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सुगंधा, 35 साल,24 नवंबर, 2012; रात 11 बजे, भोपाल
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आज शाम बंदनी ने आकर पुराने जख्मों को जैसे हरा कर दिया. पता नहीं मेरा अतीत कब मेरा पीछा छोड़ेगा? घंटों रोने के बाद खुद ही चुप हो गई. खुद को अकेले सांत्वना देकर संभालने की भारी जिम्मेदारी आपको अपने अकेलेपन का तीखा एहसास करवाती है. फिर एक वॉक के लिए बाहर निकली थी. नवंबर की सर्दियों में भोपाल और भी खूबसूरत हो गया है और खूबसूरती का अपना एक अलग अवसाद है. आजकल वॉक पे जाती हूं तो और ज्यादा उदास होकर लौटती हूं.
पता नहीं मैं बंदनी से बात करने के लिए राजी ही क्यों हुई. वो महिलाओं की स्थिति पर कोई शोध कर रही है. दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ती है. महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा वाले सेक्शन के लिए मुझसे बात करना चाहती थी. जब उसका फोन आया तब मुझे अचानक लगा कि बलात्कार कैसे आपको ताउम्र जिज्ञासा का विषय बना देता है. हां, मुझे अभी तक विश्वास नहीं होता कि यह हुआ था. मेरा बलात्कार हुआ था. आज से 13 साल पहले जब मैं एक 22 साल की लड़की थी. सुंदर, हंसमुख, चंचल, बुद्धिमान, तेज और हां, एक नेशनल मैगजीन में फोटो-जर्नलिस्ट भी ! मैं पिछले 10 साल से बंदिनी चट्टोपाध्याय या उसके जैसे किसी भी इंसान से नहीं मिली जो मेरे अतीत के बारे में बात करना चाहता हो. उस घटना के बाद मैं दिल्ली से भोपाल आ गई. वोटर आई-डी और दूसरे जरूरी दस्तावेजों में अपना नाम बदलवाया और श्यामला पहाड़ी पर बने अंसल अपार्टमेंट में एक छोटा सा घर किराये पर लेकर रहने लगी. एक ऐसे अनजान शहर में, जहां लोग मेरे साथ हुई हिंसा की छाप मेरे चेहरे पर न पढ़ सकें. कुछ महीनों बाद पास ही बने मानव संग्रहालय की लाइब्रेरी में काम मिल गया और धीरे-धीरे मैं अपने आस-पास गुमनामी और अकेलेपन की एक मजबूत दीवार खींचने में सफल हो गई. लेकिन मिरांडा हाउस की प्रोफ़ेसर मिश्रा ने बंदिनी को मेरा पता दिया और पहचान छुपा कर मेरा ‘केस’ भी अपने शोध में शामिल करने को कहा. हालांकि प्रोफ़ेसर मिश्रा मेरी एचओडी भी रह चुकी हैं लेकिन शायद फिर भी मैं बंदिनी से बात करने के लिए राजी नहीं होती. लेकिन जब प्रमोद ने इतना इन्सिस्ट किया तो मुझे आखिरकार हां करनी ही पड़ी. अब प्रमोद को मना करना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल है. उसने बहुत मुश्किल वक्त में मेरा साथ दिया है… लगातार… सालों तक… वो भी बिना किसी अपेक्षा के.
बंदिनी से बात करके ऐसा लगा जैसे किसी ने परत दर परत मेरे जख्मों पर जमी वक्त की पपड़ी को खरोंच कर निकाल दिया हो. एक फोटो-जर्नलिस्ट के तौर पर असाइनमेंट्स के लिए जाते वक्त मुझे कभी नहीं लगता था कि मेरे साथ भी ऐसा हो सकता है. और सच में, काम के सिलसिले में अलग-अलग राज्यों की मुश्किल जगहों पर जाते समय मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ लेकिन मेरी अपनी दिल्ली मुझे वो सुरक्षा नहीं दे पाई जिसकी आस लगा मैं हर रोज इस शहर की सड़कों पर मुस्कुराते हुए निकला करती थी. आम तौर पर रोजमर्रा की छेड़छाड़ और इव-टीजिंग से ज्यादा कुछ नहीं होता था. तब मुझे भी लगता था कि इससे ज्यादा कुछ नहीं होगा. लेकिन मैं गलत थी. अब सोचती हूं तो लगता है कि अगर इव-टीजिंग के खिलाफ आवाज उठाई होती तो शायद इतने हिंसक अंत से बच सकती थी.
