भारत की होलसेल प्राइस इन्फ्लेशन (थोक बिक्री कीमत में वृद्धि) फिर सबकी निगाहों में हैं। इसकी एक वजह 54 महीनों में सबसे ज्य़ादा जून 2018 में बढ़ी महंगाई है। होलसेल मूल्य महंगाई में बढ़ती ऊंचाई की वजह पेट्रोल की बढ़ती जाती कीमत, महंगा भोजन दूसरे बनाए गए माल और सेवाओं के चलते हैं। लेकिन होलसेल प्राइस इन्फ्लेशन सबसे बड़ी महंगाई साढ़े सात साल में 5.77 फीसद पर रहता है। ऊंचा रहना देश के लिए चिंता का मुद्दा था।
होलसेल प्राइस से हुई महंगाई में बढ़ोतरी से रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) को भले कोई चिंता नहीं हो क्योंकि आरबीआई रिटेल इन्फ्लेशन पर ही ध्यान देता है क्योंकि तब ब्याज दरें बढ़ानी पड़ती हैं।
कुल मिला कर सारी मोनेटरी पालिसी (मुद्रा नीति) के तमाम सूत्र कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स पर निर्भर करते हैं लेकिन ये होलसेल प्राइस इंफ्लेशन पर भी निर्भर हैं। बहुत कम ही ऐसा होता है कि होलसेल प्राइस इंडेक्स का महत्व न हो।
देश का संकट बढ़ाने में रिटेल इंफ्लेशन का कम हाथ नहीं है। जो ज्य़ादातर उछाल ही दिखती है। सिर्फ मई 2018 में उपभोक्ता मूल्य सूचांक ने चार फीसद की उछाल ली और अब यह पांच फीसद तक हो गया है। चार फीसद पर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक सिर्फ एक फीसद होता है यानी यह खतरे के निशान छह फीसद से एक ही फीसद कम है। ऐसी स्थिति में इस बात का नोटिस लिया जाना कि आरबीआई को रेपो रेट को 25 बेसिस (आधार) प्वाइंट से मई 2018 में बढ़ाना पड़ा। जब उपभोक्ता मूल्य सूचकांक चार फीसद हो गया।
दोहरी मार
ऐसे परिदृश्य में आरबीआई के पास और कोई चारा नहीं होता कि वह ब्याज दर बढ़ाए जिससे महंगाई पर रोक लग सके। आरबीआई को ऐसा कदम इसलिए उठाना पड़ता है जिससे गरीबों को वर्तमान और भविष्य में मूल्यवृद्धि से बचाया जा सके। जब भी ऐसा होता है तो नुकसान उद्योग का होता है क्योंकि इस आरबीआई से अपनी दरों में कटौत की उम्मीद नहीं होती। लेकिन उत्पादन क्षेत्र और सेवा क्षेत्र ज़रूर इसके प्रभाव में आते हंै और वृद्धि दर तो अपने आप प्रभावित होती ही है।
कच्चे तेल की कीमतों में पिछले दिनों बढ़ोतरी के अंदेशे पर ‘तहलकाÓ ने अपनी स्टोरी ‘फयूएल ऑन फायरÓ में चेतावनी दी थी। जून के औद्योगिक उत्पादन के ब्यौरे से साफ होता है कि कितने मैक्रो इकॉनामिक क्रियाकलापों पर जून 2018 में 214 बेसिस प्वाइंट का असर रहा। इन तमाम मुद्दों के चलते महंगाई जो फरवी 2018 में 4.55 प्वाइंट पर भी वह बढ़कर जून में 16.18 फीसद पहुंच गई। आहार, फल और सब्जियों के भाव मई में जहां 2.5 फीसद थे वे जून में 8.12 हो गए। उत्पादन क्षेत्र में भी महंगाई ने खासी उछाल ली। इसमें एलॉय स्टील कोएिटंग, स्टेनलेस, स्टीलट्यूब से तांबे की प्लेट और एल्यूमिनियम शीट्स पर भी महंगाई का असर 17.34 फीसद रहा।
आईएमएफ की भविष्यवाणी
अपनी नवीनतम रिपोर्ट में इंटरनेशनल मोनेटरी फंड (आईएमएफ) ने भारत की वृद्धि दर दस बेसिस प्वाइंट से घटा कर 7.3 फीसद 2018-19 के लिए रखी है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इसने विकास दर को 30 बेसिस प्वाइंट से 7.5 फीसद पर घटा कर 2019-20 के लिए तया किया गया है। इससे महंगाई कितनी बढ़ेगी जबकि सरकार ने पहले ही खरीफ फसल के लिए अधिकतम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) घोषित कर दिया है जिसका असर मंहगाई बढ़ाने पर पड़ेगा ही।
