भारत गांवों का देश है। भारत की आत्मा गांव हैं। आत्मा ही नही शरीर भी गांव हैं। यहां साढे छह लाख गांव हैं। 70 फीसद ग्रामीण आबादी है। जब इतना बडा भूभाग गांवों से भरा हो, तो शरीर गांव ही होगा। और जब शरीर मजबूत होगा, तभी मन स्वस्थ होगा। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन होता है। मानसिक मजबूती से दृढ़ता आती है, तो शारीरिक मजबूती से स्थायित्व। शारीरिक विकास के बिना मानसिक विकास मुश्किल हैं।
विश्व के मानचित्र पर भारत के झारखण्ड राज्य की गोद में बोकारो जिला के तहत नावाडीह प्रखंड में एक गांव हैं- मंझलीटांड! एक ऐसा गांव जिसका कोई इतिहास नही बिल्कुल सामान्य-सा गांव। करीब दो सौ साल पुराना है यह गांव!
चारों तरफ झाड़ जंगल: बीच में एक टांड! वहां एक बूढामांझी का थान और एक जहरथान। कुछेक मांझी (आदिवासी) आकर यहां बसे थे। उनके कुछ वर्षों बाद यहां कुर्मी (महतो) लोग आये। कुर्मी का जातिगत पेशा कृषि है। जब वे आये, तब यहां केवल गड्ढे,नाले और टांड थे। कुर्मियों ने गड्ढे,नाले भंाथ-भुंथ कर,टाण्ड-टिकरी खोद-खोदकर खेती योग्य बड़े-बड़े खेत बनाए। सभ्यता के विकास क्रम में मनुश्य ने ऐसे ही कठोर परिश्रम किया होगा, तभी तो उसने अवनि से अंतरिक्ष तक की यात्रा तय की !
मांझी और कुर्मियों के बाद यहां कुम्हार, तुरी, लोहार, कमार और मुसलमान आये। आज यहां इन्हीं लोगों की आबादी हैं। सबसे ज्यादा कुर्मी हंैं करीब 80 फीसद, मांझी एक भी नही हैं। वे बहुत पहले गांव छोडकर चले गये। लेकिन उनका बूढ़ा मांझी थान,यहां है। जिनकी पूजा गांव वाले आज भी करते हैं। यह भारतीय संस्कृति के सामाजिक-स्वरूप का सुदृढ प्रमाण प्रस्तुत करता हैं।
इस गांव के लोगों में बड़ा सामाजिक सौहार्द्र और सदभाव है। यहां का भक्तापर्व और जहरथान पूजा इसकी मिसाल हैं। जहरथान पूजा ग्राम-देवता की पूजा हैं। इसमें हिन्दु-मुस्लिम सबकी श्रद्धा हैं। मुसलमान भी इस पूजा के लिए शुरू से बकरी देते आये हैं।
मंझलीटांड का भक्ता पर्व साम्प्रदायिक सदभाव का केन्द्र हैं। भक्ता पर्व में झूला झूलने के लिए जों ‘भक्ता खूॅंटा’ गाड़ा जाता हैं, उसका गड्ढा मुसलमान परिवार के लोग करते हैं और यह दशकों से अविराम होता आ रहा हैं। यहां के भक्ता पर्व का मुख्य आकर्षण ”अग्निफूल का खेला ”। आस-पास के लोग इस खेला को देखने के लिए आते हैं। करीब 15 फुट लम्बा, दो फुट चौड़ा और डेढ़ फुट गहरा एक अग्निकुंड होता है। जिसमें आग के शोले लहकते रहते हैं। उन लहकते अंगारों को फूल कहा जाता हैं। भक्ता पर्व का मुख्य व्रती उन लहकते अंगारों को अपनी हथेलियों में उठाता है और नंगे पांव चलकर उस लहकते अग्निकुंड को पार कर जाता हैं। मुख्य व्रती ‘अग्निफूल’ को लाकर षिवलिंग को अर्पित करता हैं। तत्पश्चात दर्जनों व्रती ‘अग्निफूलों’ पर नृत्य करते हुए नंगे पांव पार कर जाते हैं। लेकिन किसी के पांव में छाले तक नही पड़ते। यह आस्था का चरम हैं। कोई तकनीक नही,कोई जादू नही! खुली आंख से देखे बिना कोई शायद ही विश्वास करे।
देश में हिन्दू-मुस्लिम के दंगे हों, या भारत-पाक की लड़ाई हो, चाहे राम-मंदिर बाबरी मस्जिद के लफड़े हों, इस गांव के चेहरे पर कभी कोई शिकन नही पड़ती। आज भी रामनवमी में खाजो मियां, खुल्लु मियां, ईजराइल, पानबाबू आदि गत्तका खेलते हैं और ‘जय बजरंगी’ के नारे पर उनके पांव भी थिरकते हैं। हिन्दू भी ईद बकरीद में मुसलमान के घर जाकर सेवईयां-शिरनी’ खाते हैं। ऐसा हैं इस गांव का – सामाजिक सौहार्द्र।
