पिछले दिनों गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ जो हुआ उसमें एक अजीब-सा विरोधाभास भी था. जब अपनी पार्टी में मोदी का कद सबसे ऊपर पहुंचा लग रहा था तब उनका नाम एक ही सांस में उन संजय जोशी के साथ लिया जा रहा था जिन्हें शायद वे जीवन में सबसे ज्यादा नापसंद करते हैं. पिछले कई सालों से भाजपा में सत्ता के लिए कई स्तरों पर खींचतान चल रही है. एक लड़ाई खुद पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच पार्टी पर नियंत्रण की है. दूसरी पार्टी के नए और पुराने नेताओं के बीच चल रही नेतृत्व की लड़ाई है. पार्टी में तीसरी सबसे जबर्दस्त रस्साकशी के केंद्र में देश के प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी की कुर्सी है जिसे अटल बिहारी वाजपेयी के बाद से हर बड़ा भाजपाई नेता ललचाई नजरों से देख रहा है. पिछले पखवाड़े हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में एकबारगी ऐसा लगा मानो नरेंद्र मोदी ने इन लड़ाइयों पर अपनी ताकत का इस्तेमाल करके लगाम लगा दी हो. जब मोदी ने कार्यकारिणी के सभास्थल में प्रवेश किया तो लगा कि जैसे पार्टी में मौजूद नेतृत्व के हर प्रश्न का जवाब मिल गया हो.
मगर इसके कुछ घंटों के बाद ही स्थितियां फिर से बदलने लगीं. नाराज आडवाणी और सुषमा स्वराज समय से पहले ही बैठक छोड़कर दिल्ली चले गए. अगले दिन आडवाणी ने अपना वह मशहूर ब्लॉग लिखा जो कई दिनों तक अखबारों की सुर्खियां बना रहा. इसमें उन्होंने गडकरी की आलोचना करने के साथ-साथ पार्टी में आत्ममंथन की जरूरत पर जोर दिया. इससे पहले कि आडवाणी के इस ब्लॉग से पैदा हुई गर्मी कुछ कम होती, भाजपा के मुखपत्र कमल संदेश और संघ के हिंदी के मुखपत्र पांचजन्य ने अपने संपादकीयों में मोदी पर परोक्ष रूप से हमला बोल दिया. हालांकि इसके बाद संघ के अंग्रेजी के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में लिखे एक संपादकीय में मोदी को ‘अब तक का सबसे ज्यादा लोकप्रिय मुख्यमंत्री’ भी बताया गया. इसके कुछ समय बाद अचानक ही दिल्ली और गुजरात में भाजपा के लिहाज से महत्वपूर्ण जगहों पर कुछ ऐसे पोस्टर नजर आए जिन पर संजय जोशी की तस्वीर लगी थी और अटल बिहारी वाजपेयी की कविता के जरिए मोदी को निशाना बनाया गया था. बस फिर क्या था मोदी और जोशी के बीच की यह आतिशबाजी अखबारों के पहले पन्ने पर छूटती दिखने लगी. अचानक ही देश के कोने-कोने में जोशी भी उतने ही मशहूर हो गए शायद जितना मोदी होंगे.
अगर ऊपर लिखी बातों और इन पर आई विभिन्न प्रतिक्रियाओं का आकलन करें तो कुछ बातें स्पष्ट हो जाती हैं: मोदी के भाजपा में उत्थान और ऐसा जिस तरह हुआ उसने न केवल भाजपा में उथल-पुथल मचाई बल्कि कड़े अनुशासन का दावा करने वाले संघ के भीतरी मतभेदों और इसके अंतर्विरोधों को भी पहली बार सबके सामने लाकर रख दिया. ‘मैं उन पर कुछ नहीं बोलूंगा’ जो कुछ हुआ उसके बारे में पूछने पर संघ के प्रवक्ता राम माधव कहते हैं, ‘जो भी है सबके सामने है.’लेकिन कुछ भाजपा नेता ज्यादा स्पष्ट बात करते हैं. एक वरिष्ठ भाजपा नेता कहते हैं, ‘भाजपा के लिए ये बेहद-पुथल वाला समय है. मैं नितिन गडकरी को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराऊंगा. वे तो केवल सभी को खुश रखने की कोशिश कर रहे हैं. अगर वे जोशी को जाने के लिए नहीं कहते तो पार्टी में इससे भी बड़ा विद्रोह देखने को मिलता. नरेंद्र भाई बहुत बढ़िया प्रशासक हैं लेकिन उन्हें समझना चाहिए कि भाजपा में उनके जितने योग्य मुख्यमंत्री और भी रहे हैं.’उधर आडवाणी के करीबी रहे एक भाजपा नेता कहते हैं, ‘आडवाणी गडकरी और मोदी की वजह से वहां से नहीं गए बल्कि संघ से नाराज होकर उन्होंने ऐसा किया. अगर वे भ्रष्टाचार की वजह से येदियुरप्पा को नहीं चाहते हैं तो गडकरी के मामले में भी वैसा ही क्यों नहीं करते जो कुशवाहा को भाजपा में लाने और अंशुमन मिश्रा को राज्यसभा में पहुंचाने की कोशिशों के लिए जिम्मेदार थे.’संघ के एक सदस्य जो जोशी के काफी नजदीक भी हैं, कहते हैं, ‘कई नेता जो पहले मोदी का समर्थन करते थे, अब उनकी असलियत पहचान गए हैं. कई प्रचारकों को लगता है कि इस बार उनके अहंकार का सही जवाब उन्हें मिलना ही चाहिए.’
