विरोध में उतरे लाखों लोग, परियोजना रद्द करने की उठायी माँग
मध्य प्रदेश के जंगल केवल इस राज्य की ही नहीं, बल्कि पूरे देश की अनमोल धरोहर हैं। अभी क़रीब एक महीने पहले यहाँ के लाखों हेक्टेयर जंगल आग में जल गये, जिन्हें बचाने की कोशिश के अलावा लोगों ने आवाज़ भी उठायी। अब 20 मई, 2021 को अचानक सोशल मीडिया पर #Save_Buxwaha_forest,#बकस्वाहा_बचाओ_अभियान जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे और छतरपुर ज़िले का बकस्वाहा के जंगल चर्चा में आ गये। दरअसल मध्य प्रदेश के छतरपुर ज़िले के बकस्वाहा में हीरा खनन प्रोजेक्ट के लिए तक़रीबन 2.16 लाख पेड़ों को काटा जाना है। दरअसल 3.42 करोड़ कैरेट हीरे निकालने के लिए 382.131 हेक्टेयर का जंगल तबाह करने की तैयारी राज्य सरकार कर रही है। इतने बड़े जंगल में आँवला के तक़रीबन 3311 और अमलतास के 2035 पेड़ हैं। इसकी शुरुआत भी कर दी गयी है। बकस्वाहा क्षेत्र में हीरा खनन प्रोजेक्ट के लिए पेड़ों का कटान शुरू होने से लोगों में भारी आक्रोश है। इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों के कटान को लोग प्रकृति का विनाश बता रहे हैं। देश भर के पर्यावरण संरक्षण से जुड़े 50 से अधिक संगठनों समेत लाखों लोग इस परियोजना के विरोध में उतर आये हैं। पेड़ों का कटान रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका भी दायर की गयी है।
क्या है हीरा खनन प्रोजेक्ट?
मध्य प्रदेश सरकार ने 20 साल पहले छतरपुर ज़िले के बकस्वाहा में बंदर हीरा प्रोजेक्ट के तहत सर्वे शुरू किया था। बंदर हीरा प्रोजेक्ट का कार्य सरकार द्वारा पहले आस्ट्रेलियाई कम्पनी रियो टिंटो ग्रुप को आवंटित की गयी थी। कम्पनी ने लगभग 800 पेड़ भी काट दिये; लेकिन पर्यावरणविदों के विरोध के चलते केंद्रीय वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से उसे एनओसी नहीं मिल पायी। रियो टिंटो द्वारा खदान बन्द किये जाने के बाद मध्य प्रदेश सरकार ने अब यह प्रोजेक्ट दो साल पहले आदित्य बिड़ला ग्रुप को दे दिया। आदित्य बिड़ला ग्रुप के एस्सेल माइनिंग एँड इंडस्ट्रीज लिमिटेड को खनन के लिए हीरा भण्डार वाली 62.64 हेक्टेयर जंगलों की ज़मीन मध्य प्रदेश सरकार ने 50 साल के लिए लीज पर दी है। कम्पनी ने जंगलों की 382.131 हेक्टेयर ज़मीन सरकार से माँगी है। कम्पनी का तर्क है कि बाक़ी 205 हेक्टेयर ज़मीन में खदानों से निकले मलबे को डंप किया जाएगा। बताया जा रहा है कि बकस्वाहा में पन्ना ज़िले के हीरा खदान की अपेक्षा 15 गुना ज़यादा हीरे हैं, जिनकी क़ीमत लगभग 50,000 करोड़ रुपये है।
विरोध में उतरे विधायक
वन विभाग के अनुसार, बकस्वाहा के जंगल में लगभग 2,15,875 पेड़ हैं, जिन्हें प्रोजेक्ट के लिए काटा जाएगा। मध्य प्रदेश के तीन विधायक इस परियोजना के विरोध में उतर आये हैं। मध्य प्रदेश में सरकार को समर्थन दे रहे बिजावर से समाजवादी पार्टी के विधायक राजेश शुक्ला, बण्डा से कांग्रेस विधायक तरवर सिंह लोधी और मनावर विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखकर पेड़ न काटने और उक्त परियोजना को रद्द करने की माँग की है।
राजेश शुक्ला ने अपने पत्र में कहा है कि वर्तमान में कोविड-19 की विभीषिका के चलते जहाँ लोग अपनों को बचाने के लिए सोना, चाँदी और हीरों को बेचकर ऑक्सीजन ख़रीद रहे हैं, वहीं हीरा खनन प्रोजेक्ट के तहत ऑक्सीजन देते वृक्षों की बलि देने की तैयारी की जा रही है। जब लोग नहीं बचेंगे, तो हीरे किस काम के रहेंगे? उन्होंने केंद्र और राज्य सरकार से अपने निर्णय पर पुन: विचार करने का आग्रह किया है।
बण्डा विधायक तरवर सिंह लोधी ने अपने पत्र में कहा है कि राज्य सरकार जहाँ एक भी पौधा नहीं लगा पा रही है, वहीं प्रकृति के सौंदर्य एवं मानव को जीवन देने वाले बकस्वाहा विकासखण्ड में हीरे की खदान के लिए 2.16 लाख वृक्षों का काटने पर तुली है, जो कि दुर्भाग्यपूर्ण और प्राकृतिक न्याय के ख़िलाफ़ है। यदि बकस्वाहा विकासखण्ड के वृक्षों का कटान तुरन्त नहीं रोका गया, तो समस्त नागरिकों के साथ हम आन्दोलन करने को बाध्य होंगे।
