनते हैं मगर आपकी सुनकर भी अनसुनी कर देते हैं.’

हालांकि रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘फूंक’ में डायरेक्टर ऑफ फोटोग्राफी रह चुकी 28 साल की सविता सिंह के मुताबिक उनका अनुभव उम्मीद से बेहतर रहा. वो कहती हैं, ‘मैंने सुना था कि मुंबई में बहुत भेदभाव होता है मगर जब मैं यहां आई तो मैंने पाया कि मुझे अपना काम गंभीरता से करते देखकर लोगों को प्रसन्नता भरी हैरत होती है. मेरा मुकाबला सबके साथ है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो पुरुष है या महिला.’

महिलाओं के लिए एक चुनौती और भी है. अक्सर पुरुषों को ये पसंद नहीं होता कि कोई महिला उन पर हुक्म चलाए.

वैसे अगर कोई भेदभाव हो भी तो 34 वर्षीय साउंड डिजाइनर आमला पोपुरी इसका मुकाबला करने के लिए दृढसंकल्प हैं. आने वाली चर्चित फिल्म ‘गजनी’ के लिए ऑन लोकेशन साउंड करने वाली और ‘सांवरिया’, ‘आमू’ और ‘मिक्स्ड डबल्स’ जसी फिल्मों में काम कर चुकीं पूजा कहती हैं, ‘कैमरा परसन या फिर साउंड डिजाइनर होना अपने आप में काफी चुनौतीभरा काम है क्योंकि महिलाओं को तो टेक्नीशियंस समझ ही नहीं जाता.’ सात किलो तक वजनी मिक्सर और माइक को खुद ही उठाकर शॉट की जरूरत के हिसाब से इधर-उधर ढोने वाली आमला कहती हैं, ‘आपको अपना काम करते रहना होता है. अगर आप भेदभाव पर ध्यान देंगी तो आपके लिए मुश्किल होगी.’ 

कई महिला पेशेवरों के लिए चुनौतियों भरा शेड्यूल दिल में जोश भरने का काम करता है. ‘मिक्स्ड डबल्स’ और ‘भेजा फ्राई’ जसी फिल्मों से जुड़ी रहीं 37 वर्षीय मीनल अग्रवाल कहती हैं, ‘प्रोडक्शन डिजाइन टीम लोकेशन पर सबसे पहले पहुंच जाती है और शूट के बाद भी सब कुछ समेटने के लिए वहां पर रुकी रहती है. हमारा काम ये सुनिश्चित करना होता है कि फिल्म में एकरूपता हो.’ मीनल को कई बार बढ़ई, पेंटर्स और दूसरे मजदूरों के साथ काम करना होता है मगर उन्हें कभी भी अपने महिला होने की वजह से कुछ अजीब नहीं लगता. हालांकि वो कहती हैं, ‘कुछ सेट्स पर अगर पुरुष बहुत ज्यादा हों उनकी बातें सुनकर लगता है जसे आप ब्वॉयज हॉस्टल में हों.’

मगर देश की एकमात्र लाइट डिजाइनर 23 वर्षीय हेतल देधिया को इस तरह की कोई समस्या नहीं ङोलनी पड़ेगी. उनके पिता मूलचंद देधिया देश के सबसे बढ़िया लाइट डिजाइनर्स में से एक हैं. ‘ब्लफमास्टर’ और ‘लक बाइ चांस’ में अपनी प्रतिभा दिखा चुकीं और फिलहाल एड फिल्म्स के लिए स्वतंत्र रूप से काम कर रहीं दुबली-पतली हेतल न सिर्फ 60 फीट ऊंचे स्कैफफोल्डर्स पर चढ़ सकती हैं बल्कि भारी लाइट्स भी ढोकर ले जा सकती हैं. वो कहती हैं, ‘कई महिलाएं लाइटिंग डिजाइन में नहीं आना चाहतीं क्योंकि ये कुछ ज्यादा ही मर्दाना काम है.’ हेतल के मुताबिक उन्हें दिल को छू लेने वाली सबसे अच्छी टिप्पणी एक पुरुष डांसर से मिली जिसका कहना था कि हेतल को काम करते देख उसे अपनी तुच्छता का अहसास हुआ. उस डांसर को लगा कि हेतल कितनी मेहनत वाला काम कर रही हैं और वो सिर्फ डांस कर रहा है.

महिला पेशेवरों की ये नई पीढ़ी बॉलीवुड में बदलाव की बयार ला रही है. इसके संकेत सेट्स पर दिख जाते हैं जहां अब पालिएस्टर की पतलून और उससे मेल खाते जूते पहने अजीब से लोग अब ज्यादा नहीं दिखते.’