‘पार्टी को उनकी जरूरत है पर वह उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने का खतरा मोल नहीं ले सकती. इससे चुनाव, कांग्रेस के कुशासन के बजाय मोदी केंद्रित हो जाएगा’
नरेद्र मोदी के सबसे बड़े विरोधियों में से एक, गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहता इस बात का समर्थन करते हुए कहते हैं, ‘संघ की गुजरात इकाई पूरी तरह से उनके खिलाफ है, प्रांत प्रचारक से लेकर सबसे निचले कार्यकर्ता तक. मोदी ने संघ के टुकड़े कर दिए, पार्टी को तोड़ डाला. वे बदले की भावना से काम करने वाले ऐसे व्यक्ति हैं जो किसी भी हद तक जा सकता है. हर व्यक्ति यह बात खुलकर नहीं कह सकता लेकिन जो हो रहा है वह किसी को पसंद नहीं है.’मगर इस तरह के हमले मोदी की चिंता की सिर्फ एक वजह ही हैं. मोदी को हमेशा से चरम अवस्थाओं में ही देखा-दिखाया जाता रहा है फिर वे चाहे सकारात्मक हों या नकारात्मक. उन्हें हिंदू हृदय सम्राट कहा जाता है तो फासीवादी भी कहा जाता है. उन्हें विकास पुरुष कहा जाता है तो ‘मौत का सौदागर’ भी कह दिया जाता है. मगर इस बार जोशी के साथ उनके मतभेदों ने जो रूप अख्तियार किया उससे उनकी एक छुटभैये, गली-मोहल्लों की राजनीति करने वाले नेता की भी छवि बनने का खतरा आ खड़ा हुआ है.
पिछले कुछ सालों से मध्यवर्ग के एक हिस्से और कई भारतीय उद्योगपतियों द्वारा नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किया जाता रहा है. लेकिन उनका व्यक्तित्व और जो उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में किया है वह देश, भारतीय लोकतंत्र, भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सामने कई अबूझ पहेलियां खड़ी कर देता है. मोदी से सहानुभूति रखने वाले एक राजनीतिक विश्लेषक इन पहेलियों के बारे में कुछ इस तरह बताते हैं, ‘विडंबना यह है कि पार्टी को उनकी जरूरत है लेकिन वह उन्हें 2014 में प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने का खतरा मोल नहीं ले सकती. ऐसा करते ही चुनाव, कांग्रेस के कुशासन के बजाय मोदी केंद्रित हो जाएगा. मगर 2019 तक इंतजार करने से बहुत देर भी हो सकती है.’अपने कार्यकाल के शुरुआती दौर में अगर मोदी सांप्रदायिकता की बयार पर सवार हुए तो जल्द ही उन्होंने यह भी भांप लिया कि इसका फायदा कम होता जा रहा है. जानकार बताते हैं कि इसके बाद उन्होंने खुद को विकास पुरुष के रूप में पेश करना शुरू किया और सत्ता के लिए उनकी भूख के सामने संघ परिवार और इसके सहयोगी संगठन पूरी तरह से हाशिये पर धकेल दिए गए. चर्चित चिंतक आशीष नंदी कहते हैं, ‘हो सकता है कि भारत आखिर में मोदी का उस काम के लिए शुक्रगुजार हो जो उन्होंने न चाहते हुए भी कर दिया. गुजरात में संघ परिवार का विनाश.’ लेकिन एक और अनुभवी नेता आगाह करते हैं कि कोई आसान निष्कर्ष न निकाले जाएं. वे कहते हैं कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद संघ परिवार ने गुजराती समाज की हर परत में समाना शुरू किया. वकीलों, डॉक्टरों, व्यापारियों की एसोसिएशनों, शिक्षा समितियों, सरकारी बोर्डों सहित तमाम जगहों में परिवार के लोग दाखिल हुए. वे कहते हैं, ‘आप कह सकती हैं कि आपसी जुड़ाव पर अब वैचारिक नहीं बल्कि पैसे का नियंत्रण है.’
मोदी के बारे में कहा जाता है कि उन्हें चुनौती देने वालों पर वे जरा भी रहम नहीं करते. दुश्मनों को ठिकाने लगाने और दोस्तों को इस्तेमाल करके किनारे करने की कई कहानियां उनसे जुड़ी हुई हैं. मोदी, केशुभाई पटेल और शंकर सिंह बाघेला ने संघ प्रचारक के रूप में गुजरात में भाजपा को एक-एक ईंट जमाकर खड़ा किया. लेकिन बताया जाता है कि उन्हीं केशुभाई और बाघेला को आपस में लड़वाकर 2001 में वे गुजरात का ताज खुद ले उड़े. अपनी आग उगलती जबान के लिए चर्चित विहिप के अशोक सिंघल और प्रवीण तोगड़िया 2002 के सांप्रदायिक माहौल में मोदी के लिए उपयोगी थे. मगर उसके बाद से वे हाशिये पर हैं. गोवर्धन जड़फिया उन दंगों के दौरान राज्य के गृहमंत्री थे. लेकिन बाद में मोदी ने उन्हें भी किनारे कर दिया. लेकिन इन सब प्रसंगों ने मोदी के खिलाफ उतनी नाराजगी पैदा नहीं की जितनी हालिया जोशी प्रकरण ने. दरअसल मोदी और जोशी के बीच झगड़े का इतिहास बहुत पुराना है. 1980 के दशक में दोनों संघ प्रचारक हुआ करते थे. दोनों को राज्य में पार्टी को पनपाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. 1995 तक पटेल, बाघेला और तोगड़िया की मदद से वे पार्टी को 11 से 121 सीटों तक ले आए. पटेल इन सब नेताओं में सबसे वरिष्ठ थे इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया. बताते हैं कि सत्ता खुद पाने की कोशिश में मोदी ने पटेल और बाघेला के बीच इतना अविश्वास पैदा कर दिया कि पटेल को गद्दी सुरेश मेहता को देनी पड़ी. मेहता का मुख्यमंत्री बनना एक तरह का समझौता था. मोदी को अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात से दिल्ली भेज दिया ताकि राज्य में आगे और कोई उठापटक न हो.
