आज देश में जब ‘इंडिया’ और ‘भारत’ शब्दों के बीच एक रेखा खींचने की कोशिश की जा रही है, और साम्प्रदायिक उन्मादी विचारों को हवा देकर हिन्दू राष्ट्र बनाने का शिगूफ़ा छोड़ा जा रहा है, ऐसे में आज महात्मा गाँधी के आन्दोलनों और विचारों पर मंथन करना काफ़ी प्रासंगिक हो जाता है।
आज देश में मुसलमान, ईसाई, दलित, आदिवासी समेत कई वर्ग हिन्दू राष्ट्र के नाम पर प्रताडऩा के शिकार हो रहे हैं। खालिस्तान के नाम पर सिखों को भी प्रताडऩा और बदनामी का शिकार होना पड़ रहा है। हाल ही की मणिपुर की घटना हो, या हरियाणा की नूंह की घटना- इसमें सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठाये गये। दंगा और हिंसा को रोकने में केंद्र सरकार के साथ-साथ वहाँ की राज्य सरकारों को भी कटघरे में खड़ा किया गया। कई बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिक जनप्रतिनिधियों द्वारा देश को साम्प्रदायिक तनाव में झोंकने का आरोप भी सरकार पर लगाया गया। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर गाँधी की समझ का देश होता, तो भारत में हालात होते? क्या इस तरह के साम्प्रदायिक तनाव के हालात बनते?
ऑल इंडिया पीस मिशन के संस्थापक एवं अल्पसंख्यक नेता दया सिंह कहते हैं- ‘गाँधी के कारण ही सिख और मुसलमान भारत का हिस्सा बनना पसन्द किये। आज़ादी मिली; परन्तु देश के विभाजन ने काफ़ी दर्द दिये। हिन्दू-मुसलमान के नाम पर अनेक क़त्लेआम किये गये। लेकिन गाँधी के आश्वासन पर सिखों और मुसलमानों को भरोसा था, इसलिए विभाजन का दर्द भुलाकर भी सिख और मुस्लिम भारत का हिस्सा बन गये। लेकिन आज़ादी छ: महीने में ही गाँधी की हत्या कर सिखों और मुसलमानों के उम्मीदों पर पानी फेर दिया गया।’
दया सिंह आगे कहते हैं- ‘विगत 40 वर्षों से सिख और मुस्लिम को राजनीतिक व्यवस्था से अलग-थलग कर दिया गया है। इसीलिए वह आज उसका दंश झेल रहा हैं, चाहे वह ब्लू स्टार ऑपरेशन हो, या बाबरी मस्जिद के विध्वंस का मामला हो; या 2002 के गुजरात दंगे, जिसमें अनेक मुस्लिमों के क़त्ल को अंजाम दिया गया। इस गहरे ज़ख़्म को सन् 2014 के बाद से और गहरा किया गया और अहिंसावादी गाँधी के विचारों को सिर्फ़ स्वच्छता दिवस तक सीमित कर दिया गया।’
दया सिंह कहते हैं- ‘गाँधी ही ऐसे व्यक्ति थे, जिनके मानस में सबको साथ लेकर चलने का अहसास था और उन्हें यह भी पता था कि अंग्रेजों ने हुकूमत या तो मुस्लिम शासकों से अथवा सिखों से राजसत्ता को हथियाया, जिसके कारण अंग्रेज हुकूमत ने सिख और मुस्लिमों को ही निशाने पर लिया। सिख और मुस्लिम देश के बँटवारे के पक्ष में कभी नहीं थे। बल्कि हिन्दू संगठन भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने पर तुले थे, जिसके कारण षड्यंत्रकारियों ने 7 मार्च से 13 मार्च, 1947 के बीच आपसी विवाद में मारकाट करवाकर आनन-फ़ानन में विभाजन पर मोहर लगवा दी। हालाँकि ब्रिटिश हुकूमत चाहती थी कि सिख राज बनाया जाए, जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच बफर राज्य होगा। परन्तु गाँधी के आश्वासन ने सिख और मुस्लिम को हिन्दुस्तान में ही समाहित होने के लिए प्रेरित किया। गाँधी की हत्या से सबसे बड़ा यदि किसी को नुक़सान हुआ, तो वह सिख और मुस्लिमों को हुआ; जबकि हिन्दुओं पर कोई नियंत्रण नहीं रहा और वे पूरे मुस्लिम समाज को पाकिस्तान धकेलने में लगे थे। भारत के विगत 70 वर्षों का इतिहास तो यही बताता है कि सिख को खालिस्तानी, अतिवादी आदि और मुस्लिम को आतंकवादी और पकिस्तानी बता उनको निर्णयकारी राजनीतिक प्रक्रिया से ही बाहर कर दिया गया है।’
