अच्छी नीयत से शुरू की गई हुनर और औजार नाम की योजनाओं का मकसद यह था कि बिहार की हजारों मुसलिम लड़कियां अपने पांवों पर खड़ी हों. लेकिन प्रतिष्ठित मुसलिम मजहबी संगठनों से जुड़े लोगों ने ही इन योजनाओं को पलीता लगा दिया. इर्शादुल हक की रिपोर्ट
सात सितंबर, 2009 का वह दिन फुलवारी शरीफ की नूरी परवीन की जिंदगी में खुशियों की सौगात लेकर आया था. उस दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक भव्य कार्यक्रम में उसे ढाई हजार रुपये का चेक अपने हाथों से दिया था. नूरी ने हुनर योजना के तहत सिलाई में एक साल की ट्रेनिंग ली थी. मुख्यमंत्री ने उसे यह चेक इसलिए दिया था ताकि वह अपने हुनर के बूते अपने पैरों पर खड़ी हो सके. नूरी के सपनों को जैसे पर लग गए थे. वह सोच रही थी कि उन पैसों से खरीदी गई सिलाई मशीन से वह काम करेगी और पैसे कमाएगी.
वह क्षण मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए भी यादगार था. वे खुश थे और संतुष्ट भी. इसी खुशी में उन्होंने यह घोषणा कर दी थी कि ‘हुनर’ और ‘औजार’ योजना का विस्तार होगा. इसका लाभ 25 हजार की बजाय 50 हजार बच्चियों तक किया जाएगा और इसमें दलित बच्चियों को भी शामिल किया जाएगा.
सितंबर, 2009 के उस कार्यक्रम को बीते आज ढाई साल हो चुके हैं. स्याह नकाब की चिलमन के पीछे से झांक रहा नूरी का खुशियों से चमकता वह चेहरा और उस दिन मुख्यमंत्री के माथे पर उभरा संतोष का भाव, फिल्मों की फ्लैश-बैक घटना की तरह कहीं गुम-से हो गए हैं. इस फिल्म की आगे की पात्र जैसे भोजपुर की शमा, नसरीन, फारबिसगंज की तब्बसुम, शबाना और गोपालगंज की जमीला जैसी हजारों लड़कियां नूरी जैसी खुशकिस्मत नहीं हैं. क्योंकि इस फिल्म के विलेन इनके सपनों को चकनाचूर कर रहे हैं.
तीनों ही संगठनों को राज्य सरकार ने करोड़ों रुपये दिए ताकि वे अपने संसाधनों, नेटवर्क और विशेषज्ञों की मदद से यह कार्यक्रम लागू करें
जुलाई, 2008 में केंद्र के सहयोग से राज्य सरकार ने अल्पसंख्यक बालिकाओं के स्वरोजगार और प्रशिक्षण के लिए ‘हुनर’ योजना शुरू की थी. इसके बाद हुनरमंद होने वाली बालिकाओं के लिए ‘औजार’ योजना के तहत 2,500 रुपये दिए जाने थे ताकि वे अपने हुनर का इस्तेमाल करने के लिए औजार खरीद सकें. लेकिन 40-45 हजार बालिकाओं के स्वरोजगार और सपनों से जुड़ी इस योजना पर घोटाले का ग्रहण लग गया.
इस योजना के लिए राज्य सरकार ने बिहार के तीन बड़े मजहबी संगठनों- इमारत शरिया, एदारा शरिया और रहमानी फाउंडेशन को नोडल एजेंसी के रूप में चुना था. उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपने के पीछे नीतीश सरकार की यही मंशा थी कि ये संगठन न सिर्फ मुसलमानों के प्रतिनिधि संगठन हैं बल्कि वे भलीभांति जानते हैं कि मुसलिम समाज को कैसे आगे बढ़ाया जा सकता है. पटना स्थित इमारत शरिया जहां दारुल उलूम देवबंद के समानांतर एक ऐसी मजहबी संस्था है जिसके पैरोकार बिहार, उड़ीसा, झारखंड और पश्चिम बंगाल समेत अनेक राज्यों में हैं. विभिन्न मुद्दों पर फतवा देने में इस संस्था की महत्वपूर्ण भूमिका है. पूर्वी राज्यों के मुसलमानों का इस संस्था पर इतना भरोसा है कि वे ईद का चांद दिखने की तस्दीक भी इस संस्था द्वारा ही करते हैं. इसी तरह पटना के सुल्तानगंज इलाके में स्थित इदारा शरिया बिहार समेत अन्य पूर्वी राज्यों में मुसलमानों का प्रतिनिधि संगठन है जिसे मुसलमान सम्मान की नजर से देखते हैं. तीसरी संस्था रहमानी फाउंडेशन हाल के वर्षों में गरीब मुसलिम छात्रों को आईआईटी प्रवेश परीक्षा के लिए मुफ्त कोचिंग करवाने और इन छात्रों की सफलता के लिए चर्चित हुई है.
