भौगोलिक और सामाजिक विभिन्नताओं से उपजे बिखराव के बावजूद महिला आंदोलनों ने भारतीय महिलाओं को ऊपर उठाने में बड़ी भूमिका निभाई है
आज जबलपुर के एक सरकारी अस्पताल में 28 वर्षीया सुनयना ने अपनी बेटी को जन्म दिया. मां और बेटी दोनों स्वस्थ हैं. सुनयना एक सरकारी बैंक में नौकरी करती हैं. फिलहाल वे छह महीने के मातृत्व अवकाश पर हैं. उन्होंने जबलपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में मास्टर्स किया है. वे अपनी बेटी को भी पढ़ा-लिखा कर एक प्रबुद्ध नागरिक बनाना चाहती हैं. बचपन में सुनयना के माता-पिता ने उनका दाखिला सरकारी स्कूल में करवाया था. शिक्षा पूरी होते-होते सुनयना पूरी तरह आत्मनिर्भर हो गईं. उन्होंने अकेले यात्रा करना सीखा, अपना बैंक अकाउंट खुद खुलवाया, नौकरियों के आवेदन फॉर्म खुद भरकर भेजना शुरू किया और साक्षात्कारों के लिए दूसरे शहर जाने के इंतजाम भी खुद ही करने लगीं. उन्हें बसों में मौजूद ‘महिला सीट’ और आरक्षण केंद्रों पर बनी ‘महिला खिड़की’ की जानकारी थी. उन्होंने गाड़ी चलाना सीखा और अपना ड्राइविंग लाइसेंस भी बनवा लिया. वे अपनी और अपने परिवार की जिम्मेदारी खुद उठाती रही हैं.
सुनयना जैसी सैकड़ों महिलाएं आज भारत के हर शहर और कस्बे में मौजूद हैं. वे अपनी शिक्षा, भारतीय संविधान द्वारा दिए गए समानता और स्वतंत्रता के तमाम अधिकारों के साथ-साथ बीते 65 साल के दौरान इस देश के सामाजिक ताने-बाने में आए अनगिनत महीन बदलावों की वजह से भी आत्मनिर्भर जिंदगियां बिता पा रही हैं. 21वीं सदी के इस 13वें साल में घरों से बाहर निकल कर पढ़ने और नौकरियां करने जा रही लड़कियों को भारत के हर शहर और कस्बे में देखा जा सकता है. दिल्ली-मुंबई से लेकर बरेली-पटना तक की सड़कों पर उतर कर अपनी किस्मत लिखने निकली इन लड़कियों की वर्तमान स्थिति के पीछे भारतीय महिला आंदोलनों का एक पूरा इतिहास खड़ा है.
गुलाम भारत में महिलाओं ने बड़ी संख्या में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में हिस्सा लिया था. उन्होंने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर विरोध प्रदर्शन किए, भूख हड़तालों पर बैठीं और जेल भी गईं. इस दौरान बने छोटे-छोटे महिला समूहों में महिलाओं ने पहली बार एकत्रित होकर अपनी बातें और चिंताएं साझा कीं. भारतीय पुरुषों ने भी महिलाओं के अस्तित्व को नकारती तमाम सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाने और उन्हें आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फूले से लेकर ईश्वर चंद्र विद्यासागर और महात्मा गांधी तक सैकड़ों लोगों ने महिलाओं को दशकों पुरानी दासता से बाहर निकालने के लिए अथक प्रयास किए.
आजादी के बाद भारतीय संविधान ने महिलाओं को स्वतंत्रता और समानता के साथ-साथ वोट करने का अधिकार भी तुरंत दे दिया. 50 के दशक में तत्कालीन कानून मंत्री बीआर आंबेडकर ने चार अलग-अलग कानूनों में बंटे हिंदू-कोड बिल पास करके शादी के लिए जरूरी आयु-सीमा बढ़ाने के साथ संपत्ति और तलाक के मसलों में महिलाओं के अधिकार भी सुरक्षित किए. दरअसल आजादी की लड़ाई में महिलाओं की भागीदारी और तमाम सुधारवादी आंदोलनों के बहुआयामी प्रभाव के कारण ही भारतीय महिलाओं को स्वतंत्रता, समानता और वोट देने जैसे महत्वपूर्ण अधिकार कमोबेश आसानी से मिल गए जबकि इन्हीं अधिकारों के लिए पश्चिमी दुनिया के ज्यादातर देशों में महिलाओं को लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी थी.
महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए आजादी के दौरान पैदा हुई जागरूकता की लहर कानूनों में तो तब्दील हुई, लेकिन सदन में महिलाओं की मजबूत राजनीतिक भागीदारी में तब्दील नहीं हो सकी. आजादी के बाद बनी पहली संसद में सिर्फ दो प्रतिशत महिलाएं थीं. इस दौरान नेहरू सरकार ने महिला कल्याण के लिए कई योजनाएं शुरू कीं और ‘नेशनल सोशल वेलफेयर बोर्ड’ जैसे कई संगठनों का गठन भी किया गया. महिला कल्याण के लिए पहली बार एक पूरा नौकरशाही अमला और दफ्तरों के लिए बड़ी इमारतें दी गईं.