‘शायद अगर मेरे आस-पास के लोगों ने विक्टिम के बजाय एक इंसान मानकर मेरा साथ दिया होता तो तस्वीर कुछ और होती’
लड़कों का एक झुंड मेरे हॉस्टल के पास वाली शराब की दुकान पर हमेशा खड़ा रहता था और आते-जाते मुझ पर फब्तियां कसता. मैं अनदेखा कर देती और अपने काम में लग जाती. फिर एक रोज मुझे दफ्तर से लौटने में थोड़ी देर हो गई. रात के साढ़े ग्यारह बजे मुझे ऑफिस की बस ने हॉस्टल के सामने वाले चौराहे पर ड्रॉप किया. 1999 में दिसंबर की ठंड थी और पूरी कालोनी में निपट सन्नाटा था. उन दिनों दिल्ली की कालोनियों में ऐसे चौकीदार और लोहे के गेट्स नहीं हुआ करते थे जैसे आज होते हैं. मैं अपनी जैकेट का कैप सर पर डाले हॉस्टल की तरफ चल ही रही थी कि अचानक एक टाटा-सूमो तेजी से मेरे बगल में आकर रुकी. यह वही टाटा-सूमो थी जो अक्सर मेरे हॉस्टल के पास वाली शराब की दुकान के आगे खड़ी रहती थी. इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाती कुछ अनजान हाथों ने मेरे मुंह पर एक बड़ा सा कपड़ा दबाया और मुझे गाड़ी के अंधेरे में खींच लिया गया. उस कपड़े में बेहोशी की दवा मिली थी और धीरे-धीरे मेरी आंखें बंद होने लगीं.
शुरुआती स्मृतियां आज भी ताजा हैं, हर दिन रिसते एक घाव की तरह. मुझे याद है कि मैं लगातार चिल्ला रही थी और वो लोग मुझे लगातार थप्पड़ मार रहे थे. वो पांच आदमी थे, दो आगे और तीन पीछे. पीछे की सीट पर बैठे तीनों लोग मुझे लगातार मुक्के मार रहे थे. मेरी पीठ और पसलियां जैसे टूट गई थीं. बालों को खींचकर दरवाजा खोलने वाले हैंडल से बांध दिया था ताकि मैं उठने की कोशिश न कर सकूं. मेरे कपड़े फाड़ दिए गए थे. धीरे-धीरे मैं होश खो रही थी लेकिन अजनबी निगाहों द्वारा अपने शरीर को देखे जाने को मैं महसूस कर सकती थी. मैं लगातार रो रही थी, चिल्ला रही थी. मुझे उल्टी आ रही थी. वो लोग एक-एक करके मेरे अंदर दाखिल होते गए और मुझे मारते रहे. गाड़ी तेजी से भाग रही थी और मुझे लगातार अपने शरीर के ऊपर और अंदर पड़ रही मार महसूस हो रही थी. हिंसा का यह तांडव सुबह तक चलता रहा. पौ फटते ही उन्होंने मुझे दिल्ली-हरियाणा हाइवे पर बने खेतों के किनारे फेंक दिया. मुझे याद है, मेरे फटे हुए सर से गालों पर टपकते खून की गर्म बूंदें. बालों को कैंची से टेढ़ा-मेढ़ा काट दिया गया था. जांघों से भी खून रिस रहा था. शरीर से टपकते खून की गंध पाकर घास के कीड़े और पतंगे मुझ पर रेंगने लगे थे. दिसंबर के कोहरे में घास पर पड़ी ओस के बीच मैं शायद गटर में सड़ रही किसी अधनंगी लाश सी लग रही हूंगी. मैं लगातार कराह रही थी. रोते-रोते मुझसे अपने कपड़ों में ही पेशाब हो गई थी. धीरे-धीरे मैं अपने फटे हुए कपड़ों से अपने शरीर को ढकने की कोशिश करने लगी. लेकिन अचानक पेट में तेज दर्द हुआ और सब धुंधलाने लगा. फिर जब मुझे होश आया तब मैं अस्पताल में थी. मां-पापा, विनोद, पुलिस, मां और डाक्टर्स के साथ मेरे पुराने आफिस के लोग भी खड़े थे.