इन तीनों ही संगठनों को राज्य सरकार ने करोड़ों रुपये दिए ताकि वे अपने संसाधनों, नेटवर्क और तकनीकी विशेषज्ञों की मदद से हुनर कार्यक्रम को लागू करें. कार्यक्रम के तहत बालिकाओं को सिलाई, पेंटिंग, ब्यूटीशियन और चाइल्ड केयर आदि का प्रशिक्षण देना था. पहले ही साल इस कार्यक्रम में लगभग 13 हजार लड़कियों को शामिल कर लिया गया. इस प्रकार राज्य के 38 में से अधिकतर जिलों तक इस कार्यक्रम की पहुंच हो गई. लेकिन पिछले दो-तीन महीनों के प्रयास में तहलका को मिले दस्तावेज, सबूत और तथ्य बताते हैं कि गरीब और अनाथ बच्चियों के हुनर के विकास के लिए शुरू की गई यह योजना लूट खसोट और घपलों घोटालों की भेंट चढ़ चुकी है.
गड़बड़ियों का खेल
lरहमानी फाउंडेशन : रहमानी फाउंडेशन बिहार के पूर्वी जिलों में दर्जनों छोटे-छोटे मदरसों या गैरसरकारी संस्थाओं के माध्यम से हुनर कार्यक्रम चला रहा है. तहलका ने कुछ केंद्रों का जायजा लिया तो चौंकाने वाले मामले सामने आए. अररिया जिले का मदरसा आलिया दारुल कुरआन, दरभंगिया टोला का केंद्र मो. फिरोज की देखरेख में चलता है. यहां चलने वाले पहले सत्र में 31 बालिकाओं ने प्रशिक्षण लिया. इस साल सफल बालिकाओं को औजार खरीदने के लिए प्रत्येक को ढाई-ढाई हजार की रकम मिल भी गई. पर दूसरे सत्र में स्थितियां बिल्कुल उलट गईं. फिरोज की देखरेख में चलने वाले प्रशिक्षण केंद्रों पर 121 बालिकाओं ने प्रशिक्षण तो लिया पर उनमें से कइयों को औजार के लिए पैसे नहीं मिले. उदाहरण के लिए, फाउंडेशन ने फारबिसगंज के रामपुर मुहल्ले के मो इलियास अंसारी की बेटी तबस्सुम परवीन के नाम 31 अक्टूबर, 2009 को एक चेक जारी किया था. तकनीकी या किसी अन्य कारण से इसका भुगतान नहीं हो सका. फिरोज की शिकायत के बाद रहमानी फाउंडेशन ने फिर दो नवंबर, 2010 को चेक जारी किया. लेकिन दोबारा इस चेक का वही हस्र हुआ. हालांकि रहमानी फाउंडेशन से जुड़े अधिकारी आरिफ रहमानी तहलका से कहते हैं कि चेक से पैसे नहीं मिलने का जिम्मेदार फाउंडेशन नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘हो सकता है कि चेक को समय पर जमा नहीं करवाया गया होगा.’
लेकिन तबस्सुम तो सिर्फ एक उदाहरण है. रामपुर के ही गुलाम रब्बानी की बेटी शबाना परवीन के नाम 10 जून, 2011 को उसी बैंक से एक चेक जारी किया गया. पर शबाना को भी भुगतान नहीं हो सका. फिरोज का आरोप है कि इस तरह के अनेक चेक बेकार हो गए और बालिकाओं को भुगतान से वंचित होना पड़ा. इस संबंध में जब रहमानी से बात की गई तो जवाब मिला कि अगर चेक से भुगतान नहीं हुआ तो प्रभावित लोगों को उनसे शिकायत करनी चाहिए थी. पर तबस्सुम के पिता इलियास अंसारी कहते हैं, ‘हमने कई बार शिकायत की. एक बार दूसरा चेक बनवाया भी गया. फिर भी पैसे नहीं मिले. अब हम कितना दौड़ें और किसके पास गुहार लगाते फिरें. हम थक चुके हैं.’
