भारत वैश्विक मंच पर एक मज़बूत राष्ट्र के रूप में उभर सकता था; लेकिन विभाजन की मानसिकता, जो सांप्रदायिक और सहिष्णुता को बढ़ावा देती है; फिर से सिर उठा रही है। पिछले समय में बांग्लादेश में हुई घटनाओं ने इस ख़तरे को स्पष्ट रूप से उजागर किया है। यदि हमें एक सशक्त और एकजुट राष्ट्र बने रहना है, तो हमें इस मानसिकता को समाप्त करना होगा। सन् 1947 के विभाजन की त्रासदी को ध्यान में रखते हुए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि भविष्य में ऐसी परिस्थितियाँ पैदा न हों। केवल एक संगठित, सशक्त और सहिष्णु समाज ही भारत की वास्तविक शक्ति हो सकता है। पिछले दिनों यहाँ राष्ट्रीय तकनीकी शिक्षा प्रशिक्षण और अनुसंधान संस्थान में पंचनद शोध संस्थान की 31वीं वार्षिक व्याख्यानमाला के अवसर पर प्रख्यात चिंतक, विचारक और शोधकर्ता डॉ. प्रशांत पॉल ने कई बातें साझा कीं।
भारत-पाक विभाजन से जुड़ी कई बातों पर चर्चा करते हुए डॉ. प्रशांत पॉल ने कई ऐतिहासिक तथ्यों को उजागर किया। उनका कहना है कि बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हुए जघन्य अत्याचार और नरसंहार ने भारत के समय की भयावह घटनाओं को फिर से जीवंत कर दिया है। उन्होंने बताया कि अंग्रेजों के भारत में आने के बाद अनेक आन्दोलन हुए, जिसमें 1857 का आन्दोलन, संन्यासियों का, जिस पर आनंदमठ लिखा गया, असहयोग आन्दोलन, सत्याग्रह और कई अन्य आन्दोलन हुए। इनमें से सन् 1905 में बंग-भंग आन्दोलन एकमात्र सफल आन्दोलन था। इस आन्दोलन को डिफ्यूज करने के लिए 30 दिसंबर, 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना की गयी थी। ठीक 24 साल बाद 30 दिसंबर, 1930 को इलाहाबाद में मुस्लिम लीग का अधिवेशन हुआ, जिसमें मुस्लिम राष्ट्र की माँग की गयी थी। इस अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे थे- अल्लामा मोहम्मद इक़बाल। यह वही इक़बाल थे, जिनकी कविताओं को हमने स्कूल में गुनगुनाया था- ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा।’ उस वक़्त मुस्लिम राष्ट्र की माँग को बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी गयी थी।
डॉ. पॉल बताते हैं कि इसी बीच ब्रिटिश सरकार ने भारत को स्वतंत्रता देने के लिए ब्रिटेन में कुछ गोलमेज कॉन्फ्रेंस रखी। तीसरी कॉन्फ्रेंस नवंबर, 1932 में हुई। उस वक़्त पंजाब के होशियारपुर का रहमत अली कैंब्रिज पढ़ने गया था। वहाँ पर उस कॉन्फ्रेंस में जो लोग आये हुए थे, इसने उनको एक पर्चा दिया, जिसका शीर्षक था- नाउ ऐंड नेवर (Now and Never)। उस परचे में पाकिस्तान शब्द लिखा था और आगे लिखा था- ‘हम इस बात से आश्वस्त हैं कि भारत में शान्ति और प्रगति नहीं हो सकती यदि हम मुसलमानों को हिन्दू-प्रधान संघ में धोखा दिया जाता है, जिसमें हम अपने भाग्य के निर्माता और अपनी आत्मा के कप्तान नहीं बन सकते।’ (We are convinced there can be no peace and progress in India if we the Muslims are duped into a Hindu dominated Federation in which we cannot become the masters of our own destiny and captains of our own souls.)
रहमत अली ने जब यह पर्चा सारे लोगों को दिया, जिसमें हिन्दू महासभा भी थी। कांग्रेस भी थी। मुस्लिम लीग भी थी। छोटी-छोटी पार्टियाँ भी थीं। सबने इस प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया था। जिन्ना ने भी उसको ख़ारिज कर दिया और कहा कि यह संभव नहीं है। उसके बाद सन् 1940 में रावी के तट पर मुस्लिम लीग का लाहौर अधिवेशन हुआ। इसकी अध्यक्षता बैरिस्टर मोहम्मद जिन्ना ने की थी और पहली बार वहाँ अलग राष्ट्र की माँग की। लेकिन फिर भी पाकिस्तान शब्द का प्रयोग नहीं हुआ। सन् 1943 में जिन्ना ने पहली बार पाकिस्तान शब्द का प्रयोग किया। जब सबने रहमत अली के परचे को नकार दिया, तो उसने अकेले ही पाकिस्तान नेशनल मूवमेंट चलायी।
डॉ. प्रशांत आगे बताते हैं कि जब पाकिस्तान बन गया, तब राष्ट्रपति जिन्ना थे, लियाक़त अली प्रधानमंत्री थे। रहमत अली उन दोनों से मिलने गया; लेकिन दोनों नहीं मिले। मोहम्मद जिन्ना की मौत के बाद सितंबर, 1948 में वह फिर पाकिस्तान गया; लेकिन उसको दुत्कारकर भगा दिया गया। लेकिन वह हिन्दुस्तान भी नहीं आ सका; कैंब्रिज चला गया। उसकी मौत के बाद वहाँ उसका शव पाँच दिन तक सड़ता रहा। कोई उसकी सुध लेने वाला नहीं था। कैंब्रिज में उस रहमत अली की एक छोटी-सी क़ब्र है, जिसने पाकिस्तान बनाया।