पांच साल की जद्दोजहद के बाद आखिरकार उनमें से चार को 10-10 साल की सजा हुई. एक की मौत पहले ही एक्सीडेंट में हो गयी थी. पांच साल के दौरान मुझे हर रोज उसी त्रासदी से गुजरना पड़ता. अदालतों, अस्पतालों और सरकारी दफ्तरों में लोगों की नजरें और सवाल हर रोज मेरा फिर से बलात्कार करते. इस हर रोज की पीड़ा से बचने के लिए मैं तीन साल बाद भोपाल आ गई. मां-पापा का आरोप कि यह सब कुछ मेरे कैमरे और नौकरी की वजह से हुआ है, हर बार मुझे भीतर तक तोड़ देता. रिश्तेदार, पड़ोसी, कलीग्स…सबको लगता है कि मैं एक बुरी लड़की थी जो रात को इतनी देर से काम से वापस आती थी… और माडर्न कपड़े पहनती थी… इसलिए मेरा रेप हुआ. मैं अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी रहती और सब दबी-छिपी जबान से मेरे ही पीछे कहते रहते कि मेरे जैसी ‘फारवर्ड’ लड़कियों के साथ तो ऐसा होता ही है. फिर मेरे पापा ने सबके सामने मेरा कैमरा तोड़ दिया था.
कई बार विनोद ने कहा कि मैं फिर से फोटोग्राफी शुरू करूं लेकिन मैं उसे कैसे समझाऊं कि जब मेरे लिए अपनी जिंदगी को दोबारा पकड़ना इतना मुश्किल है तो मैं कैमरा दोबारा कैसे पकडूं? आज भी मेरा इलाज चल रहा है. कभी-कभी मेरी पसलियां और कमर बहुत तेज दुखने लगती हैं. मैं अनजान लोगों के साये से भी डरती हूं. पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल नहीं करती. हर चीज और इंसान पर शक करती हूं. विनोद की लाख कोशिशों के बावजूद मैं अवसाद से नहीं निकल पाती. उसने बहुत धीरज धरा है और तब मेरा साथ दिया जब मां-पापा ने भी छोड़ दिया था. वो नहीं होता तो मैं अपने आप को कब का खत्म कर चुकी होती. उन जानवरों को सजा दिलवाने के लिए उसने दिन-रात एक कर दिए. हम दोनों को लगता था कि उन्हें सजा मिलने के बाद शायद मैं ठीक हो जाऊंगी. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया.
शायद मैं जिंदगी भर अपने बलात्कार से नहीं निकल पाऊंगी. शायद अगर मेरे आस-पास के लोगों ने विक्टिम के बजाय एक इंसान मानकर मेरा साथ दिया होता तो तस्वीर कुछ और होती. लेकिन मेरी आस-पास की दुनिया ने मुझे हमेशा ‘बेचारी’ बनाए रखा. विनोद ने मुझे जिंदा तो रख लिया लेकिन वह इस समाज से मेरे लिए पूर्वाग्रहों और तानों से दूर एक दूसरी जिंदगी नहीं मांग पाया. मैं आज भी ‘बेचारी’ हूं और पिछले 13 सालों से उस अपराध की सजा भुगत रही हूं जो मैंने कभी किया ही नहीं. आज बंदिनी से बात करते वक्त रो पड़ी. जाते-जाते उससे कहा कि काश हम एक ऐसी दुनिया बना पाते जिसमें रेप विक्टिम्स को स्नेह और सम्मान के साथ जीने का दूसरा मौका दिया जाता… जहां उसके अपराधियों को कोसा जाता… उसे नहीं… और जहां पीड़ित को ‘खराब चरित्र वाली महिला’ कहकर बहिष्कृत करने के बजाय उन लोगों का बहिष्कार किया जाता जो किसी इंसान को इस तरह नोच-नोच कर खाते हैं. बंदिनी ने मुझे गले लगाया और बोली, ‘मैं ऐसी ही दुनिया बनाने के लिए काम कर रही हूं सुगंधा! विश्वास रखो, हम तब तक कोशिश करेंगे जब तक हम ऐसी दुनिया नहीं बना लेते!’