इसी समय जोशी के सितारे बदलने शुरू हुए. जब 1998 में केशुभाई पटेल फिर मुख्यमंत्री बने तो जोशी उनके साथ हो लिए और उन्होंने मोदी की गुजरात वापसी का विरोध किया. मोदी ने इसके लिए उन्हें कभी माफ नहीं किया. 2005 में जोशी से जुड़ी एक सेक्स सीडी चर्चा में आई और इसके बाद उनका राजनीतिक निर्वासन हो गया. गडकरी ने जब पिछले साल उनका पुनर्वास करते हुए उन्हें उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रभार सौंपा तो मोदी का गुस्सा फिर भड़क गया. नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व बहुत जटिल है. किसी गुत्थी जैसा. आपकी उनके बारे में क्या राय बनती है यह इस पर निर्भर करता है कि आप गुत्थी को किस कोने से समझने की कोशिश करते हैं. शुरुआती दिनों के उनके साथी उन्हें एक महत्वाकांक्षी और मेहनती लेकिन हठी व्यक्ति के रूप में याद करते हैं. मोदी का जन्म वडनगर नाम के एक छोटे से कस्बे में हुआ था. वे घंची समुदाय से ताल्लुक रखते हैं जो पिछड़े वर्ग में आता है. उनके पिता दामोदर दास और मां हीराबेन मोदी की छह संतानें थीं. मोदी का नंबर तीसरा था. आय का स्रोत था एक कोल्हू और चाय की दुकान. उनके बचपन के बारे में कोई खास जानकारी नहीं मिलती सिवाय इसके कि आठ साल की उम्र में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाने लगे थे.
वड़नगर से अहमदाबाद आकर मोदी ने कुछ समय के लिए अपने चाचा की कैंटीन में काम किया. इसके बाद अपनी खुद की चाय की दुकान खोल ली. इसी दौरान वे संघ के नियमित सदस्य बने. संघ की विचारधारा के कट्टर अनुयायी होने के बावजूद ऐसा लगता है कि उनका संगठन के सामूहिक अनुशासन से टकराव होता रहा है. हेडगेवार भवन में उनके कक्ष के ठीक पड़ोस में रह चुके एक संघ प्रचारक याद करते हैं कि मोदी छोटी-छोटी बातों से अपना विद्रोह जाहिर करते थे. उदाहरण के लिए अगर नियम कहते कि प्रत्येक सदस्य बटन वाली खाकी हाफपैंट पहनेगा तो वे जिप की जिद करते. जहां सबके पास कम से कम सामान होता वहां उनके कमरे में हमेशा मॉर्डन इलेक्ट्रॉनिक उपकरण रहते थे. मोदी के बारे में लिखने वाले ज्यादातर लोगों को दूसरों की धारणाओं पर निर्भर रहना पड़ता है. असल में वे कभी भी किसी ऐसे शख्स से मिलने के लिए तैयार नहीं होते जिसके बारे में उन्हें लगता है कि वह उनका आलोचक है. हालांकि उनके बारे में जो किस्से सुनने को मिलते हैं उनसे उनकी एक आकर्षक तस्वीर बन सकती है. उम्र के तीसरे और चौथे दशक में उन्होंने संगठन में धीमी मगर लगातार प्रगति की. उस दौर के लोग उन्हें एक सादे व्यक्ति के रूप में याद करते हैं जो सिर्फ अपने काम में डूबा रहता था. एक वरिष्ठ स्थानीय पत्रकार कहते हैं, ‘वे बस पकड़ते और दूर-दूर के इलाकों की यात्रा करते. राज्य में मुश्किल से तीन नेता ही होंगे जो आपको फौरन हर सीट के बारे में बता सकते हैं. वे उनमें से एक हैं.’ पूर्व पुलिस अधिकारी और अब राज्य के वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष आईएच सईद कहते हैं, ‘राज्य में कहां क्या चल रहा है इसके बारे में मोदीजी के पास हमेशा सही और पूरी जानकारी होती है. उनके पास लोगों का अपना नेटवर्क है.’
’विकास के प्रतीक के तौर पर मोदी ने खुद की जो छवि गढ़ी है उसका एक अहम पहलू यह भी है कि वे तमाशे में माहिर हैं. वे प्रचार को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं
राज्य के ब्यूरोक्रेट्स दबी जबान में बताते हैं कि मुख्यमंत्री बनने के बाद मोदी ने अपने व्यक्तित्व में एक बड़े बदलाव की शुरुआत की. उन्होंने अंग्रेजी सीखी. मुख्यमंत्री निवास के एक कमरे में आदमकद शीशे लगवाए गए. आज यहां के राजनीतिक गलियारों में होने वाली चर्चाओं पर यकीन करें तो मोदी इसी कमरे में अपने भाषणों की रिहर्सल करते हैं. उन्होंने ऐसे पेशेवर लोगों की एक टीम रखी है जो हर रैली में दिए गए उनके भाषण पर निगाह रखती है. यह टीम इस पर भी नजर रखती है कि इंटरनेट पर मोदी की छवि कैसी बन रही है. यह सकारात्मक खबरें तैयार करती है और नकारात्मक खबरों का मुकाबला करती है. और यह तो खुला तथ्य ही है कि उनकी पूरी ब्रांडिंग का जिम्मा अमेरिकी फर्म एपको संभालती है. राजनीतिक गलियारों में होने वाली चर्चाओं पर यकीन किया जाए तो अपनी शुरुआती सादगी को छोड़कर मोदी अब भव्यता की राह चल पड़े हैं. उनके एक राजनीतिक विरोधी कहते हैं कि आज उनके विशाल वार्डरोब में 350 से भी ज्यादा कुरते हैं. इनमें से ज्यादातर जेड ब्लू द्वारा सिले गए हैं जिसकी सिलाई का खर्च गुजरात में चुनिंदा लोग ही उठा सकते हैं.