मंझलीटांड राजनीतिक रूप से भी काफी जागरूक हैं। आजादी के समय से ही ये लोग सामाजवादी रहे हैं। यहां के लोग सुभाष चन्द्रबोस और सोशलिस्ट पार्टी के समर्थक रहे हैं। रामगढ अधिवेशन के वक्त यहां के लोग नेताजी के पक्ष में थे। उस अधिवेशन में घरम महतो, सोमर महतो, फागू महतो, गफफ्फूर मियां धूज महतो आदि गये हुए थे। उन लोगों के साथ एक लड़का भेखलाल महतो भी गया हुआ था। लेकिन वह महात्मा गांधी के विचारों से इतना प्रभावित हुआ कि वे जीवन भर गॉंधी के आदर्शो का अनुपालन करते रहे। इसलिए गांव के लोग उन्हे ”गांधी बाबा ” कहने लगे थे। और वे आजीवन ‘गांधी बाबा ‘ बने रहे।
लेकिन इस गांव के किसी आदमी की गिनती स्वतंत्रता सेनानी में नही होती हैं, क्योंकि यहां का कोई व्यक्ति कभी जेल नही जा पाया। एक बार सोमर महतो और गफूर मियॉं को अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया था। लेकिन दलुमा-लमुआ के धने जंगलो मे ले जाकर उन्हे छोड़ दिया गया था। उनके साथ करीब बीस -पच्चीस लोग थे। वे लोग कई दिनों तक भूखे-प्यासे जंगलों में भटकते रहे थे।लगभग महीना दिन बाद वे भटकते-भटकते धर पहुंचे थे। इस तरह गांव-देहात के हजारों लोगों ने स्वतंत्रता आन्दोलन में अनेक यातनाएॅं सहीं, लेकिन उन सबका नाम इतिहास में दर्ज नही हो सका। वे सभी अनपढ़ लोग थे, इसलिए उन्होने अपनी यातनाओं का कोई लिखित दस्तावेज नही तैयार किया और न ही अपनी आत्माकथा लिख सके।
इस गांव के पहले पढे-लिखे व्यक्ति थें- दयाल राम महतो। वे 1962 में सरपंच चुने गये और जीवन भर अपराजित रहे। दयालराम महतो पांच दशक सरपंच के पद रहे। वे कभी हारे नही। वे बडे सहज सरल थे। बिल्कुल निर्लोभ-निर्विकार। उनकी दो पत्नियां थी, बावजूद कभी उनके चेहरे पर शिकन नही होती थी। उन्होनें अपनी सरपंची शक्ति से कभी किसी का अनिश्ट नही किया।
मैं बचपन से उनके करीब रहा। वे काफी बुजुर्ग हो गये थे। फिर भी मुझसे बडे सहज होकर बाते करते थे। अपने स्कूली जीवन, आज़ादी की लड़ाई, और द्वितीय विश्वयुद्ध की रोचक धटनाओं को अक्सर मुझे सुनाया करते-
‘द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अक्सर बम गिरने का भय बना रहता था। सो लोगों ने घरों के बाहर बड़े-बड़े गड्ढे खोद रखे थे। जब बम गिरने की आशंका होगी, तब सायरन बजेगा और सभी लोग गड्ढे में नाक नीचे करके लेट जायेगे। इससे बम की जहरीली गैस का दुश्प्रभाव नही पड़ेगा। कभी-कभी गोमो स्टेशन (जहां से सुभाश चन्द्र बोस की यात्रा हुई) का समय बताने वाला सायरन बजता था, तो लोग हड़बड़ा कर छुप जाया करते थे।
सन 60 का दशक गांव वालों के लिए बडा भारी रहा था। गांव में बार-बार सूखा पड़ा जा रहा था। सन 1966-67 के अकाल ने लोगों की कमर तोड़ दी थी। अकाल के साथ दु:खों का कहर भी आ बरपा था। भूख और गरीबी से संत्रस्त अधिकांश लोग मजदूरी करने जाने लगे थे। गांव के ही गणेश महतो लोकल मजदूरों के लीडर बन गये थे। कोलियरी में काफी धांधली और दादागिरी भी होती थी। अधिकारी भी मजदूरों का काफी शोषण करते थे। एक बार गणेश महतो और उनके साथियों ने एक मैनेजर को जूतों की माला पहना दी थी। मैनेजर बाहरी था। सो बाहरियों ने एक जुट होकर इसका बदला लेने को ठाना। बाहरियों ने गणेश महतो और उनके साथियों को ‘माइन्स शॉर्ट सर्किट’ के जरिये उड़ाने का प्लान बनाया।