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नमिता, 38 साल
1 दिसंबर, 2012; दोपहर 2.30 बजे, लखनऊ
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अभी-अभी फैमिली कोर्ट से आ रही हूं. अदालत में आज पूरे दो महीने बाद कुणाल को देखा. तलाक के कागजात पर दस्तखत करते वक्त उसके चेहरे पर शिकन या ग्लानि की छाया तक नहीं थी. उसने ब्लू कलर की शर्ट पहनी थी. मैं उससे हमेशा कहती थी कि उस पर नीला रंग बहुत फबता है. शादी से पहले जब हम पहली बार साथ नाटक देखने गए थे तब भी कुणाल ने नीली शर्ट ही पहनी थी. लेकिन यह कमीज उन तमाम नीली कमीजों में शामिल नहीं थी जिन्हें मैं उसके लिए जगह-जगह से खरीद कर लाती रही हूं. शायद मीरा लाई होगी. मीरा… मीरा अब हर जगह है… कुणाल की शर्ट के रंगों से लेकर उसके खाने की पसंद तक… उसके डियोड्रेंट की खुशबू… उसके कमरे के पर्दों… उसके मोबाइल के वालपेपर… और इन सबसे ज्यादा… मीरा कुणाल की हंसी तक में शामिल है…उसके दिल में मौजूद है. वो उसके साथ, उसके नए फ्लैट में रहती है. उसके कमरे में, उसके बिस्तर पर… उसके साथ सोती है. उस आदमी के साथ, जिससे 13 साल पहले मेरी शादी हुई थी… और जिससे आज मैंने तलाक ले लिया है.
जब मैं छोटी थी तब फिल्मों और टीवी सीरियलों में लोगों को लड़ते और रिश्तों को टूटते हुए देखकर हमेशा अपने आप से कहती, ‘अरे, ये लोग इतना लड़ क्यों रहे हैं? एक-दूसरे को छोड़ क्यों रहे हैं? एक-दूसरे को मना क्यों नहीं लेते? ‘सॉरी’ क्यों नहीं बोल देते?” तब मुझे लगता था कि हर उलझन ‘सॉरी’ बोलकर सुलझाई जा सकती है. अब जब उम्र ढलान पर है और जब सारी कोशिशों के बाद रिश्ते मेरे सामने टूट रहे हैं तो इंसानी सीमाओं का तीखा एहसास मुझे हर रोज सालता है.
त्रासदी से चिपके रहना सबसे बड़ी त्रासदी है… इसलिए अब मैं सिर्फ अपने काम पर ध्यान देना चाहती हूं. आज… पूरे दो साल की प्रताड़ना के बाद मैं आजाद महसूस कर रही हूं और मुझे विश्वास हो गया है कि मैं अपने आप को संभाल लूंगी.
दो साल के अलगाव और तमाम कानूनी पेचीदगियों के बाद आज आखिरकार मेरा तलाक हो ही गया है. उम्र लगभग 38 पार हो चली है और शरीर के साथ-साथ जिंदगी भी जैसे बुझने सी लगी है. मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरा भी तलाक हो सकता है. मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि अगर शादी के नौ साल बाद मेरे पति को किसी दूसरी औरत से प्यार हो जाए तो मुझे क्या करना चाहिए! हां, मुझे याद है… हम अपनी शादी की नौवीं सालगिरह मना भी नहीं पाए थे… कुणाल ऑफिशियल टूर पर गया था. मैं रात के नौ बजे से उसे फोन कर रही थी. फोन पर बातें भी क्या होती थीं… सिर्फ यह कि खाना खाया या नहीं और घर कब आ रहे हो. उस रात जब उसने 12 बजे तक फोन नहीं उठाया तो मैंने उसके होटल में फोन किया. रिसेप्शन ने कॉल उसके कमरे में ट्रांसफर कर दिया.