दया सिंह सवाल करते हैं- ‘गाँधी को क्यों मारा गया? क्योंकि गाँधी ने यह आश्वासन दिया था कि आज़ाद भारत में सबके हक़-हुक़ूक़ सुरक्षित और बराबर होंगे। चाहे वह मुस्लिम हो या हिन्दू। विगत नौ वर्षों से एक तबक़ा गाँधी के विचारों को ही स्वाहा करने पर तुला है। जबकि बँटवारे के समय गाँधी और जिन्ना के बीच जो बातचीत हुई, उसका लब्बोलुआब यह था कि चाहे दो देश होंगे; परन्तु दोनों सेकुलर होंगे। जो जहाँ है, वहीं रहे। लेकिन जो देश हिन्दू बाहुल्य है, वहाँ मुस्लिम की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए और जो मुस्लिम बाहुल्य है, वहाँ हिन्दू की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए। दोनों देश आपसी संवाद स्थापित रखेगा। जिन्ना ने 11 अगस्त, 1947 में ही अपने सम्बोधन में साफ़ कहा था कि चाहे पाकिस्तान इस्लामिक देश होगा; परन्तु यह सेकुलर होगा और राज्य का कोई धर्म नहीं होगा। यह बात गाँधी और जिन्ना के बीच आपसी समझ का ही परिणाम था।’
दया कहते हैं- ‘आज जब मैं वर्तमान दशा और दिशा का आंकलन करता हूँ, तो देखता हूँ कि गाँधी और जिन्ना की मौत ने आपसी सम्बन्धों को विवादों में बदल दिया और कश्मीर उसका केंद्र बिन्दु बन गया। उस समय दोनों देशों के रुपये की क़ीमत डॉलर के बराबर थी, परन्तु अब दोनों देशों का रुपया काफ़ी कमज़ोर हो चुका है; क्योंकि दोनों देश शस्त्रों की दौड़ में हैं। अमेरिका ने पाकिस्तान को उभरने नहीं दिया और भारत को भी काफ़ी फ़ौज पाकिस्तान सीमा पर लगानी पड़ी। अमेरिका ने दोनों देशों का दोहन करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। अमेरिका का चिन्तन रहता हैं, जिन देशों में नायकवाद हो, उन्हीं से डील की जाए। नतीजा ईराक, अफ़ग़ानिस्तान और अब यूक्रेन के हालात तो यहीं दर्शाते हैं। हो सकता हैं जैसे पाकिस्तान का इस्तेमाल हुआ, कहीं चीन के ख़िलाफ़ भारत को भी इसी तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।’
वहीं प्रसिद्ध गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार कहते हैं- ‘यदि आज गाँधी होते, तो लोगों की राय को इज़्ज़त देते हुए हिंसा को बन्द करवाकर शान्तिपूर्वक हर समस्या का हल करवाते। गाँधी के हत्या के बाद से चीज़ें काफ़ी बिगड़ गयीं। हालाँकि नेहरू ने उन्हें काफ़ी हद तक ठीक करने की कोशिश की। लेकिन फिर भी आज देश में साम्प्रदायिक तनाव का माहौल है।’
हिमांशु कहते हैं- ‘गाँधी जी का एक सबसे महत्त्वपूर्ण कथन है, वो 18 जनवरी, 2048 का है। अपनी मौत से क़रीब 12 दिन पहले प्रार्थना सभा दिल्ली में उन्होंने कहा था कि मुझे पता चला है कि राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को 25,000 पोस्ट कार्ड मिले हैं, जिसमें गौहत्या बन्दी का क़ानून बनाने का माँग की गयी है और कानपुर में किसी संन्यासी ने आमरण अनशन शुरू किया है। तो मेरा भारत सरकार को सुझाव है कि इन सबसे किसी प्रकार के दबाव में न आये। अगर हिन्दू गाय को माता मानते हैं, तो वे न खाएँ। लेकिन वे मुसलमानों के ऊपर कैसे दबाव डाल