करीब आधी रात के समय उस वीभत्स धटना को अंजाम दिया गया। उस समय दूसरी पाली के मजदूर खदान से निकल रहे थे। और तीसरी पाली के मजदूर धुस रहे थे। विस्फोट भयंकर हुआ। दोनों पाली के मजदूर चपेट में आ गये। खदान और आसपास के इलाका का जर्रा-जर्रा कांप उठा था। वीभत्स विस्फोट में करीब 60-70 लोग मारे गये थे। जिसमें गणेश महतो तो बच गये, लेकिन गांव के छह-सात लोग मारे गये थे। इलाके भर के लोग आज भी उस हादसे को भूला नही पाये हैं। मंझलीटांड तो बिल्कुल नहीं।
आज़ादी की लडाई के समय से ही इस गांव का स्वभाव सोशलिस्ट रहा। 70 के दशक में ‘शिवाजी समाज’ की स्थापना और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ। दोनों के अगुआ बिनोद बिहारी महतो थे। पहले ‘शिवाजी समाज’ और बाद में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा दोनो संगठनों के लिए गांव वाले कूद पड़े। शिवाजी समाज का उद्देश्य था-सामाजिक सुधार तो झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का उद्देश्य- अलग झारखण्ड राज्य। घीरे-घीरे अलग झारखण्ड राज्य का आन्दोलन जोर पकडऩे लगा, गांव के लोग दीवानों की तरह कूद पड़े थे- इस आंदोलन में। जब कहीं रैली या जुलूस निकलता-पूरा का पूरा गांव निकल पडता। बच्चे बूटे, स्त्री-पुरूष सभी। ढाक-ढोल,ढासा, तीर -धनुष, फरसा-कुल्हाडी आदि लेकर चल पड़ते।
अलग झारखण्ड राज्य का आन्दोलन लगभग तीस साल चला। इन तीस सालों में फागु महतो, गणेश महतो, सरपंच दयालराम महतो, काशी महतो, पति महतो, देवनारायण महतो, प्रताप नारायण सिंह, लोकेश्वर महतो, जयलाल महतो,गोबर्घन महतो, उत्तीम चन्द महतो, उत्तम महतो, ‘मेढ’। सहदेव महतो, इस्माईल मियां, खाजी मियां, देवनन्दन महतो, खुबलाल महतो, धनश्याम महतो, बालेश्वर महतो जैसे लोगों से गांव की राजनीतिक चेतना संपोशित संप्रेशित होती रही। मुझे भी जन्म से ही अलग राज्य के आन्दोलन का खाद-पानी मिलता रहा।
सत्तर का दशक मेरे गांव के लिए बड़ा शुभ रहा। कोलियरी के राष्ट्रीयकरण से धर-धर नौकरी हो गई। गांव के 80 फीसद लोगों को नौकरी मिल गई। नौकरी लगी तो हाथों में पैसा आया। पैसा आया तो आपोद प्रमोद भी खूब होने लगा। नाच, गान, झूमर-नटुआ, भजन-कीत्र्तन, पूजा-पाठ, घर्म-कर्म। धन संस्कृति का पोषक है। यह सिद्व हो रहा था। वैसे गांव के जितने लोगों को नौकरी लगी; सभी मजदूर थे। केवल मेरे मंझले चाचा सहदेव महतो ‘मुंशी’ हुए और पूरे इलाके में ‘मुंशीजी’ के नाम से जाने,जाने लगे।
मुंशी हुए तो कमाई दोनो हाथों हो रही थी। कुछ ही सालों में उन्होंने बढिय़ा पैसा कमा लिया। कमाई दोनो हाथों से हो रही थी, तो दोनो हाथों से लुटा भी रहे थे। हमारे धर के दरवाजे पर रोज शाम को टोली जमने लगी। तरह-तरह के प्रोग्राम होने लगे। भजन-कीर्तन, रामायण-पाठ सें लेकर नाच-नचनिया तक! उन कार्यक्रमों का असर मेरे बालमन पर खूब पड़ा। जो आज तक मिट न सका। मेरे गांव का नटुआ नाच काफी चर्चित हुआ। सोमर महतो ‘छेछेराना’,पूरन महतो ‘चौधरी’, और श्यामलाल महतो इलाके भर के चर्चित नटुआबाज हुए। आज भी हमलोग प्रत्येक साल नटुआ नाच का आयोजन करवाते हैं। जिसमें मेरे अलावा जयनाथ महतो,गंगा महतो,मुकेश कुमार आदि की अहम भूमिका होती हैं। सोशल मीडिया पर यह ‘नटुआ नाच’ काफी पसंद किया जाता हैं।
