चुनावी प्रचार में अघोषित ख़र्च की अति

बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के सीवान के जसौली में जनसभा को संबोधित करते हुए कहा कि बाबा साहेब आंबेडकर का अपमान करके राजद और कांग्रेस के लोग ख़ुद को उनसे बड़ा दिखाना चाहते हैं। इनके मन में दलित, महादलित, पिछड़े, अति पिछड़े के प्रति कोई सम्मान नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने 5,900 करोड़ की 28 योजनाओं का शिलान्यास, उद्घाटन किया और इसके साथ ही दो नयी रेलगाड़ियों की सौग़ात भी बिहार को दी। ग़ौरतलब है कि कुछ ही महीनों बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। प्रधानमंत्री मोदी इस चुनाव में जीत के लिए कई रैलियाँ आयोजित कर चुके हैं और चुनाव होने तक वह ऐसा करते रहेंगे। जसौली में 20 जून की रैली में काफ़ी भीड़ होने का दावा सरकार की ओर से किया जा रहा है और इधर एक वीडियो सोशल मीडिया पर वहाँ कैसे भीड़ को जमा किया गया। इस बाबत वायरल वीडियो में एक रिपोर्टर महिलाओं से भरी बस में उनसे बात करता है, तो महिलाएँ बताती हैं कि वे गोपालगंज की आँगनबाड़ी सेविकाएँ हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें आदेश मिला है कि सारी आँगनबाड़ी सेविकाएँ आम पब्लिक बनकर इस रैली में जाएँगीं। अपनी वर्दी में नहीं जाएँगी। वहाँ उन्हें आम भीड़ का हिस्सा बनना है।’

इन महिलाओं ने अपने नाम तक बताये और एक ऐसी सच्चाई फिर से सामने रख दी कि राजनीतिक दल चाहे वह सत्ताधारी हों या विपक्षी रैलियों व अन्य कार्यक्रमों में भीड़ को इकट्ठी करने के लिए क्या-क्या तरीक़े अपनाते हैं। यहाँ पर एक सवाल यह भी उठता है कि भाजपा व उसका प्रचार तंत्र प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के बखान करने में कोई क़सर नहीं छोड़ता, तो अगर यह सच है, तो भीड़ तो ख़ुद ही जुटनी चाहिए। सरकारी आदेश, सरकारी तंत्र का इस्तेमाल इस काम के लिए करना उस लोकप्रियता के दावों पर सवाल तो खड़े करता ही है। दरअसल, खुली ज़मीन पर राजनीतिक रैलियों के लिए भीड़ जुटाने के ज़रिये अपनी राजनीतिक ताक़त का प्रदर्शन करना आसान काम नहीं है। गाँवों और क़स्बों से अपने घरों से लोगों को रैली स्थल तक लाना बाएँ हाथ का काम नहीं है।

ग़ौरतलब है कि राजनीतिक दल रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए अक्सर कई तरीक़े अपनाते हैं। इसमें सम्बन्धित राजनीतिक दल के कार्यकर्ता, राज्य स्तर व ज़िला स्तर के दल पदाधिकारियों का बैठकों के ज़रिये लोगों से संपर्क साधना, मुफ़्त परिवहन व भोजन की व्यवस्था आदि करना। यही नहीं, वे लोग भीड़ इकट्ठी करने का काम करने वाली एजेंसियों की भी सेवाएँ लेते हैं और उन्हें इसके बदले मोटी रक़म दी जाती है। ऐसी एजेंसियों का जाल देशभर में फैला हुआ है। उनके काम करने के अपने तरीक़े हैं, जैसे मज़दूर चौकों से मज़दूरों को उनकी दिहाड़ी देकर रैलियों में ले जाना। ऐसे मोहल्लों से संपर्क साधना, जहाँ लोग पैसे के बदले रैलियों में चले जाते हैं।

ध्यान देने वाली बात यह है कि जो लोग भीड़ का हिस्सा बनते हैं, वे उसी राजनीतिक दल को अपना वोट भी डालें ज़रूरी नहीं। वे अगले हफ़्ते किसी और राजनीतिक दल की रैली में भी देखे जा सकते हैं। वैसे 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जिस तरह से डिजिटल मीडिया का इस्तेमाल चुनाव के लिए किया, वह ब्रेनवाश का नया तरीक़ा है। फोन में भेजे गये संदेशों और सोशल मीडिया पर नेताओं के संदेशों की क्लिप ने तो चुनाव के प्रचार को जो गति प्रदान की है, वब हैरतअंगेज़ है। पर इस डिजिटल प्रचार की तेज़ रफ़्तार में क्या सही है, क्या गलत है; इसकी परख करने का न तो वक़्त है और न ही कोई इसके लिए तैयार दिखता है। हाँ, एक ऐसा वर्ग है, जो इसके बीच के फ़र्क़ को समझता है और लोगों को भी सचेत करने की कोशिश में लगा हुआ है। भीड़ जुटाने वाला पारंपरिक मीडिया व सोशल मीडिया दोनों ही राजनीतिक दलों के लिए अपना-अपना काम करते हैं। यह अलग बात है कि पारंपरिक मीडिया की तुलना में सोशल मीडिया राजनीतिक विचारों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर सकता है और भारत जैसे विशाल देश की 146 करोड़ से ज़्यादा की आबादी तक जल्द व आसानी से पहुँचा देता है। यही नहीं, देश के बाहर भी राजनीतिक राय को किसी के पक्ष व विपक्ष में बनाने में अहम है।

एक अनुमान है कि अगले साल 2026 तक भारत में अंदाज़ा एक अरब लोगों के पास स्मार्ट फोन होंगे, ऐसी सूरत में राजनीतिक रैलियाँ और भीड़तंत्र का रिश्ते में और क्या बदलाव आ सकते हैं, इस पर नज़र रहेगी। पर यहाँ भारत के संदर्भ में अभी भी राजनीतिक दल अपने-अपने राजनीतिक दलों के स्टार नेताओं की खुले मैदानों में रैलियाँ करने के लिए लाखों-करोड़ों तक ख़र्च करते हैं। बेशक चुनाव प्रचार की लागत बढ़ रही है, चुनावी ख़र्चों पर अधिक-से-अधिक पारदर्शिता वाला मुद्दा भी उठता रहता है; लेकिन भीड़ जुटाने के लिए किये गये बहुत सारे ख़र्चे, भुगतान अक्सर अघोषित होते हैं। वे चुनावी ख़र्चों के अधिकृत ब्योरों से बाहर रहते हैं।