मनावर विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने अपने पत्र में कहा है कि बकस्वाहा में हीरा खनन प्रोजेक्ट के लिए लाखों पेड़ों को काटना सम्पूर्ण मानव समुदाय के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं है। जंगल में मौज़ूद लाखों पेड़ प्रतिदिन लाखों मीट्रिक टन ऑक्सीजन बनाते हैं और अत्यधिक मात्रा में वातावरण में मौज़ूद कार्बन डाई आक्साईड को सोखने का काम करते हैं, जिससे हम ग्लोबल वार्मिंग जैसे दुष्प्रभावों से बचे रहते हैं। आज कोरोना महामारी के इस दौर में गम्भीर रूप से कोरोना संक्रमित मरीज़ों के लिए ऑक्सीजन की क्या क़ीमत होती है, यह हम सब जान रहे हैं। ऐसे में जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण ऑक्सीजन बनाने वाले लाखों हरे-भरे पेड़ों की हीरा खनन प्रोजेक्ट के नाम पर भेंट चढ़ाना पर्यावरण के लिए तो गम्भीर ख़तरा है ही, साथ ही परम्परागत रूप से जंगलों में निवास करने वाले लोगों, वन्य जीव प्राणियों के आस्तित्व को ख़त्म करने के ख़तरा जैसा है। जंगल काटे जाने से पारिस्थितिकी तंत्र असन्तुलित होगा, जिससे प्राकृतिक आपदाओं का ख़तरा भी पैदा होगा। डॉ. हिरालाल अलावा ने भी इस परियोजना को अविलम्ब रद्द करने की माँग की है।
एनओसी के बिना कटान
नियम के अनुसार, 40 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र के खनन का प्रोजेक्ट हो, तो उसे केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की मंज़ूरी लेनी पड़ती है। हीरा खदान के लिए 62.64 हेक्टेयर जंगल चिह्नित हैं, जबकि कम्पनी 382.131 हेक्टेयर जंगल माँग रही है। ऐसे में परियोजना को खनन के लिए केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की एनओसी आवश्यक है। वन विभाग में लैंड मैनेजमेंट के अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक सुनील अग्रवाल का कहना है कि प्रपोजल केंद्र सरकार को भेजा चुका है, लेकिन अभी मंज़ूरी नहीं मिली है।
सवालों के घेरे में वन विभाग की सर्वे रिपोर्ट
केंद्र से एनओसी के लिए वन विभाग द्वारा सर्वे कर जो रिपोर्ट तैयार की गयी है, उसमें हीरा खनन प्रोजेक्ट की परिधि में एक लाख पेड़ों का आना बताया गया है। जबकि दूसरी ओर वन विभाग 2,15,875 पेड़ों के काटे जाने की बात कर रहा है। ऐसे में वन विभाग की सर्वे रिपोर्ट पर सवाल उठने लगे हैं। पर्यावरण स्वीकृति (एनओसी) की फाइल केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के पास दिसंबर, 2020 से लम्बित है। अनुमति के सम्बन्ध में वन विभाग की सर्वे रिपोर्ट भी भेजी गयी है, जिसमें एक लाख पेड़ काटे जाने की बात कही गयी है। वन विभाग के अधिकारी कहते हैं कि जितने पेड़ काटे जाएँगे, उतने ही पौधे अन्यत्र राजस्व भूमि पर लगाये भी जाएँगे। जबकि पर्यावरणविद् मानते हैं कि इतनी संख्या में पौधरोपण करना और जंगल तैयार करना असम्भव कार्य है।
मनावर विधायक डॉ. हिरालाल अलावा ने भी वन विभाग के सर्वे रिपोर्ट पर सवाल उठाये हैं। डॉ. अलावा कहते हैं कि सर्वे में हीरा खनन प्रोजेक्ट की परिधि में सिर्फ़ एक लाख पेड़ों का आना बताया गया है, जो कि एक सफ़ेद झूठ है। सभी जानते हैं कि 2.16 लाख पेड़ काटे जाने हैं, तो सर्वे में सिर्फ़ एक लाख पेड़ों का कटान क्यों दर्शाया गया? सर्वे में वन्य जीव प्राणियों की संख्या का कोई ज़िक्र नहीं है। क्या सर्वे रिपोर्ट में तथ्यों को छुपाया गया है? आख़िर जिस प्रोजेक्ट को केंद्रीय वन पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा अभी तक एनओसी नहीं मिला है, उस प्रोजेक्ट में किस आधार पर 2.16 लाख पेड़ों और लाखों छोटे-बड़े पौधों वाले जंगल का विनाश किया जा रहा है?
