पिछले कुछ दिनों से महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) महाराष्ट्र की राजनीति पर छाई हुई है. जिस दिन राज ठाकरे को अदालत में पेश किया गया उस दिन सैकड़ों बसों को आग के हवाले कर दिया गया, करोड़ों की सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया और मुंबई में रहने वाले उत्तर भारतीयों पर कई हमले भी किए गए. मीडिया ने मराठी लोगों को राज ठाकरे के साथ एकजुटता प्रदर्शित करते हुए दिखाया. महाराष्ट्र के पढ़े-लिखे तबके ने हालांकि हिंसा की निंदा की मगर सिद्धांतत: वो राज ठाकरे से सहमत दिखे.
इस पूरे तमाशे ने मुझे ये सोचने पर विवश किया कि क्या पिछले चालीस सालों में वाकई में कुछ बदला है. 1970 में शिवसेना और बाल ठाकरे ठीक वैसा ही राजनीतिक खेल खेल रहे थे जैसा आज राज ठाकरे खेल रहे हैं. तब कम्युनिस्ट पार्टियों से मिल रही कड़ी चुनौती का सामना करने के लिए कांग्रेस ने बाल ठाकरे का खुल के इस्तेमाल किया था और आज वही पार्टी शिवसेना से निपटने के लिए राज ठाकरे का इस्तेमाल कर रही है.
ये भी अजीब ही है कि न तो कांग्रेस और न ही ठाकरे परिवार को इस्तेमाल करने वाली इसकी रणनीति में ही कोई बदलाव आया है.
ये भी अजीब ही है कि न तो कांग्रेस और न ही ठाकरे परिवार को इस्तेमाल करने वाली इसकी रणनीति में ही कोई बदलाव आया है. अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए कांग्रेस किसी को भी बढ़ाने-चढा़ने के लिए हमेशा ही कुख्यात रही है. मराठी भाषा और इसे बोलने वालों का हाशिए पर जाना हमेशा ही यहां के लोगों की दुखती रग रहा है. लेकिन इसे दूर करने के बजाय कांग्रेस-एनसीपी सरकार इसे अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही है. दरअसल चुनाव सर पर हैं और इस बार शिवसेना का पलड़ा न केवल महाराष्ट्र के शहरी बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी भारी लग रहा है. पिछले कुछ समय में शिवसेना को मिलने वाले समर्थन में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई है और मनसे कम से कम शहरी इलाकों में तो शिवसेना के वोटों को विभाजित कर उसे नुकसान पहुंचाने वाला एक अमोघ अस्त्र साबित हो सकता है. ये नुकसान बड़ा होगा क्योंकि चुनाव क्षेत्रों के पुनर्निर्धारण के बाद मुंबई, पुणे और थाणे जिले चुनावों में एक बड़ी भूमिका अदा करने वाले इलाके बन गए हैं.
सरकार द्वारा राज ठाकरे पर उनके भड़काऊ भाषणों के लिए सही कार्रवाई न किया जाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. उन्हें गिरफ्तार करके मुंबई में किसी हीरो की तरह लाया गया. मुंबई में उनका प्रवेश किसी आरोपी के जैसा नहीं था बल्कि हाथ हिलाकर अपने समर्थकों का अभिवादन स्वीकार करते वक्त वो किसी राजा-महाराजा जसा बर्ताव कर रहे थे. जमानत मिलने के बाद जब वो कार में बैठ रहे थे तो उनके लिए कार का दरवाजा मुंबई पुलिस के एक एसीपी ने खोला. सरकार ने उनपर आईपीसी की केवल जमानती धाराएं लगाने के साथ-साथ ये सुनिश्चित करने के हरसंभव प्रयास किए कि राज ठाकरे को तनिक भी असुविधा न हो. इस दौरान ठाकरे को सीख देने को लेकर सरकार की अनिच्छा और पुलिस अधिकारियों का उनके प्रति सम्मान खुल कर नजर आ रहा था.
निम्न मध्यमवर्गीय मराठी युवा पूरी तरह से राज ठाकरे के साथ हैं. हालांकि ऐसा नहीं है कि उन्हें हर-एक का समर्थन प्राप्त हो लेकिन जिनका नहीं है वो कुछ बोलने की स्थिति में नहीं हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि स्थानीय मराठी लोगों में एक तरह के अन्याय की भावना घर कर गई है जिसका सही तरीके से निराकरण किया जाना जरूरी है. देश की आर्थिक राजधानी होने की वजह से मुंबई पैसे की भाषा बोलती-सुनती है मगर वैश्वीकरण के इस दौर में मराठी बोलने वाले लोग हाशिए पर पहुंच गए हैं. औद्योगीकरण के बाद के दौर की आज की मुंबई, सस्ते बिहारी कामगारों को प्राथमिकता देती है जिसके फलस्वरूप जो यहां के भूमिपुत्रों को महसूस हो रहा है वो पूरी दुनिया की कहानी है. और बाहर से आने वालों की वजह से स्थानीय संस्कृति और भाषा पर खतरा मंडराता अलग से प्रतीत होता है. मगर सरकार इसका कोई हल निकालने के बजाय राज ठाकरे जसे लोगों को खुली छूट दे रही है.मुंबई और महाराष्ट्र में आज जो हो रहा है उसका समाधान हालांकि थोड़ा मुश्किल जरूर है मगर असंभव नहीं. इसके लिए सरकार को कानून और व्यवस्था का पालन करवाने को लेकर दृढ़ता दिखानी होगी, मीडिया को थोड़ा संतुलित नजरिया अपनाना होगा और लोगों को राष्ट्रीय एकता की भावना का प्रदर्शन करना होगा. मेरा मन कहता है कि अगर हम सब मिल जाते हैं तो ऐसा करना कतई असंभव नहीं है.
निखिल वागले
(लेखक आइबीएन लोकमत के संपादक हैं)