इस आमूल-चूल बदलाव के बीच यह बात भी गौर करने लायक है कि मोदी ने कभी अपने परिवार को फायदा पहुंचाने की कोशिश नहीं की. उनकी मां अब भी एक कमरे के मकान में रहती हैं. उनके एक भाई सचिवालय में क्लर्क हैं. एक दूसरे भाई सस्ते दर की एक दुकान चलाते हैं. मध्य वर्ग को मोदी भाते हैं तो उसका एक कारण यह भी है कि परिवार को उनके पद का फायदा पहुंचता नहीं दिखता. गुत्थी समझने की कोशिश में मोदी की कई और छवियां भी बनती हैं. कॉरपोरेट जगत के खिलाड़ी उनकी सौम्य और सम्मोहक छवि की बात करते हैं. राजनीतिक विरोधी उनके कौशल की और पुलिस अधिकारी उनकी कठोरता की. लगभग सभी कहते हैं कि पहली ही बार में लोगों पर मोदी का असर हो जाता है. एक अधिकारी कहते हैं, ‘जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तभी मुझे लगा था कि वे अपनी बातों को लेकर बहुत गंभीर हैं. वे प्रशासन और कानून-व्यवस्था के बारे में बहुत असरदार तरीके से बात करते थे.’ वहीं निलंबित आईएएस अधिकारी प्रदीप शर्मा कहते हैं, ‘भगवान न करे वे कभी गुजरात से बाहर जाएं. पूरा देश छला जाएगा.’ शर्मा कभी मोदी के करीबी हुआ करते थे. आज स्थिति इसके उलट है.
मोदी के अब तक के राजनीतिक जीवन की जो कहानी रही है उसमें दो बड़ी कड़ियां दिखती हैं. सांप्रदायिकता से मिली शुरुआती मजबूती और विकास व सुशासन का उनका हालिया हाईप्रोफाइल एजेंडा. एक तरह से देखें तो ये दोनों ही चीजें मध्यवर्ग को किसी न किसी रूप में भाई हैं. 2002 के दंगों के मुद्दे पर मोदी को घेरना सिर्फ इसलिए मुश्किल नहीं रहा है कि उनकी सरकार इस राह में अड़ंगे लगाती है. दरअसल मोदी में लोगों की नब्ज पढ़ने का सहज गुण है. उन्होंने तुरंत ही हवा की दिशा पहचान ली और खुद पर हो रहे हर हमले को गुजरात के गर्व पर हमले से जोड़ दिया. तब से उन पर साधा गया हर निशाना गुजराती अस्मिता पर साधा गया निशाना बन गया. इतनी ही चतुराई से मोदी ने एक और दांव खेला है. लोगों का मूड भांपते हुए पिछले कुछ वर्षों के दौरान उन्होंने एक नया हथियार विकसित किया. यह था गुजरात को एक ब्रांड के तौर पर स्थापित करना. एक ऐसा गुजरात जो भारत के विकास की कहानी का सबसे अहम हिस्सा है. एक ऐसा गुजरात जहां विकास दर दहाई में है, जहां भारी मात्रा में विदेशी निवेश हो रहा है, जहां चौड़ी सड़कें हैं, 24 घंटे बिजली है और जहां जाने के लिए कॉरपोरेट कंपनियों में होड़ है.
एक बड़े कॉरपोरेट लॉबीइस्ट संक्षेप में समझाते हैं कि क्यों मोदी उनके लिए अच्छे हैं. वे कहते हैं, ‘आप उन्हें पसंद करें या नहीं, इससे इनकार नहीं कर सकते कि उनके पास एक दूरदृष्टि है. नीतिनिर्माण का एक बुनियादी सिद्धांत है. वह सिद्धांत यह है कि सही हो या गलत, आपमें निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए. मोदी में फैसला लेने की हिम्मत है. वे जानते हैं उन्हें क्या चाहिए और इसके लिए उन्होंने सिंगल विंडो क्लीयरेंस जैसी व्यवस्था बनाई है. आपको यह सुनकर अच्छा नहीं लगेगा मगर अगर-मगर करने से लोकतंत्र में कभी-कभी अराजकता की स्थिति हो जाती है. कभी-कभी आगे बढ़ने के लिए आपको सख्त होना पड़ता है. डंडे का इस्तेमाल करना पड़ता है. ‘कारोबारी और राज्य सभा सांसद राजीव चंद्रशेखर कहते हैं, ‘काम करने वाले नेताओं की कमी है. मोदी उसी खाली जगह का इस्तेमाल कर रहे हैं. पहले लोगों के दिमाग में ज्यादातर जाति और धर्म ही भरा रहता था. मगर पिछले कुछ सालों से अच्छे प्रशासन की बात राजनीतिक लाभ का सूत्र बनने लगी है.’