देश के आम चुनाव को साल भर से भी कम समय है। उम्मीद है कि सरकार कई लोकप्रिय योजनाएं घोषित करेगी जिससे मतदाता सत्तासीन दल को अपना वोट दें। इससे और ज्य़ादा वित्तीय घाटा बढ़ेगा और आर्थिक विकास पर असर पड़ेगा। मानसून इस साल भी खासा कमज़ोर है इससे भी अर्थ-व्यवस्था पर असर पड़ेगा।
एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) ने भी भारत में महंगाई का अंदेशा 2018-19 में 4.6 फीसद से बढ़ा कर पांच फीसद आंका है। इसके भी तर्क कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी रु पए की डांवाडोल स्थिति और न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी पर आधारित है। एशियन डेवलपमेंट आउटलुक (एडीओ) ने अप्रैल में अपनी रपट में महंगाई के ऊंचे ग्राफ को दिखाया था जिसकी वजह तेल की ज्य़ादा कीमत और पिछले कुछ महीने में रु पए का डांवाडोल होना और चार जुलाई को घोषित गर्मी की फसलों के लिए घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य है। सरकार इसमें इसलिए दखल देती है जिससे बाजार में कृषि उत्पादकों की रक्षा हो साथ ही कृषि उत्पाद मूल्य में तेजी से गिरावट न आए। आईएमएफ ने भारत के विकास लक्ष्य को दस बेसिस प्वाइंट से घटा कर 7.3 फीसद कर दिया और तेल की बढ़ती कीमतों और आरबीआई की ब्याज दरों में बढ़ोतरी को बताया।
उमीद है अभी भी
एडीवी का कहना है कि भारत अपनी पुरानी विकास दर यानी 2018-19 में 7.3 फीसद 2019-20 में 7.6 फीसद हासिल कर सकता है यदि इसे गुड्स एंड सर्विस टैक्स से 2017-18 में ज्य़ादा आमदनी हो। 2017-18 में यह भारतीय अर्थ-व्यवस्था बढ़ कर 6.7 फीसद हुई। एडीबी का कहना है कि विकास को गति मिली 2017-18 के क्यू 4 में जहां जीडीपी का विस्तार बढ़ कर 7.7 हो गया।
जो रपट एडीबी की है उसमें बताया गया है कि विकास के दूसरे पैमाने हैं उनमें जनता में खपत में बढ़ोतरी और निर्यात से आमदनी और नए जीएसटी टैक्स के चलते काम शुरू करते हुए लगने वाली पूंजी में कमी के बल पर है। निजी खपत में बढ़ोतरी हो सकती है जो 2016 में हुई नोटबंदी से प्रभावित हुआ था। कैपेसिटी यूटीलाइजेशन की दरें पिछले चार सालों में अपनी खासी ऊंचाई पर आ चुकी हैं और इन्हें अब उन फर्म केा मदद देनी चाहिए जो निवेश करना चाहें।
हालांकि कई विचारक इस अंदेशे को नहीं नकारते कि आरबीआई जल्द ही दरों में बढ़ोतरी नहीं करेगा। आरबीआई ने छह जून 2018 को रेपो रेट में 25 बेसिस प्वाईट बढ़ाए और उसे 6.25 फीसद कर दिया। यह दर बढ़ाने का चार साल में पहला मौका था क्योंकि ऐसा अंदेशा था कि महंगाई बढ़ सकती है।
जो आर्थिक सर्वे 2017-18 का 29 जनवरी 2018 को आया था उसमें अनुमानित था कि प्रति बैरेल दस डालर की बढ़ोतरी होने पर तेल की कीमतों में आए उछाल से आर्थिक विकास 0.2-0.3 फीसद पवाइंट घटता है और यह होलसेल इन्फ्लेशन को 1.7 फीसद प्वाइंट बढ़ाता है और वर्तमान खाते में जो घाटा डालर 9-10 बिलियन का है वह और बढ़ जाता है।
दरअसल हो यही रहा है और सह थ्योरी फिर वही साबित हो रहा है कि होलसेल प्राइस इंडेक्स में बढ़ोतरी का मतलब है अर्थ-व्यवस्था के लिए ढेर सारी मुसीबतें।