रहमानी फाउंडेशन द्वारा अनेक लाभार्थियों को पैसे न देने के आरोपों को उसके अधिकारी गलत तो बताते ही हैं साथ ही वे सरकार द्वारा आवंटित राशि के सदुपयोग का दावा भी करते हैं. पर सरकारी दस्तावेज कुछ और ही किस्सा बयान करते हैं. सरकार ने 2010-11 में फाउंडेशन को औजार कार्यक्रम के तहत 66 लाख 35 हजार रुपये दिए थे. पर दो दिसंबर, 2012 को जो दस्तावेज विभाग ने जारी किया उसके अनुसार रहमानी फाउंडेशन ने सरकार को इसका कोई उपोयगिता प्रमाण पत्र नहीं दिया. हालांकि फाउंडेशन के अधिकारी आरिफ रहमानी का दावा है कि उन्होंने एक-एक पाई का उपयोगिता प्रमाण पत्र दे दिया है.
इमारत शरिया : इमारत शरिया वेलफेयर सोसाइटी की तरफ से हुनर और औजार का काम देख रहे इस संस्था के सचिव मो. मोजाहिर कहते हैं कि सरकार की तरफ से लगभग पूरी आवंटित राशि उनकी संस्था को मिल गई और इस रकम का सदुपयोग भी कर लिया गया. वे यह भी बताते हैं कि इस संबंध में उपयोगिता प्रमाण पत्र भी सरकार को दे दिया गया. पर विभिन्न जिलों में चल रहे प्रशिक्षण केंद्रों के संचालकों और प्रशिक्षकों की शिकायतें हैं कि उन्हें समुचित भुगतान नहीं मिला. गोपालगंज के भोरे में प्रशिक्षण केंद्र चलाने वाले नथुनी मियां कहते हैं कि उनको वर्ष 2010-11 में एक साल की बजाय मात्र पांच महीने का मानदेय प्रति महीने 1,500 रुपये की दर से दिया गया. जबकि यह आंकड़ा 2,000 रुपये प्रति माह होना चाहिए था.हालांकि इमारत के अधिकारी मो. मोजाहिर इस आरोप को बेबुनियाद बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने प्रत्येक संचालक को प्रति माह के हिसाब से 2,000 रुपये दे दिए. वे इस गड़बड़ी का जिम्मेदार गोपालगंज के जिला कोऑर्डिनेटर को ठहराते हैं. पर मोजाहिर भूल जाते हैं कि जिला कोऑर्डिनेटर की जवाबदेही इमारत के प्रति है, इसलिए इमारत खुद को इससे अलग नहीं कर सकता. इमारत की कार्यप्रणाली पर इस मामले में राज्य भर से उंगलियां उठी हैं. जब कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सूचना के अधिकार के तहत सरकार से इस संबंध में सूचना मांगनी शुरू की तो इमारत शरिया में हड़कंप मच गया. इमारत ने अपनी बदनामी से बचने के लिए पहले कोऑर्डिनेटर इफ्तेखार काजमी को उनके पद से हटा दिया. इसके बावजूद स्थिति बिगड़ती चली गई तो अचानक पिछले दिनों हुनर कार्यक्रम को बंद करने का फैसला कर लिया गया. मामले की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस कार्यक्रम को छोड़ने का फैसला इमारत शरिया के शीर्ष नेतृत्व, जिसमें मौलाना निजामुद्दीन शामिल हैं, के कहने पर लिया गया.
लेकिन क्या कार्यक्रम बंद कर देने से इमारत की खोई हुई प्रतिष्ठा वापस आ जाएगी? इस संबंध में आरटीआई ऐक्ट के तहत सूचना मांगने वाले सामाजिक कार्यकर्ता शरीफ कुरैशी कहते हैं, ‘इमारत ने तीन वित्तीय वर्ष तक लगातार गड़बड़झाला किया है. और अब जाकर हमारे दबाव से उनकी नींद टूटी है. लेकिन इससे इमारत के पदाधिकारी अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते क्योंकि गया, भोजपुर समेत राज्य के अनेक जिलों में सैकड़ों केंद्र संचालकों और प्रशिक्षकों को उनकी मजदूरी नहीं मिली. वे अपना हक अब भी मांग रहे हैं.’