पत्रकार राजू दुबे कहते हैं कि बकस्वाहा के जंगल बेशक़ीमती पेड़ों और वन्य प्राणियों सहित सघन वन से घिरा है। मई, 2017 में पेश की गयी जियोलॉजी एँड माइनिंग मप्र और रियोटिंटो कम्पनी की रिपोर्ट में इस क्षेत्र में तेंदुआ, भालू, बारहसिंगा, हिरण, मोर सहित कई वन्य प्राणियों के यहाँ मौज़ूद होना बताया गया, इस क्षेत्र में लुप्त हो रहे गिद्ध भी हैं।
ऐसे में वन विभाग के उपरोक्त सर्वे रिपोर्ट पर सवाल उठना लाज़िमी है। आख़िर क्यों दिसंबर में प्रस्तुत की गयी सर्वे रिपोर्ट में पेड़ों की संख्या कम बतायी गयी है? और क्यों दावा किया गया है कि यहाँ पर एक भी वन्य प्राणी नहीं हैं?
वास्तव में यह रिपोर्ट मूर्खता और धूर्तता भरी है, क्योंकि ऐसा कोई जंगल होता ही नहीं है, जहाँ कोई वन्यजीव न रहते हों।
आदिवासियों-परम्परागत वननिवासियों का विरोध
हीरा खदान के आसपास के जंगलों में रहने वाले आदिवासी-परम्परागत वननिवासी भी जंगल काटे जाने का विरोध कर रहे हैं। आदिवासियों-वननिवासियों का कहना है कि अगर जंगल कटे तो वे बर्बाद हो जाएँगे। उनकी जीविका जंगलों पर ही आश्रित है। जंगल से वन सम्पदा के रूप में महुआ, चिरोंजी, गुली, तेंदूपत्ता, चरवा इत्यादि वस्तुएँ प्राप्त होती हैं, जिससे आदिवासियों-वननिवासियों का परिवार पलता है। बकस्वाहा के जंगल पर आश्रित एक आदिवासी महिला ने बताया कि हमारे पास कोई ज़मीन नहीं है। हमारे लिए जंगल ही सब कुछ हैं। इन्हीं से हमारा परिवार पलता है। जंगल नहीं रहे, तो हमारे बच्चे भूखे मर जाएँगे।
हीरों से ज़्यादा ज़रूरी ऑक्सीजन
आज जब कोरोना महामारी के दौरान जब पूरा देश ऑक्सीजन की क़िल्लत से जूझ रहा है, तब लोगों को पेड़ों की अहमियत समझ में आयी है। ख़ुद मध्य प्रदेश में लाखों लोग ऑक्सीजन की कमी से मरे हैं और फिर भी राज्य सरकार पेड़ों को कटवाने पर तुली है। सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि जंगल ज़रूरी है या हीरे?
हीरा खदान के लिए पेड़ों के काटने का बुंदेलखण्ड के कई इलाक़ों में तीव्र विरोध होने लगा है। युवाओं के साथ-साथ शहरों-गाँवों के लोग भी लामबन्द हो रहे हैं। ऑक्सीजन की कमी से हुई मौतों के मद्देनज़र लोगों में यही चर्चा का विषय है कि क्या हीरा खदान जनता की जान से भी ज़रूरी हैं? क्या 2.16 लाख पेड़ों को काटना ज़रूरी हो गया है? इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों के कटान का सबसे ज़्यादा विरोध युवा कर रहे हैं। विरोध के लिए युवा सोशल मीडिया साइट व्हाट्स ऐप, फेसबुक और ट्विटर का सहारा ले रहे हैं। ‘सेव_बकस्वाहा_फारेस्ट’ कैंपेन चला रहे हैं। पेड़ काटने के विरोध में देश भर में माहौल तैयार कर रहे हैं। अधिकतर युवा स्टेट्स और पोस्ट के ज़रिये पेड़ कटने का विरोध कर रहे हैं।
बकस्वाहा के जंगल को बचाने के लिए 5 जून को पर्यावरण दिवस के अवसर पर देश भर से पर्यावरणविदों और लोगों ने हीरा खनन प्रोजेक्ट का विरोध करने के लिए छतरपुर ज़िले के बकस्वाहा के जंगलों की ओर कूच किया और इस परियोजना का विरोध किया।
सर्वोच्च न्यायालय में याचिका