जिस तरह विकास के प्रतीक पुरुष के तौर पर मोदी ने खुद की छवि गढ़ी है उसका एक अहम पहलू यह भी है कि वे तमाशे में माहिर हैं. उनकी सरकार जो भी करती है उसकी बड़े स्तर पर मार्केटिंग की जाती है और उसे मोदी के साथ जोड़ दिया जाता है. यह उस प्रक्रिया का हिस्सा है जिसके तहत मोदी को मुख्यमंत्री के बजाय एक प्रतीक बनाने का काम हो रहा है. टेलीकॉम क्षेत्र में काम करने वाले एक कंसल्टेंट कहते हैं, ‘मोदी वास्तव में जानते हैं कि सफलता की कहानी कैसे फैलाई जाती है. हर हफ्ते मुझे सरकार की तरफ से दर्जन भर ईमेल आती हैं जिनमें गुजरात के विकास के बारे में ध्यान खींचने वाली खबरें होती हैं.’जब अंतरराष्ट्रीय पत्रिका टाइम ने अपने कवर पर उनकी तस्वीर लगाई तो मोदी ने पूरे गुजरात को उन होर्डिंगों से पाट दिया जिन पर लिखा था—गर्व छे. वे बड़ी-बड़ी घोषणाएं करने में भी माहिर हैं. जैसे निवेश पैकेज जिनके आकार का आंकड़ा अभिभूत करने वाला होता है. लेकिन इन घोषणाओं की गहराई तलाशना असंभव है क्योंकि यह विशाल होर्डिंगों की ताकत को महीन जानकारियों से लड़वाने जैसा होगा. कांग्रेस नेता अर्जुन मोडवाडिया कहते हैं, ‘कोई भी सरकारी संवाद ऐसा लगता है जैसे मुकेश अंबानी के घर की किसी शादी का निमंत्रण पत्र हो.’ यही वह छवि है जो एक गुजराती और भारतीय मध्यवर्ग को भाती है.
मोदी इतने क्यों सराहे जाते हैं उसकी एक और अहम वजह यह भी है कि सरकार और निर्णय लेने की प्रक्रिया उनकी या फिर उनके द्वारा चुने गए कुछ चुनिंदा लोगों की मुट्ठी में है. इस तरह से उन्होंने छोटे और मध्यम स्तर के उस भ्रष्टाचार को खत्म कर दिया है जो भारत में सर्वव्याप्त है. अगर हम उन दो घटनाओं को देखें जिन्होंने ब्रांड गुजरात के निर्माण में सबसे प्रतीकात्मक भूमिका निभाई तो उनमें से एक है टाटा नैनो परियोजना को गुजरात लाने में मोदी की कामयाबी. बताते हैं कि रतन टाटा को कई महीनों तक प. बंगाल में लड़खड़ाते हुए देखने के बाद मोदी ने उन्हें एक संदेश भेजा. इसमें लिखा था-सुस्वागतम गुजरात. मोदी के करीबी एक पत्रकार बताते हैं कि इसके बाद उन्होंने आठ सरकारी विभागों और 16 अफसरों की एक विशेष टास्क फोर्स बनाई. बस जमीन तैयार थी और छह दिन में ही सौदा पक्का हो गया. एक टेलीकॉम कंसल्टेंट कहते हैं, ‘हो सकता है कि उन्होंने टाटा को जरूरत से ज्यादा ही रियायतें दे दी हों. लेकिन यह तो देखिए ब्रांड गुजरात पर इस घटना का क्या असर हुआ.’ टाटा की यह परियोजना साणंद आने के बाद पियाजियो, फोर्ड, मित्सुबिशी और सुजुकी ने भी वहां प्लांट लगाने का फैसला कर लिया है.
गुजरात भारतीय उद्योग परिसंघ के पूर्व निदेशक और एडवाइजरी बोर्ड फॉर वाइब्रेंट गुजरात 2011 के सदस्य सुनील पारेख कहते हैं, ‘आज साणंद इंडस्ट्रियल एस्टेट में 20 दूसरी बहुराष्ट्रीय कंपनियां आ रही हैं.’
मोदी का दूसरा अहम हथियार रहा है साल में दो बार होने वाली उनकी वाइब्रेंट गुजरात मीट. ऐसी हर मीट के बाद उन्होंने गुजरात में हजारों करोड़ के निवेश संबंधी सहमति पत्रों की घोषणाएं की हैं. लगभग सभी मानते हैं कि ये आंकड़े ज्यादा ही बढ़ाचढ़ाकर बताए जाते हैं. पाठक भी इस पर थोड़ा सा हंसते हुए कहते हैं, ‘इसमें कोई शक नहीं कि जब से मोदी ने सत्ता संभाली है गुजरात के विकास और यहां होने वाले निवेश के आंकड़े ऊपर गए हैं. समस्या यह है कि कभी-कभी घोषणाएं इतनी बड़ी-बड़ी होती हैं कि उन पर यकीन नहीं किया जा सकता. उदाहरण के लिए पिछली से पिछली वाइब्रेंट गुजरात मीट के बाद बताए गए आंकड़ों को देखें तो ये आजादी के बाद अब तक देश में हुए कुल निवेश के आंकड़ों के बराबर थे !’खुद मोदी सरकार की सामाजिक और आर्थिक समीक्षा कहती है कि 2003 में वाइब्रेंट गुजरात मीट की शुरुआत से अब तक गुजरात सरकार 17262 सहमति पत्रों की घोषणा कर चुकी है, लेकिन इनमें से 6.13 फीसदी का ही क्रियान्वयन हो रहा है. मोदी की उपलब्धियों के शोर के बावजूद सच यह है कि 2011 के दौरान गुजरात विदेशी निवेश आकर्षित करने के मामले में दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से पीछे रहा.