सकते हैं कि वे भी उसको माता मानें? हम छत पर चढक़र यह चिल्लाते रहे हैं कि स्वतंत्र भारत में सभी धर्मों को बराबर आज़ादी होगी। अगर पाकिस्तान में मुसलमान यह कहें कि हम मूर्ति पूजा को हराम मानते हैं, इसलिए हिन्दुओं को हम मूर्तिपूजा नहीं करने देंगे, तो हमें कैसा लगेगा? इसी तरह हम अपनी आस्था दूसरों पर कैसे लाद सकते हैं? उन्होंने हिन्द स्वराज में सन् 1909 में लिखा है कि यदि कोई मुस्लिम गाय काट रहा है, तो मैं उसका पाँव पकडक़र कह सकता हूँ कि ऐसा मत करो; लेकिन उसके साथ झगड़ा नहीं करूँगा। क्योंकि मुझे गाय से ज़्यादा अपना भाई पसन्द है।’
वहीं प्यारेलाल द्वारा लिखी पूर्णाहुति नामक पुस्तक में भी गाँधी का कथन है- ‘भारत सभी धर्मों का होगा। अगर कोई मुझसे कहे कि इसमें सिर्फ़ हिन्दू ही रह सकते हैं; मुसलमान नहीं रह सकते, तो मुझे ऐसा भारत नहीं चाहिए।’
हिमांशु कुमार आगे कहते हैं- ‘नोआखली में गाँधी जी गये थे बँटवारा के समय। जो बाद में बंग्लादेश बन गया था, जिसे उस समय पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था; तो वहाँ भी गाँधी जी ने पैदल यात्रा की। और शान्ति स्थापना की थी; कोलकाता में भी की थी। बिहार में की थी। फिर दिल्ली में की थी। गाँधी जी की आख़िरी घोषणा यह थी कि मैं पाकिस्तान से आये हिन्दुओं का जत्था लेकर पैदल पाकिस्तान जाऊँगा और उन्हें उनके घरों में वापस बसाऊँगा। और जो मुसलमान भारत छोडक़र पाकिस्तान चले गये हैं, उनको भी वापस लेकर आऊँगा। क्योंकि बँटवारे में आबादी का बँटवारा और इस तरह से एक-दूसरे को डराकर उनके घरों से भगाना यह बहुत शर्मनाक है।’
हिमांशु कहते हैं- ‘बँटवारे में यह सब तय नहीं हुआ था, तो गाँधी की जो ये आख़िरी घोषणा थी, इससे पाकिस्तान का बँटवारा चाहने वाले $खासतौर से ब्रिटेन वग़ैरह पश्चिमी ताक़तें घबरा गयी थीं। क्योंकि वे चाहती थीं कि उनका साउथ एशिया में एक फ़ौजी अड्डा हो; जिसके लिए पाकिस्तान बनाया गया था। तो उनको लगा कि यह गाँधी भारत पाकिस्तान बँटवारे के मुद्दे को बेमतलब कर देगा। अगर हिन्दू और मुसलमान इधर-से-उधर नहीं जाएँगे, तो दोनों देश बाद में एक हो सकते हैं। माऊंटबेटन के सेक्रेटरी नरेंद्र सिंह सरीला ने अपने किताब में यह बातें लिखी हैं कि ब्रिटिश इंटेलिजेंस का एक पैड एजेंट था- नाना आपटे। नाना आपटे, गोडसे और सावरकर वग़ैरह ने अंग्रेजों के कहने से गाँधी की हत्या करवा दी। क्योंकि उन्हें डर था कि गाँधी भारत पाकिस्तान के बँटवारे के मुद्दे को बेकार कर देगा।’
इसी साल फरवरी महीने में जननेता कर्पूरी ठाकुर की पुण्यतिथि पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हिन्दू राष्ट्र के सवाल पर तीखा हमला बोलते हुए कहा था- ‘भारत गाँधी का देश है। जो लोग हिन्दू राष्ट्र का सपना देख रहे हैं, वे देश को तबाह करना चाहते हैं। लेकिन हम उन्हें कभी भी कामयाब नहीं होने देंगे। क्योंकि हम गाँधी के बताये रास्ते पर चलते हैं।’ अब आगामी लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद ही यह तय होगा कि आज के भारत में मुसलमानों, सिखों, दलितों, आदिवासियों समेत तमाम वंचित और अल्पसंख्यक वर्गों की क्या स्थिति होगी? भारत और इंडिया शब्द में किसको महत्ता मिलेगी? और भारत हिन्दू राष्ट्र बनेगा या भारतीय संविधान के अनुसार लोकतांत्रिक रूप से चलेगा?