अच्छी-भली योजनाओं का सत्यानाश होने से मुस्लिम समाज में निराशा है और आक्रोश भी
कुरैशी की इन बातों की तस्दीक राज्य के अनेक जिलों में केंद्र संचालकों के आक्रोश से हो जाती है. गया जिले के गुरुवा क्षेत्र में प्रशिक्षण केंद्र चलाने वाले मौलवी कौसर तब्बसुम की बानगी से कुछ ऐसा ही एहसास होता है. कौसर कहते हैं, ‘इमारत के अधिकारियों ने हमें सूचित किया था कि मेरे प्रशिक्षण केंद्र के लिए तीन सिलाई मशीनें 2010 में ही भेजी गईं. डेढ़ साल बीत गए पर वे मशीनें रास्ते में ही हैं.’
ऐसे सवालों या आरोपों का जवाब इमारत के अधिकारियों के पास बस रटा-रटाया ही मिलता है. इमारत के अधिकारी मो. मोजाहिर इन आरोपों के जवाब में कहते हैं, ‘जब मशीनें नहीं मिलीं तो उन्हें अपने जिला कोऑर्डिनेटर से पूछना चाहिए.’
एदारा शरिया : हुनर कार्यक्रम को संचालित करने वाली नोडल एजेंसियों में रहमानी फाउंडेशन और इमारत शरिया के अलावा तीसरी नोडल एजेंसी एदारा शरिया है. एदारा द्वारा संचालित प्रशिक्षण केंद्रों के प्रशिक्षकों- भोजपुर के मो. ताबिश और समस्तीपुर की रेहाना खातून के एक जैसे आरोप हैं कि उन्हें आधे-अधूरे पैसे दिए गए. इसी तरह प्रशिक्षण प्राप्त करने वाली बालिकाओं के आरोप भी कुछ ऐसे ही हैं. अगर थोड़ी देर के लिए इन आरोपों को महज आरोप मान लिया जाए और इसके बदले एदारा शरिया के दस्तावेजों पर ही भरोसा किया जाए तो भी इन दस्तावेजों से प्राप्त तथ्य कई गंभीर सवाल खड़े करते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता और पंद्रह सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति के पूर्व अध्यक्ष शरीफ कुरैशी कई महीनों से इन गड़बड़ियों की तह तक जाने के प्रयास में जुटे हैं. शिक्षा विभाग से सूचना के अधिकार के तहत उन्होंने यह पूछा था कि इन नोडल एजेंसियों से अब तक किन-किन बालिकाओं को औजार कार्यक्रम के तहत ढाई-ढाई हजार रुपये दिये गये हैं. कुरैशी के इस सवाल के जवाब में शिक्षा विभाग ने जो आंकड़े इन नोडल एजेंसियों से लेकर दिये वे जवाब से ज्यादा भ्रम पैदा करने वाले ही हैं. एदारा शरिया के दस्तावेजों के मुताबिक उसने अब तक 1989 बालिकाओं को ढाई हजार रुपये की दर से कुल 49 लाख 72 हजार रुपये बांटे हैं. पर एदारा ने न तो इस सूची में लाभान्वित होने वाली लड़कियों का नाम उजागर किया है और न ही उनके पते ही बताए हैं. कुरैशी सवाल करते हैं, ‘अगर तमाम बालिकाओं को पैसे मिले तो एदारा उनके नाम क्यों छुपा रहा है?’ कुरैशी की तरह इस कार्यक्रम पर पैनी निगाह रखने वाले गुलाम सरवर आजाद ऐसी कई बालिकाओं के नाम गिनाते हैं जिन्होंने प्रशिक्षण तो पूरा कर लिया पर उन्हें मशीन खरीदने के लिए पैसे नहीं मिले. इसी तरह भोजपुर में प्रशिक्षण केंद्र चलाने वाले मो. ताबिश अपने रजिस्टर से उन लड़कियों के नाम छांट कर बताते हैं जिन्हें आज तक पैसे नहीं मिले.
हुनर और औजार जैसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों से गरीब और पिछड़े तबके की हजारों मुसलिम बालिकाओं की जिंदगी में स्वरोजगार के अवसर मिलने की उम्मीद जगी थी. पर इस कार्यक्रम को लागू करवाने वाली नोडल एजेंसियों के कुछ अधिकारियों ने काफी हद तक इसकी बदहाली की दास्तान लिख दी है. इससे मुसलिम समाज में निराशा भी है और आक्रोश भी.