खुद को गुजरात की पहचान के साथ जोड़ने से मोदी को यह फायदा हुआ है कि जैसा तीखा विरोध गुजरात दंगों के मुद्दे पर उन्हें घेरने वालों का होता है वैसा ही अब गुजरात के विकास पर बहस करने वालों का भी होता है. लेकिन चमकदार सुर्खियों से इतर जाकर गुजरात के विकास की कहानी टटोली जाए तो एक दूसरी और स्याह तस्वीर दिखती है. हाल ही में आईआईएम अहमदाबाद, इरमा आदि जैसे गुजरात के दस से भी ज्यादा प्रतिष्ठित संस्थानों ने एक राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया. इसका मकसद था पिछले दस साल के दौरान गुजरात की प्रगति की कहानी को समझना. इसमें 50 से भी ज्यादा अर्थशास्त्रियों, विश्लेषकों और नौकरशाहों ने अपने-अपने पत्र प्रस्तुत किए. इसकी एक संक्षित रिपोर्ट बनाकर योजना आयोग को सौंप दी गई है. हालांकि यह रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं हुई है लेकिन तहलका के पास इसकी एक प्रति है. इससे जो निष्कर्ष निकलते हैं वे एक जटिल कहानी कहते हैं. आयोजन का उद्घाटन करने वाले प्रख्यात अर्थशास्त्री वाईके अलघ का कहना था कि आर्थिक तरक्की के मोर्चे पर भले ही पिछले एक दशक में गुजरात का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा है, लेकिन इस तरक्की से राज्य में क्षेत्रीय असंतुलन बढ़े हैं. साथ ही यह भी दिखा है कि इस विकास का गरीबी, कुपोषण जैसी समस्याओं पर सकारात्मक असर लगातार कम होता गया है. प्रोफेसर इंदिरा हिर्वे ने जो पत्र प्रस्तुत किया उसने भी इस बात की पुष्टि की.
मोदी लगातार कहते रहे हैं कि गुजरात में कृषि की विकास दर 11 फीसदी है. प्रो अलघ का कहना है कि ये आंकड़ा वास्तव में पांच फीसदी के आसपास है. हालांकि यह भी उनके मुताबिक अंतरराष्ट्रीय मानकों को देखते हुए सकारात्मक आंकड़ा है. लेकिन इस पूरे आयोजन में जो कागज पेश किए गए उन्हें अगर समग्रता में देखा जाए तो पता चलता है कि गुजरात में पिछले दस साल के दौरान रोजगार उत्पादन बहुत कम रहा है. साथ ही यह देश के उन राज्यों में शामिल है जहां मजदूरी की दर सबसे कम है. प्रो. हिर्वे के मुताबिक बुरी तरह से एनीमिया यानी खून की कमी की शिकार महिला आबादी के मामले में 20 मुख्य राज्यों में यह 20वें स्थान पर है. बाल कुपोषण के लिए यह आंकड़ा 15 है. मानव विकास सूचकांक में 1990 में इसका स्थान छठा था. 2008 आते-आते यह फिसलकर आठवें स्थान पर आ चुका था. सुनील पारेख भी इस आयोजन का हिस्सा थे. उन्होंने इसमें गुजरात की औद्योगिक नीति से पैदा हुई चिंताएं सबके सामने रखीं. बड़े उद्योगों की सहायता के लिए छोटे उद्योग भी पनपते हैं. मगर पारेख के मुताबिक गुजरात में ऐसा बड़े स्तर पर नहीं हुआ. दूसरा, सरकार ने विकास के लिए पूंजी और तकनीक प्रधान रास्ता चुना जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था में पर्याप्त संख्या में रोजगार पैदा नहीं हुए. महत्वपूर्ण यह भी है कि उद्योगों से मिलने वाला राजस्व दूसरे राज्यों की तुलना में बहुत कम था. मोदी अक्सर शेखी बघारते रहे हैं कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद में गुजरात का योगदान किसी भी दूसरे राज्य से ज्यादा है. लेकिन पारेख द्वारा आयोजन में जो पत्र प्रस्तुत किया गया उसके मुताबिक ऐसा नहीं है. प्रोफेसर घनश्याम शाह के मुताबिक प्रशासन का जो असंतुलित पक्ष है वह बाहर वाले लोगों को दिखाई नहीं देता क्योंकि गुजरात के बारे में उनकी जानकारी के स्रोत सिर्फ सरकारी प्रचार और मीडिया में पूरे पेज के विज्ञापन होते हैं.
इस आयोजन में कई और हस्तियों ने भी गुजरात की अर्थव्यवस्था के अलग-अलग पहलुओं पर अपने पत्र प्रस्तुत किए. सभी लोग इस पर सहमत थे कि आयोजन से एक बड़ा निष्कर्ष यह निकला है कि पिछले एक दशक में भले ही गुजरात में तेज आर्थिक विकास हुआ हो मगर विकास से जुड़े जो मुख्य मकसद होते हैं उन्हें हासिल करने को लेकर इसकी स्थिति संतोषजनक नहीं है. हिर्वे के शब्दों में, ‘गुजरात के विकास के मॉडल को देश में सबसे अच्छे मॉडल के तौर पर पेश किया जा रहा है और कई राज्य इसे अपनाना चाह रहे हैं. लेकिन हमें खुद से गंभीरता से पूछना चाहिए कि हमारे जो निष्कर्ष हैं उसके बाद क्या भारत वास्तव में इस मॉडल को अपनाना चाहता है. और क्या गुजरात को खुद भी इस मॉडल पर चलना चाहिए? ‘ कुछ समय पहले एक पत्रिका में मोदी की अब तक की सबसे महत्वाकांक्षी निर्माण परियोजना पर एक लेख छपा था. इसके मुताबिक गुजरात इंटरनेशनल फाइनैंस टेक सिटी यानी गिफ्ट नाम की यह परियोजना जब पूरी होगी तो इसमें 7.5 करोड़ वर्ग फुट ऑफिस स्पेस होगा. यह आंकड़ा उससे भी ज्यादा है जो शंघाई, टोक्यो और लंदन के फाइनैंशियल डिस्ट्रिक्स को मिलाकर बनता है. बताया जाता है कि मोदी चीन से बहुत प्रभावित हैं और अपने इस सपने को पूरा करने के लिए वे वहीं के ईस्ट चाइना आर्किटेक्चरल डिजाइन एेंड रिसर्च इंस्टीट्यूट से आर्किटेक्टों की सेवाएं ले रहे हैं. गुजरात में अपनी परियोजनाएं चला रहे एक कारोबारी कहते हैं, ‘उद्यमियों के रूप में हम चीजों को अलग नजरिये से देखते हैं. हां, मोदी ने क्षुद्र नौकरशाही पर अंकुश लगाया है. उन्होंने गुजरात को अपेक्षाकृत भ्रष्टाचारमुक्त बना दिया है. यहां पारदर्शिता है और काम जल्दी होता है. अच्छी सड़कें और सुविधाएं हैं. लेकिन क्या यही सब कुछ है. यह सब तो चीन में भी है. मगर क्या मैं चीन में रहना चाहूंगा?’