उस रात मैंने पहली बार मीरा की आवाज सुनी थी. उनींदी हुई तीखी आवाज़. ‘हैलो? कुणाल सो रहे हैं. आप सुबह फोन करिएगा.’ रिसीवर मेरे हाथ में जम सा गया था. पांच मिनट तक मैं सन्न बैठी रही. फिर सोचा शायद कोई गलतफहमी हुई होगी इसलिए दोबारा फोन किया और चिल्लाते हुए मीरा से कहा, ‘मैं कुणाल की पत्नी मीता बोल रही हूं. तुरंत कुणाल को फोन दो.’ कुणाल के मुंह से शब्द नहीं फूट रहे थे और यहां मैं रोए जा रही थी. रात के सन्नाटे में मैंने अपने आप को खत्म करने की कोशिश भी की थी. आज सोचती हूं तो लगता है क्या बचकाना हरकत थी! लेकिन उस लम्हे में मैं दिल्ली की एक मशहूर न्यूज एंकर, अंग्रेजी अखबारों की कालमिस्ट और दो किताबों की लेखिका नहीं…सिर्फ एक प्रेमिका… एक पत्नी और सबसे ज्यादा… एक इंसान थी… जिसका दिल टूट चुका था. मैंने चाकू से अपना हाथ काटने की कोशिश की और उसकी नोक तब तक अंदर धंसाती रही जब तक मुझे अपनी हड्डी महसूस नहीं हुई. प्रेम में किसी तीसरे के दाखिल होने से उपजने वाली ईर्ष्या से ज्यादा तकलीफदेह शायद कुछ नहीं हो सकता. ऐसा लगता है जैसे कोई आरी से आपके शरीर को चीर रहा है और आप कतरा-कतरा मरने के सिवा कुछ नहीं कर सकते. कुणाल अगली ही फ्लाइट से वापस आ गया लेकिन तब हमारा घर टूट चुका था. इन्फिडेलिटी हमेशा संवेदना के सारे रास्तों को खत्म करके ही अपना रास्ता बनाती है. कुणाल ने मुझे बताया कि उसका और मीरा का रिश्ता पिछले एक साल से चल रहा था. उसने सिर्फ इतना कहा कि उसे मीरा से प्यार हो गया है और अब वो मुझसे तलाक चाहता है.
प्यार हो गया है? क्या मतलब कि उसे प्यार हो गया है? अरे, इस बीच आकर्षण तो मुझे भी कई आदमियों से हुआ था… उनमें से कई कुणाल से बहुत बेहतर थे… कई मायनों में… तो क्या मैंने उनसे रिश्ता बना लिया? आकर्षण तो सभी को महसूस हो सकता है. संभव है, प्रेम भी हो जाए. लेकिन क्या ‘लॉयल्टी’ और ‘साथ निभाना’ कोई मूल्य नहीं? खैर, मैं उस पर कोई जजमेंट पास नहीं करना चाहती. हम दोनों एक-दूसरे को कटघरे में खड़ा करके इस रिश्ते को अदालत में तब्दील करें… इससे बेहतर है कि हम चुप-चाप अलग हो जाएं.