लेकिन महिलाओं के लिए ‘समान’ अधिकारों के दावे करने वाली सरकारी कवायदों का सच 1975 में प्रकाशित हुई महत्वपूर्ण रिपोर्ट ‘टुवार्ड्स इक्वैलिटी’ के जरिए सामने आ गया. संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘1975’ को अंतररार्ष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित करते हुए सभी देशों से अपने-अपने यहां महिलाओं की स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार करने का आग्रह किया था. इसके लिए 1971 में भारत के शिक्षा एवं सामाजिक कल्याण विभाग ने एक समिति का गठन किया. इसे यह पड़ताल करनी थी कि कानूनों और प्रशासन का महिलाओं के जीवन पर क्या असर पड़ा है. समिति को भारतीय स्त्रियों की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति की भी पड़ताल करनी थी. तत्कालीन सामाजिक कल्याण मंत्री डॉ. फूल रेनू गुहा की अध्यक्षता में बनी इस समिति ने हर प्रदेश की 500 महिलाओं से बात की. समिति की रिपोर्ट में पहली बार यह बताया गया कि आजादी के 28 साल बाद भारतीय महिलाओं की स्थिति पहले से ज्यादा खराब हो गई है और संविधान द्वारा बनाए गए कानूनों का फायदा उन तक नहीं पहुंच पाया है. कैंब्रिज प्रकाशन से आई अपनी किताब ‘वीमेन इन मॉडर्न इंडिया’ में इस रिपोर्ट को खतरे की घंटी बजाने वाली निर्णायक रिपोर्ट बताते हुए जी फोर्ब्स लिखती हैं, ‘टूवार्ड्स इक्वैलिटी भारत में महिलाओं की स्थिति पर हुआ पहला गंभीर शोध था. यह रिपोर्ट स्पष्ट करती है कि ज्यादातर महिलाएं अपने अधिकारों के बारे में उतनी ही अनजान हैं जितनी वे आजादी से पहले थीं. उनके स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा और उत्थान के लिए बनाए गए कानून उन तक नहीं पहुंचे हैं. उल्टे, उनकी स्थिति पहले से खराब हो गई है’. इस रिपोर्ट के आते ही दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में प्रदर्शन शुरू हो गए और पहली बार पढ़ी-लिखी भारतीय महिलाओं को वह नारीवादी भाषा मिली जिसका इस्तेमाल उन्होंने देश की बाकी वंचित महिलाओं के मुद्दों पर आवाज बुलंद करने के लिए किया.
इस बीच भारत तेजी से बदल रहा था. जयप्रकाश नारायण के आंदोलन और आपातकाल के साथ-साथ नक्सलवाद की बयार भी तेज हो चली थी. इस बीच भारतीय महिलाएं भी बिहार और गुजरात में केंद्रित नवनिर्माण यूथ मूवमेंट, महाराष्ट्र के धूले जिले में हुए ग्रामीण आंदोलन, चिपको आंदोलन और नक्सलवाद में हिस्सा लेने के बाद अब आखिरकार अपने अधिकारों की बात अपने आंदोलनों में कहना शुरू कर चुकी थीं. 70 के दशक में दहेज-हत्याओं के विरोध के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में समूह बनाकर समकालीन भारतीय महिला आंदोलनों ने मूर्त रूप लेना शुरू कर दिया था. इस बीच महिलाओं के लिए बसों में अलग सीटें आरक्षित करने और शहरों में कामकाजी महिलाओं के लिए सरकारी हॉस्टल खोलने की मांग भी पुरजोर तरीके से उठाई गई. 1978 में हुए रमीजा बी बलात्कार कांड और 1980 में मथुरा रेप केस का निर्णय आने के बाद दहेज हत्याओं के खिलाफ शुरू हुए विरोध प्रदर्शनों ने बलात्कारों के खिलाफ हो रहे विरोध के साथ मिलकर और विस्तृत रूप ले लिया. फिर 1985 में शाहबानो तलाक मामले और 1987 में रूपकंवर के राजस्थान में सती होने की घटनाओं ने भारतीय स्त्री विमर्श में और उद्वेलन पैदा किया. जनवादी महिला समिति, स्त्री संघर्ष और महिला दक्षता समिति जैसे तमाम संगठनों ने देश के अलग-अलग हिस्सों में विरोध प्रदर्शन शुरू किए. इस बीच महिला अधिकार कार्यकर्ता मधु किश्वर ने ‘मानुषी’ नाम से महिला मुद्दों पर आधारित भारत की पहली शोध पत्रिका का संपादन और प्रकाशन शुरू किया. सरकार ने लगभग इन सभी विरोध प्रदर्शनों का संज्ञान लेते हुए बलात्कार, सती और दहेज प्रथा से जुड़े तत्कालीन कानूनों में अहम बदलाव किए. 1989 में आए पंचायती राज बिल ने भी पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करके ग्रामीण स्तर पर उनके सशक्तीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस लिहाज से देखा जाए तो 80 का दशक भारत में महिलाओं के लिए स्वर्णिम दशक रहा.