‘नीतिनिर्माण का एक बुनियादी सिद्धांत है. वह सिद्धांत यह है कि सही हो या गलत, आपमें निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए. मोदी में फैसला लेने की हिम्मत है’
यह जानना जरूरी है कि पिछले दस साल के दौरान जिसने भी गुजरात में नरेंद्र मोदी को चुनौती दी या उन पर सवाल खड़े किए उसके साथ क्या हुआ. मल्लिका साराभाई ने जब दंगा पीड़ितों के पक्ष में बोलना शुरू किया तो उन पर 2003 में मानव तस्करी का केस लाद दिया गया. उनका पासपोर्ट जब्त कर लिया गया. उन्हें छुप-छुपकर दिन काटने पड़े. आईपीएस अधिकारी राहुल शर्मा ने दंगों के दौरान 300 से अधिक मुसलिम बच्चों की जान बचाई थी. शर्मा ने नानावती आयोग को वे फोन रिकॉर्ड भी सौंप दिए थे जिसमें नरोदा-पाटिया नरसंहार से संबंधित बातें हैं. इसके चलते एक भाजपा मंत्री और विश्व हिंदू परिषद के नेता की गिरफ्तारी हुई. लेकिन इस आईपीएस अधिकारी पर 2011 में सरकारी गोपनीयता अधिनियम के तहत मुकदमा ठोंक दिया गया. सोहराबुद्दीन शेख, उनकी पत्नी और एक और व्यक्ति तुलसी प्रजापति के एनकाउंटर की तहकीकात आईपीएस अधिकारी रजनीश राय ने की थी. राय ने मोदी के तीन करीबी पुलिस अधिकारियों और गुजरात के गृह मंत्री अमित शाह को गिरफ्तार किया. उनसे तुरंत यह केस वापस ले लिया गया और उनकी परफॉर्मेंस रिपोर्ट खराब कर दी गई.
मोदी सरकार का यह रवैया पुलिस अधिकारियों तक ही सीमित नहीं रहा. जाने-माने चिंतक आशीष नंदी ने 2008 में नरेंद्र मोदी और गुजरात के बारे में एक लेख लिखा था. इसके बाद नंदी के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करा दिया गया. मोदी सरकार पर एक खबर छापने की वजह से अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया पर 2008 में देशद्रोह का मुकदमा लाद दिया गया. गुजरात में दमन के शिकार लोगों की व्यथा कहने की कोशिश करना किसी साउंडप्रूफ कमरे में चिल्लाने जैसा है. बाहर के लोग कुछ सुन नहीं सकते. गुजरात के मध्य वर्ग और कॉरपोरेट प्रोफेशनलों में से ज्यादातर ने तो शायद इन घटनाओं के बारे में सुना ही नहीं होगा. जांच के दौरान अपने बुरे अनुभवों को बताते हुए एक आईपीएस अधिकारी पूछते हैं, ‘आपकी इस स्टोरी से क्या हो जाएगा?’ मैं जवाब देती हूं, ‘कुछ नहीं. लेकिन फिर भी ये बातें बाहर लाना जरूरी है.’ दरअसल ब्रांड गुजरात नाम का जो चमकदार आवरण है उसके नीचे की तहों में एक स्थायी भय भरा हुआ है.
मोदी के दस साल के शासनकाल ने गुजरात का कई मायनों में कायाकल्प किया है. लेकिन इस राज्य में कुछ ऐसी स्वाभाविक खासियतें भी हैं जिनके चलते मोदी भारतीय लोकतंत्र में एक चीनी नेता की तरह विकसित हुए हैं. समाजशास्त्री अच्युत याग्निक कहते हैं, ‘गुजरात भारत में सबसे अधिक शहरीकरण वाला राज्य है. राज्य में तकरीबन 30 शहर हैं और हर 25 किलोमीटर पर आपको एक कस्बा मिल जाएगा. इस वजह से भारत के दूसरे हिस्से में मौजूद शहरी और ग्रामीण की खाई यहां खत्म हो गई है. यही वजह है कि गुजरात में एक ही तरह की प्रतिक्रिया पैदा करना सरल है.’ इसके अलावा और भी बातंे हैं. संघ परिवार की यहां स्थानीय स्तर पर बहुत सशक्त मौजूदगी है. गुजराती समाज में संपन्नता बहुत है मगर सोच के मामले में यह अब भी काफी हद तक आधुनिक नहीं हो पाया है. इसके अलावा पिछली डेढ़ सदी से यह एक औद्योगिक समाज रहा है.
गुजरात की कुल आबादी में दस फीसदी मुसलमान हैं. इनमें भी ज्यादातर बोहरा और मेमन हैं. ये कारोबारी वर्ग हैं. इस वर्ग को भाजपा के साथ खड़े होने में कोई दिक्कत नहीं है. इसके अलावा कुछ और नए धार्मिक पंथों का उदय गुजरात में हुआ है. इनमें स्वामीनारायण, स्वाध्याय और मोरारी बापू के अनुयायी शामिल हैं. ये सभी हिंदुत्व की माला जपते हैं. गुजरात में पुराना गांधीवादी आंदोलन और स्वयंसेवा का विचार अब बचा नहीं है. विश्वविद्यालयों और लेखकों ने सरकार के साथ चलना तय कर लिया है और आंकड़ों से बनी मोदी की नई भाषा यहां वास्तव में लोगों को भाती है.
