आजकल अगर झारखण्ड में किसी से पूछो कि आजकल क्या चल रहा, तो लोग कहते हैं- राजनीति। दरअसल झारखण्ड पिछले कई महीनों से अनिश्चितता के भँवर में फँसा है। एक ओर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की सदस्यता पर संकट और दूसरी ओर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की कार्रवाई ने झारखण्ड को विकास की पटरी से उतार दिया है। इन झंझावतों के बीच मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन एक के बाद एक ऐसे फ़ैसले लेते जा रहे हैं, जो उन्हें राजनीतिक रूप से मज़बूत बना सके। तो विपक्षी भाजपा वर्तमान सरकार के भ्रष्टाचार को उजागर करते हुए आन्दोलनरत है और उखाड़ फेंकने का आह्वान कर रही है।
इसी क्रम में राज्य के सबसे दो महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील मामले को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने छेड़ दिया है। उन्होंने स्थानीयता और आरक्षण सम्बन्धित दो विधेयक को 11 नवंबर को विधानसभा से पारित करवा लिया। दोनों ही ऐसा मुद्दा है, जिस पर विपक्षी भी विरोध नहीं कर सके। हालाँकि विपक्ष के साथ-साथ गठबंधन दल के झामुमो, कांग्रेस और राजद में भी कई नेता इसके पक्षधर नहीं हैं। लेकिन राज्य के वोट बैंक को देखते हुए किसी में खुल कर विरोध करने की ताक़त नहीं है। इन दो फ़ैसलों को राजनीतिज्ञ अपने-अपने हिसाब से आकलन कर रहे हैं। कोई इन्हें हेमंत सोरेन का मास्टर स्ट्रोक मान रहा, कोई राजनीतिक करियर में ब्रेक डाउन की सम्भावना जता रहा।
सियासी हथियार
झारखण्ड में पिछले 22 साल से स्थानीयता और ओबीसी आरक्षण हर दल के लिए सियासी हथियार रहा है। झारखण्ड में सन् 1932 के खतियान को स्थानीयता का आधार मानने की माँग यहाँ के लोग झारखण्ड गठन के बाद से ही करते रहे हैं। यहाँ के आदिवासी और मूलवासी हमेशा से कहते रहे हैं कि झारखण्ड में बाहर से आकर बसे लोगों ने यहाँ के स्थानीय बाशिंदों के अधिकारों का अतिक्रमण किया है, उनका शोषण किया है। लिहाज़ा यहाँ की स्थानीय नीति सन् 1932 के खतियान के आधार पर बनायी जानी चाहिए। सरकारें आती-जाती रहीं और इस मुद्दे पर केवल सियासत होती रही।
अपने बचाव में सरकार
भाजपा नेता बाबूलाल मरांडी के शासन-काल में 2002 में राज्य की डोमिसाइल पॉलिसी घोषित की गयी थी। उसके तहत भी 1932 के सर्वे सेटलमेंट को स्थानीयता का आधार माना गया था। लेकिन वह फ़ैसला इतना विवादास्पद हो गया कि राज्य हिंसा की आग में जलने लगा और अंतत: बाबूलाल मरांडी को कुर्सी गँवानी पड़ी थी। उसके बाद झारखण्ड उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने इससे सम्बन्धित जनहित याचिकाओं की सुनवाई करते हुए सरकार के उस निर्णय पर तत्काल रोक लगा दी थी। उच्च न्यायालय ने सरकार को कहा था कि वह अपनी स्थानीय नीति लेकर आये।
उसके बाद राज्य में बीते वर्षों में भाजपा के अर्जुन मुंडा, झामुमो के शिबू सोरेन, निर्दलीय मधु कोड़ा, झामुमो के हेमंत सोरेन के नेतृत्व में सरकारें बनीं। किसी सरकार ने स्थानीय नीति नहीं बनायी। सरकारें इसे विवादास्पद मान कर इससे बचती रहीं। भाजपा के रघुवर दास के नेतृत्व में सन् 2016 में सरकार बनी, तो उन्होंने सन् 1984 को कटऑफ डेट मानते हुए स्थानीयता को परिभाषित किया। यानी सन् 1984 तक जो भी राज्य में आये उन्हें स्थानीय मान लिया गया। इस पर कोई ख़ास विवाद नहीं हुआ। राज्य में अभी यही लागू है। झामुमो सन् 2019 के विधानसभा चुनाव में सन् 1932 के आधार पर स्थानीयता का वादा करके मैदान में उतरा और सबसे बड़े दल के रूप में आया। झामुमो नेता हेमंत सोरेन के नेतृत्व में कांग्रेस और राजद की मदद से गठबंधन की सरकार बनी। हेमंत सरकार का तीसरा वर्ष पूरा होने वाला है। इस बीच सरकार ने विधानसभा से स्थानीयता और ओबीसी आरक्षण विधेयक पारित करके एक बार फिर राजनीतिक हल चल बढ़ा दी है। ओबीसी आरक्षण 27 फ़ीसदी करने का मामला भी नया नहीं है। यह भी एक बड़े वोट बैंक का हिस्सा है। झामुमो हमेशा ओबीसी आरक्षण के सवाल पर भी बार-बार भाजपा को घेरता रहा कि उसने इसे घटाकर 14 फ़ीसदी कर दिया। यही कारण था कि ओबीसी आरक्षण को 27 फ़ीसदी तक बढ़ाने का प्रस्ताव भी राजनीतिक तौर पर बहुत आगे बढ़ चुका था, जिसे विधानसभा से पारित कराया गया।