‘मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि अगर शादी के नौ साल बाद मेरे पति को किसी दूसरी औरत से प्यार हो जाए तो मुझे क्या करना चाहिए’
हम शायद बहुत पहले ही अलग हो गए होते लेकिन जैसे ही मैंने तलाक का जिक्र किया… मां-पापा की तबीयत ही खराब हो गई. मुझे याद है, मां दहाड़ मार-मार कर रोने लगी थीं. फिर सिसकियां भरते हुए धीरे से बोलीं, ‘बेटा, मर्दों की तो आदत है यहां-वहां मुंह मारने की. पर ऐसी बातों पर शादी थोड़े ही तोड़ी जाती है. ये दिल्ली नहीं, लखनऊ है. लोग क्या कहेंगे? और गांव में हम क्या मुंह दिखाएंगे? दादा-परदादा और बिरादरी के लोग क्या कहेंगे? रिश्तेदारों को मैं क्या मुंह दिखाऊंगी? 38 साल की बेटी का तलाक? तू उससे अलग रहना चाहती है तो रह ले, लेकिन तलाक मत ले, बेटी. हम बहुत बूढ़े हो चुके हैं. अपनी अधेड़ बेटी के तलाकशुदा जीवन का बोझ ढोने के लिए अब हम बहुत बूढ़े हो चुके हैं.’
एक तो मैं खुद ही अपनी शादी के टूटने से बिखर गई थी और ऊपर से मां-पापा की बीमारी और तिरस्कार ने मुझे और तोड़ दिया. कुछ ही दिनों में रिश्तेदारों की फिजूल की समझाइशों का दौर शुरू हो गया. चाचा-चाची से लेकर बुआ और ताई तक सब के सब मुझ पर शादी न तोड़ने का दबाव बनाने लगे. किसी ने कुणाल को दोषी नहीं माना. उल्टा मुझे ही शादी बचाने की सलाह देते रहे! और मुझे महसूस हो चुका था कि उनका सरोकार मेरे बुढ़ापे से कम और अपने तथाकथित सामाजिक दंभ को बनाए रखने से ज्यादा था… ताई ने चिल्लाते हुए कहा भी था, ‘हमारे यहां आज तक कोई तलाक नहीं हुआ. ये लड़की पूरे समाज में इज्जत डुबो के ही मानेगी. आगे लड़कियों का ब्याह कैसे करेंगे?’ और सिर्फ परिवारवाले ही क्यों? ऑफिस के लोगों ने भी कोई कमी छोड़ी? सब मुझे कनखियों से देखकर मुस्कुराते ! मेरा तलाक मेरे मेल कलीग्स के लिए ‘मजे लेने’ का विषय बन चुका था. कुछ लोगों ने तो झूठी सहानुभूति दिखाने के चक्कर में अपना कंधा भी रोने के लिए पेश कर दिया !
परिवार, रिश्तेदार और दफ्तर की इन दुश्वारियों के बीच मेरा अपना टूटना जारी था. हर रात जब मैं बिस्तर पर आती, हमारे कमरे में बिताए हजारों खट्टे-मीठे पल आंखों के आगे तैर जाते… कुणाल के साथ देश-विदेश में बिताई छुट्टियां… छुट्टियों पर खरीदे गए तोहफे… उसका काफी का मग… उसका टूथ ब्रश… घर की वो तमाम चीजें जो हमने साथ मिलकर खरीदी थीं… हर चीज़ मुझे बीते वक्त की याद दिलाती.
लगभग छह महीने तक तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि मेरी शादी टूट रही है. लेकिन पिछले दो साल के दौरान तमाम मुश्किलों को एक साथ झेलते हुए मैंने बहुत कुछ सीखा है. मैंने जाना कि एक स्त्री के तौर पर मैं कितनी कमज़ोर और संवेदनशील हूं ! और शायद यही कमजोरी… यही आंसू… यही मुश्किलें मुझे मजबूत भी बनाती हैं. मैंने इनका सामना करना सीखा और कुणाल से तलाक ले लिया. मैंने किसी को नहीं बताया कि मुझे एक ऐसे आदमी के साथ रहने की जरूरत क्यों नहीं जो प्रेम के नौ साल बाद मुझे छोड़ सकता है. न मां-पापा को, न रिश्तेदारों को और न अपने दफ्तर के लोगों को. मैंने किसी को कुछ नहीं बताया और चुपचाप कुणाल से तलाक ले लिया. मैंने उसकी सैलरी और प्रॉपर्टी में मिल रहे हिस्से को भी ठुकरा दिया.
डायरी लेखन:प्रियंका दुबे; इलेस्ट्रेशन:मनीषा यादव