कांग्रेस की शक्ति के ह्रास को सुहृद और याग्निक दोनों ही गुजरात में मोदी के निर्बाध शासन का आखिरी कारण मानते हैं. सुहरुद कहते हैं, ‘वे एक विज्ञापन तो ठीक से बना नहीं पाते और मोदी जैसी प्रचार की मशीनगन से मुकाबला करना चाहते हैं.’ उनका इशारा इस साल गणतंत्र दिवस पर राज्य के अखबारों में छपे कांग्रेस के विज्ञापन की तरफ है जिसमें मोदी के शासन की तारीफ थी. लेकिन अब कांग्रेस खुद को फिर से ऐसे विपक्ष के रूप में जिंदा करने की कोशिश कर रही है जो मोदी जैसे चतुर प्रतिद्वंद्वी की टक्कर का दिखे. जून, 2011 में, पार्टी ने राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को 1000 पन्नों का एक ज्ञापन दिया है जिसके साथ मोदी के 17 कथित घोटालों से जुड़े सबूत भी हैं. इनमें से अधिकांश का संबंध अदानी, टाटा, भारत होटल्स, एलएंडटी, एस्सार और कई दूसरी कंपनियों को अनुचित रियायतें और कौड़ियों के दाम जमीन देने से है. इस साल चार जून को इन आरोपों की जांच के लिए बिठाए गए न्यायाधीश एमबी शाह आयोग ने सुनवाई शुरू की है. अगर ये आरोप साबित होते हैं तो चोट उस बुनियाद पर होगी जिस पर मोदी के ब्रांड गुजरात का महल खड़ा हुआ है. यह उनकी ईमानदारी समेत हर उस खासियत पर प्रहार होगा जिसके लिए उन्होंने अब तक तारीफ बटोरी है. नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ बाकी देश में आमतौर पर जैसा माहौल है उसे देखते हुए मोदी को जल्द ही कुछ कड़े सवालों का जवाब देने की तैयारी करनी पड़ सकती है.
इससे पहले, इस साल 12 जनवरी को गुजरात उच्च न्यायालय के जस्टिस वी एम सहाय ने मोदी सरकार की कड़ी आलोचना की थी. हुआ यह था कि मोदी सरकार ने राज्यपाल द्वारा राज्य के नए लोकायुक्त के रूप में न्यायमूर्ति आरए मेहता की नियुक्ति को अदालत में चुनौती दी थी. याचिका खारिज करते हुए मोदी के लिए जस्टिस सहाय के शब्द थे, ‘उनके इस कृत्य से ऐसा लगता है कि उन्हें अजेय होने का वहम हो गया है.’ मोदी सरकार इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में चली गई है. शीर्ष अदालत का फैसला जुलाई में आना है. अगर ईमानदार छवि वाले मेहता की नियुक्ति हो जाती है तो इसका मतलब मोदी के लिए एक नई चुनौती हो सकता है जो सीईओ-सीएम रहते हुए अपने फैसलों पर कोई सवाल न होने के आदी हो चुके हैं. इसी साल आठ और 15 फरवरी को दो अदालती आदेशों में मोदी सरकार की न सिर्फ आलोचना की गई है बल्कि उसे उन 500 धार्मिक इमारतों के लिए मुआवजा देने का निर्देश दिया गया है जिन्हें दंगों के दौरान नुकसान पहुंचाया गया. उन 65 मुसलिम याचिकाकर्ताओं को भी हर्जाना देने का निर्देश दिया गया है जिनकी दुकानें बर्बाद कर दी गई थीं.
पिछले डेढ़ साल में गुजराती मीडिया जो अब तक मोदी के सामने नतमस्तक रहा था, अचानक उन पर थोड़ी मजबूती के साथ रिपोर्टिंग करने लगा है. एक बड़े स्थानीय अखबार के पत्रकार कहते हैं, ‘पहले-पहल लोग उनसे बहुत अभिभूत थे. लेकिन अब हर किसी को उनका नाटक समझ में आने लगा है.’ सुजाभाई रूप सिंह राठौड़ बनासकांठा के वाव ब्लॉक में रहते हैं. वे भाजपा के स्थानीय मीडिया समन्वयक भी हैं. अपने गांव में पानी की स्थिति पर उनकी नाराजगी खुलकर सामने आती है. वे कहते हैं, ‘पहले हम ट्यूबवेल से जो पानी पीते थे वह साफ होता था. अब उस नर्मदा नहर का पानी हमारे घरों में पेयजल के रूप में पहुंचाया जा रहा है जो मूल रूप से सिंचाई के लिए बनी थी. इससे हम बीमार पड़ रहे हैं.’ कच्छ में रापड़ ब्लॉक के फतेहगढ़ गांव के सरपंच रामदीन कनोर कहते हैं, ‘मोदी गुजरात के गर्व गुजरात के गौरव के बारे में बात करते रहते हैं. लेकिन गरीबों के लिए न कोई गर्व है न गौरव. गरीबों के लिए कोई मदद नहीं है. हमारे पास पानी नहीं है.’ 2007 के विधानसभा चुनावों के दौरान मोदी ने लोगों को एक एमएमएस भेजा था—’मैं सीएम था. सीएम हूं और सीएम रहूंगा. यहां सीएम मतलब था कॉमन मैन!’ यह चतुराई भरी पंक्ति एक मायने में नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षा की दुविधा भी दिखाती है. सवाल उठता है कि वे कौन से सीएम हैं. अगर वे वास्तव में राष्ट्रीय राजनीति में जाना चाहते हैं तो उन्हें खुद ही अपने भीतर इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना होगा.