नब्बे का दशक आते-आते हमारा गांव राजनीतिक रूप से काफी जागृत हो चुका था। साथ ही गांव की एकता और ताकत भी बढ़ती जा रही थी। झारखण्ड आन्दोलन हो या कोई भी आयोजन, गांव के लोग एक साथ खड़े दिखते थे। अगल-बगल गांव वाले इसकी एकता से भय खाने लगे थें। पूरा का पूरा गांव ‘झारखण्डी’ गांव कहलाने लगा था। इस गांव के तेवर को आक्रामक बनाने में एसएन चौधरी ने काफी रोल निभाया। इलाके भर के लोग मंझलीटण्ड को ‘झारखण्डी’ की जगह ‘मरखण्डी’ गांव भी कहने लग थे।
बस इस गांव की एक कमजोरी रही कि- इसने किसी को अपना अगुआ नही बनाया। सब के सब नेता बन गए। बाहर के राजनेताओं ने इसका पूरा फायदा उठाया। भीड़ जुटाने के लिए मंझलीटांड के लोगों को आगे किया जाता। लेकिन इसके विकास के लिए किसी नही सोचा। आजादी के 55 साल तक यह गांव ढिबरी युग में रहा। अलग झारखण्ड राज्य होने के बाद सन 2002 में तत्कालीन उर्जा मंत्री लालचन्द के सौजन्य से यहां बिजली जली। उन्होने ही गांव की नदी (जोरीया) में पूल बनवाया, तो यह गांव मुख्य मार्ग और प्रखण्ड मुख्यालय से जुड़ा। इस नदी पर अब दो पुल बन गये हैं। दूसरा पुल विघायक जगरनाथ महतो ने बनवाया है। इस गांव की दूसरी कमजोरी रही- शिक्षा को महत्व न देना या फिर शिक्षा के प्रति उदासीनता! गांव के लोगों की घारणा थी कि पढने लिखने से कुछ नही होता। बस नाम भर पढ़लो काफी है। दो सौ सालों के इतिहास में इस गांव का दूसरा ग्रेजुएट हुआ – मैं! मुझसे पहले उत्तीमचन्द महतो ने स्नातक पास किया गया था। वे एमए फेल रहे। लेकिन गांव वाले उन्हें डबल एमए कहते थे। अब आप समझ सकते है- इस गांव की शिक्षा का स्तर!
जब मैंने सबसे पहले प्रतियोगी परीक्षा पास कर मास्टरी की नौकरी ली; तब गांव वालों की घारण टूटी कि पढऩे लिखने से भी कुछ हो सकता हैं। मेरे बाद उत्तीमचन्द महतो ने ही प्रतियोगी परीक्षा पास कर क्लर्क की सरकारी नौकरी पाई। तब जाके गांव वालों को पढ़ाई का महत्व समझ में आया। अब गांव के बच्चे पढऩे-लिखने लगे है और ग्रेजुएट पोस्ट ग्रेजुएट भी हो गये है। कुछेक ने इंजीनियरिंग भी कर ली है। कई ने पढ़ लिखकर सरकारी नौकरियां भी हासिल कर ली हैं।
आज शिक्षा का मूल उद्देश्य पैसा कमाना हो गया हैं। यदि कोई पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी प्राप्त नही करता हैं; तो उसकी पढ़ाई का कोई मोल नही होता। आज कैरियर निर्माण के चक्कर में मानवीय मूल्यो की दक्षताओं का अवमूल्यन हो रहा है।
गांव के लोगों को मुझसे बहुत ज्यादा उम्मीदें थीं। बचपन से मैं मेधावी था। लोग मेरी मेधा से काफी प्रभावित थे। प्राय: मैं क्लास में प्रथम आता था। ब्लॉंक लेवल की स्कॉलरशिप परीक्षा में प्रथम आया था। चौथी-पांचवी कक्षा से ही र्मैं रामायण बांचने लगा था। चित्रकारी भी करता था और गाना भी गा लेता था। तब मेरा सामान्य ज्ञान बहुत अच्छा था। अपने से चार-पांच साल बडे लडकों कों टक्कर देता था। गांव वाले मुझे बहुमुखी प्रतिभा वाला बालक समझने लगे थे। सो गांव के पढे-लिखे लोगों ने मुझसे काफी उम्मीदें पाल ली थीं। मुझे देखकर कहा करते थे-” एक दिन यह लड़का हमारे गांव का नाम रौशन करेगा! लेकिन मैं अपनी महत्वांकाक्षांओं के पीछे भागता रहा…….भटकता रहा……. उनकी उम्मीदों पर खरा न उत्तर सका……..!!