दोहरा संकट
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर दोहरा संकट है। खान लीज मामले में एक ओर जहाँ उनकी विधानसभा की सदस्यता पर संकट है, वहीं उन पर ईडी की दबिश बढ़ती जा रही है। खनन घोटाले और मनी लॉन्ड्रिंग की जाँच में हेमंत सोरेन के विधायक प्रतिनिधि पंकज मिश्रा ईडी की हिरासत में हैं। आईएएस पूजा सिंघल हिरासत में है। मुख्यमंत्री के प्रेस सलाहकार अभिषेक कुमार समेत कई लोगों से पूछताछ हो चुकी है। ईडी ने पिछले दिनों मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पूछताछ के लिए समन भेजा था। वह नहीं गये और तीन हफ़्ते का मोहलत माँगी थी। ईडी ने तीन हफ़्ते की मोहलत तो नहीं दी, लेकिन समन ज़रूर भेज दिया। उन्हें 17 नवंबर को ईडी कार्यालय पूछताछ के लिए बुलाया गया है। सूत्रों की मानें तो ईडी ने यह भी कहा है कि अगर इस बार नहीं हाज़िर हुए, तो विधि सम्मत कार्रवाई की जाएगी। मुख्यमंत्री की सदस्यता पर राज्यपाल चुनाव आयोग समेत अन्य विधि विशेषज्ञों से राय ले चुके हैं। अब राज्यपाल के फ़ैसले का इंतज़ार किया जा रहा है।
राजनीतिक दाँव
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी आज तक डोमिसाईल पॉलिसी की आग की तपिश से बाहर नहीं निकल पाये हैं। माना जाता है कि सन् 2019 विधानसभा चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास की ख़ुद की हार और भाजपा के केवल 24 सीटों पर सिमटने की एक वजह स्थानीयता को परिभाषित करना भी था। हमेशा से 1932 खतियान की वकालत करने वाले शिबू सोरेन अपने कार्यकाल में इसे नहीं छूआ। जिस वक़्त भाजपा और झामुमो के गठबंधन की सरकार थी, उस वक़्त हेमंत सोरेन ने इसी मुद्दे पर अर्जुन मुंडा की सरकार से समर्थन वापस लिया था। हेमंत सोरेन ने सन् 2013 में कांग्रेस की मदद से सरकार बनायी, तो स्थानीय नीति पर सुझाव देने के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित कर दी और मामले को टाल दिया। वर्तमान हेमंत सरकार दिसंबर में तीन वर्ष का कार्यकाल पूरा करने जा रही है। जब सरकार पर संकट बनी, तब स्थानीयता और ओबीसी आरक्षण का राजनीतिक दाँव खेला और दोनों विधेयकों को विधानसभा से पारित किया, पर राज्य में कब लागू होगा, यह कहना मुश्किल है।
राजनीतिक भविष्य
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का दाँव कितना सटीक बैठेगा, यह तो वक़्त तय करेगा; लेकिन राजनीतिक पंडित इसे राज्य हित के रूप में क़तई मानने को तैयार नहीं हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि दोनों ही मुद्दे स्थानीयता और ओबीसी आरक्षण को एक बार फिर से राजनीतिक दाँव-पेंच में फँसा दिया गया है। उनका कहना है कि दोनों ही मामला राज्य का है। जिसे सीधे विधानसभा से पारित कर यहाँ तक की संकल्प जारी कर लागू किया जा सकता था; लेकिन इसे केंद्र के पाले में डाल दिया गया है।
विधेयक में साफ़ लिखा है कि केंद्र द्वारा नौवीं अनुसूची में शामिल करने के बाद यह लागू होगा। हेमंत सोरेन ने विधेयक को क़ानूनी दाँव-पेच से बचाने के नाम पर केंद्र के पाले में डाल दिया है। विपक्षी दल भाजपा भी अपनी रणनीति हर दिन बदल रही है। स्थानीयता और ओबीसी आरक्षण दोनों ही मुद्दा एक बड़े वोट बैंक का हिस्सा है, इसलिए भाजपा विरोध तो नहीं कर रही; लेकिन इतनी आसानी से केंद्र द्वारा 9वीं अनुसूची में शामिल कर लिया जाएगा इसकी भी सम्भावना कम है। निश्चित रूप से विधेयक की ख़ामियों को उजागर किया जाएगा। क्योंकि विधानसभा सदन में इस पर चर्चा नहीं हुई है। दो-तीन सदस्यों ने जो संशोधन का प्रस्ताव रखा, उसे ख़ारिज कर विधेयक को पारित कर दिया गया।
लिहाज़ा इसका हल जल्द निकलने वाला नहीं है। राज्य के लिए दोनों मुद्दे सियासी हथियार बने रहेगे। ऐसी स्थिति में हेमंत सोरेन का यह मास्टर स्ट्रोक साबित होगा, या भाजपा उनके राजनीतिक करियर का ब्रेकडाउन करने में सफल हो जाएगी, यह तो आगामी चुनाव के समय जनता को कौन कितना समझाकर अपने पाले में ला पाएगा? इस पर निर्भर ही करेगा। फ़िलहाल राज्य की जनता राजनीतिक दाँव-पेच में फँसी विकास की बाट ही जोह रही है।