लेकिन आलोचकों का मानना है कि तत्कालीन महिला आंदोलनों ने सिर्फ तात्कालिक परेशानियों पर ध्यान दिया. वे स्थायी समाधान का दीर्घकालिक रोडमैप नहीं दे पाए. महिला अधिकारों के लिए तीन दशकों से सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता रंजना कुमारी बताती हैं, ‘यह बात ठीक है कि हमने तात्कालिक मुद्दों पर ध्यान दिया. लेकिन तब स्थितियां इतनी खराब थीं कि कुछ मुद्दों पर तुरंत स्टैंड लेना जरूरी हो गया था. हमें दहेज के नाम पर जल रही और रोज घरेलू हिंसा का शिकार हो रही लड़कियों को बचाना था. आज तो स्थिति काफी बेहतर है. लड़कियां पढ़ रही हैं और नौकरियां कर रही हैं. काफी बदलाव आया है. लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.’
सती प्रथा, दहेज, बलात्कार और लैंगिक भेदभाव के सवाल से गुजरते हुए भारतीय महिला विमर्श अब पिंक चड्डी कैंपेन और स्लट वॉक तक आ पहुंचा है. दहेज हत्याएं और बलात्कार आज भी बंद नहीं हुए हैं, उल्टे खाप पंचायतों के साथ-साथ भारत के तमाम शहरों में सम्मान के नाम पर मारी जा रही लड़कियां समाज में पनप रही सांस्कृतिक पुनरुत्थान की लहरों का पक्का सबूत हंै. कई हिस्सों में लड़कियों का लिंगानुपात आज भी कम है. सामाजिक कार्यकर्ता मधु किश्वर तस्वीर का दूसरा पहलू दिखाते हुए कहती हैं, ‘आज हर मुद्दे की तरह महिला सशक्तीकरण का मुद्दा भी गैर-सरकारी संगठनों ने हाइजैक कर लिया है. खाप भी तो इसी देश का हिस्सा हैं. वे जैसा कर रही हैं वैसा क्यों कर रही हैं, यह जानने के लिए आपको उनके गांव जाकर उनसे बात करनी होगी. सिर्फ इसलिए कि आपको अंतरराष्ट्रीय फंड चाहिए, आप अपनी प्रसिद्धि के लिए टीवी चैनलों पर उन्हें गालियां देते रहेंगे तो इससे महिलाओं का भला नहीं होने वाला.’
समाज की पारंपरिक बेड़ियां तोड़कर जैसे ही स्त्री घर की देहरी से बाहर निकलती है, उस पर आरोप लगता है कि उसने स्वतंत्रता के नाम पर अपने आप को बाजार के हवाले कर दिया है. परंपरा बनाम बाजार की इस बहस पर लेखक एनी जैदी कहती हैं, ‘यह बहुत पेचीदा पहलू है. इसका फैसला हमें महिलाओं पर ही छोड़ देना चाहिए. हो सकता है हम गलती करें, लेकिन हमें भी गलती करके सीखने का हक है. और जहां तक महिला को उपभोग की वस्तु में बदलने का सवाल है तो खरीदा उसे ही जा सकता है जो बिकने को तैयार हो. महिलाएं अपनी जिंदगी की कमान खुद अपने हाथों में लें और अपने को वस्तु में बदलने की अनुमति किसी को न दें.’
सुनयना जैसी लाखों भारतीय महिलाएं रोज अपने घरों से बाहर निकलकर आत्मविश्वास से दुनिया का सामना करते वक्त कहीं-न-कहीं उन तमाम महिला आंदोलनों और कार्यकर्ताओं के प्रति कृतज्ञ महसूस करती हैं जिनके अथक परिश्रम की वजह से आज वे अपनी जिंदगियों के फैसले खुद ले पा रही हैं. भौगोलिक और सामाजिक विभिन्नताओं से उपजे बिखराव के बावजूद इन आंदोलनों ने भारतीय महिलाओं को ऊपर उठाने में बड़ी भूमिका निभाई. हालांकि भारत में आज भी ऐसी लाखों महिलाएं हैं जो अवसरहीनता के अंधेरे में जी रही हैं. इस लिहाज से भारतीय महिला आंदोलनों की एक बड़ी कमी यह रही है कि छिटपुट उदाहरणों से इतर ये बड़े स्तर पर निचले तबके की महिलाओं के साथ खुद को नहीं जोड़ पाए हैं. ऐसा इसलिए भी हुआ है कि ये आंदोलन और परिवर्तन समाज के सबल ऊपरी तबके ने निचले तबके पर लगभग थोप दिए. जबकि स्थायी परिवर्तन तब होगा जब महिला सशक्तीकरण की बयार भारत के 29 प्रदेशों और सात केंद्र शासित प्रदेशों में फैले छोटे-छोटे गांवों और कस्बों से उठती हुई शहरों की तरफ जाएगी.