अबदुनिया के हर धर्म में धार्मिकता खुलेआम बिक रही है। जो नहीं ख़रीद सकते, उन्हें धर्मों के तथाकथित ठेकेदार धार्मिक अड्डों और अनुष्ठानों से दूर रखते हैं। उनका सम्मान नहीं करते। उनको हेय दृष्टि से देखते हैं। उन्हें धर्म से अवगत तक नहीं कराना चाहते। उन पर अपना प्रभावहीन आशीर्वाद नहीं देते। अगर कोई धार्मिक कार्यों में उनके आगे आ भी जाए, तो उसे सबसे अन्तिम पंक्ति में खड़े होने का भी अधिकार बमुश्किल मिलता है। धर्म के तथाकथित ठेकेदारों की इन्हीं हरकतों के चलते कट्टरपंथी और धार्मिकता की अग्रिम पंक्ति में खड़े लोग भी धनहीनों से घृणा करते हैं।
ये वही लोग हैं, जो धर्म के तथाकथित ठेकेदारों के सबसे अधिक प्रिय और पूज्यनीय हैं। इन लोगों में पूँजीपति, जातिगत आधार पर तथाकथित स्वयंभू, राजनीतिक पहुँच रखने वाले और बड़े पदों पर बैठे हुए लोग हैं। धर्मों के ठेकेदार इनके चरणों में बिछ जाते हैं। धन के लालच में इनकी उलटी चरण वंदना करते हैं। धार्मिकता का यही ढोंग लोगों को वास्तविक धर्म पालन से दूर कर रहा है और हर धर्म में ज़्यादातर लोग रूढ़ीवाद, पाखण्डवाद, दिखावा आदि के शिकार हो रहे हैं। पूँजीपति, जातिगत आधार पर तथाकथित स्वयंभू, राजनीतिक पहुँच रखने वाले और बड़े पदों पर बैठे हुए लोग अपनी-अपनी हैसियत से क़ब्ज़ाये हुए हक़ों और संसाधनों की तरह ही धर्म और ईश्वर को भी अपनी बपौती समझ रहे हैं। यह सब धर्मों के तथाकथित ठेकेदारों द्वारा इन लोगों की चरण वंदना के चलते हो रहा है।
हाल यह है कि आज हर धर्म की नींव धन की धरती पर दानदाता रूपी खम्भों के सहारे खड़ी हो चुकी है। इन दानदाताओं के आवश्यकता से अधिक दान करने के चलते धर्मों के तथाकथित ठेकेदारों ने अमीरों और ग़रीबों के बीच भेदभाव की एक खाई खोद रखी हैं। इसी के चलते ग़रीब वर्ग अपने-अपने धर्म से कट चुका है। इस वर्ग के लिए अपने धर्म की चंद परम्पराओं को मनाने के अलावा धर्म का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। बहुत प्रताडि़त ग़रीब वर्ग सम्मान पाने के लिए अपने से इतर धर्म की तरफ़ लालसा से देख रहा है।
एक और वर्ग धर्मों की पंक्तियों में खड़ा है। इस वर्ग के पास धन तो है; लेकिन धर्मों के तथाकथित ठेकेदारों की लालसा से कम है। यह सर्वहारा अर्थात् मध्यम वर्ग है। यह सबसे ज़्यादा धार्मिक वर्ग है। रूढिय़ों और पाखण्डवाद में यही वर्ग सबसे ज़्यादा फँसा हुआ है। धर्मों के तथाकथित ठेकेदारों के पाँव सबसे ज़्यादा यही वर्ग पूजता है। लेकिन दुर्भाग्य से इस वर्ग से भी धर्मों के तथाकथित ठेकेदार दूरी बनाकर रखते हैं। उन्हें इस वर्ग से भी घृणा है; लेकिन उसके समक्ष वे इस घृणा को ग़रीब वर्ग की तरह अति घृणा करके ज़ाहिर नहीं होने देते, ताकि इस वर्ग को बुरा न लग जाए। इस वर्ग के साथ धर्मों में दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। लेकिन जब दूसरे धर्मों के लोगों पर हमला करने की नौबत आती है, तो धर्मों के तथाकथित ठेकेदार इसी वर्ग के लोगों को आगे करते हैं।
यह उग्र वर्ग हर धर्म में है। इसे ईश्वर और धर्म की रक्षा करने का ठेका दिया गया है। ठीक वैसे ही, जैसे किसी अन्धे के हाथ में जलती हुई मशाल दे दी गयी हो। या किसी आज्ञाकारी सनकी के हाथ में हथियार दे दिया गया हो। अन्धा मशाल लेकर जहाँ भी जाएगा, आग लगने की सम्भावना बनी रहेगी। सनकी को जैसे ही उसका मालिक इशारा करेगा, वह किसी को भी मार देगा। धर्म और ईश्वर की रक्षा की मूर्खतापूर्ण भूल करने वाले इस वर्ग का भी यही हाल है। इस वर्ग को ऐसा करने के लिए मनगढ़ंत स्वर्ग / जन्नत के सपने दिखाये जाते हैं। दूसरे धर्म के लोगों के प्रति हिंसा करने के लिए उकसाया जाता है। ये लोग एक धार्मिक नारा लगते ही उग्र और उन्मादी हो जाते हैं।
अब लोगों में अपने धर्म की किताबें पढक़र कुछ सीखने की इच्छा नहीं है। वे अपने तथाकथित धर्म गुरुओं की सीखों को ही धर्म समझने की भूल कर रहे हैं। चाहे ये तथाकथित धर्म गुरु धर्म के बारे में कुछ भी न जानते हों। उनके गुरु होने की इतनी ही शर्त का$फी है कि वे पाखण्डी, धूर्त हों, और आडम्बर करने वाले हों। इसी के चलते अब हर धर्म में उग्र और उन्मादी लोग पैदा हो रहे हैं। दु:खद यह है कि उन्हें इसी में आनन्द आ रहा है।
धर्मों के तथाकथित धनपिपासु ठेकेदारों की दुकानें ऐसे ही चल रही हैं। उन्होंने धार्मिक स्थलों के दरवाज़े दानदाताओं की जेब की हैसियत के हिसाब से खोले हुए हैं। ऐसे लोगों के लिए यह पंक्ति सटीक ही है-‘होत न आज्ञा बिन पैसा रे।’ अर्थात् धर्मों के ये तथाकथित ठेकेदार धार्मिक स्थलों में प्रवेश की आज्ञा बिना पैसे के नहीं देते। हालाँकि यह पंक्ति हनुमान चालीसा की एक पंक्ति ‘ होत न आज्ञा बिनु पैसारे’ में थोड़ा-सा बदलाव करके मैंने आजकल की धार्मिकता के अर्थ में उपयोग की है। यह अर्थ इस दौर में बिलकुल सटीक लगता है। हनुमान चालीसा की पंक्ति का अर्थ- ‘राम के दरबार में कोई भी आपकी (हनुमान की) आज्ञा के बिना प्रवेश नहीं कर सकता’ है।