बकस्वाहा के जंगलों को बचाने के लिए दिल्ली की नेहा सिंह ने 9 अप्रैल, 2021 को सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने मंज़ूर कर लिया है। याचिका में कहा गया है कि हीरा के लिए जीनवदायी लाखों पेड़ों की बलि नहीं दी जा सकती। लाखों पेड़ों के कटने से पर्यावरण एवं मानव जीवन को अपूर्णीय क्षति होगी, जिसकी भारपायी सम्भव नहीं है। हीरा खनन हो, लेकिन हमारे जीवन के लिए ज़रूरी पेड़ों की बलि देकर नहीं। जिस क्षेत्र में खनन की अनुमति दी गयी है, वह न्यूनतम जल क्षेत्र है। यहाँ पहले से ही पानी की कमी है। कम्पनी के काम के लिए बड़ी मात्रा में इस इलाक़े से पानी का दोहन होगा, जिससे आसपास का जल स्तर भी प्रभावित होगा। लोगों को पानी की दिक़्क़त होगी और वन्य प्राणी भी प्यासे मरेंगे। लिहाज़ा आदित्य बिड़ला ग्रुप को दी गयी लीज निरस्त की जाए।
बुंदेलखण्ड को रेगिस्तान बनाने की तैयारी
लोगों का कहना है कि सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखण्ड को रेगिस्तान बनाने की तैयारी चल रही है। बुंदेलखण्ड क्षेत्र के पथरिया निवासी अंकित पटेल कहते हैं कि भारत की सबसे बडेहीरा भण्डार की जानकारी मिलते ही सरकार ने क़रीब सवा दो लाख पेड़ों को कटवाने की तैयारी कर ली; लेकिन सरकार और उसके प्रशासन को चलाने वाले अधिकारियों ने यहाँ के पर्यावरण पर कोई अध्ययन किया, न ही उसके बारे में कोई भी जानकारी दी। वनों के कटान के बाद यहाँ बीहड़ बन जाएगा। हमारी आने वाली पीढिय़ाँ चंबल के बाद बुंदेलखण्ड के बीहड़ को देखने को तैयार होंगी। यहाँबहने वाली नदियाँ जंगल कटने के बाद लुप्त हो जाएँगी। क्योंकि जंगल है, तो पानी है; और पानी ही जीवन का आधार है। पर्यावरण विज्ञान की दृष्टि से बीहड़ बनना रेगिस्तान बनने की शुरुआत मानी जाती है।
अंकित पटेल कहते हैं कि केन-बेतवा लिंक परियोजना के कारण पन्ना राष्ट्रीय उद्यान का लगभग 72 वर्ग किमी का जंगली क्षेत्र भविष्य में डूब जाएगा, और रही-सही क़सर पूरी करने के लिए राज्य सरकार बकस्वाहा के जंगलों को काटने जा रही है। बकस्वाहा के जंगल कटने से समूचे बुंदेलखण्ड का प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ जाएगा। आख़िर प्रदेश सरकार को बुंदेलखण्ड से कौन-सी समस्या है कि वह इसे भविष्य का रेगिस्तान बनाने के लिए अग्रसर हो रही है।
किसान पेड़ काटें, तो लगता है ज़ुर्माना
मध्य प्रदेश पछले दिनों मध्य प्रदेश के सीहोर ज़िले में एक किसान द्वारा सागौन का पेड़ काटने पर इंडियन काउसिंल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च एँड एजुकेशन के रिपोर्ट के आधार पर वन विभाग द्वारा एक करोड़ 21 लाख रुपये का ज़ुर्माना लगाया गया। यह एक तरह से लोगों को पेड़ काटने से रोकने के लिए अनूठा फ़ैसला कहा जा सकता है। लेकिन सवाल उठता है कि यही वन विभाग बकस्वाहा में 2.16 लाख पेड़ों को काटने की परियोजना पर ख़ामोश क्यों है? और बड़ी संख्या में पेड़ों का कटान होने पर भी कम्पनी और दोषियों के ख़िलाफ़ चालान क्यों नहीं कर रहा है? इंडियन काउसिंल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च ऐंड एजुकेशन के रिपोर्ट के अनुसार, 2.16 लाख पेड़ों और जल्द ही पेड़ बनने वाले लाखों छोटे-बड़े पौधों वाले जंगल की क्या क़ीमत होगी? इंडियन काउसिंल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च ऐंड एजुकेशन के अनुसार, एक पेड़ की औसत उम्र 50 साल मानी गयी है। 50 साल में एक पेड़ 50 लाख क़ीमत की सुविधा देता है तथा 23 लाख 68,000 रुपये क़ीमत का वायु प्रदूषण कम करता है। साथ ही 20 लाख रुपये क़ीमत का भू-क्षरण नियंत्रण करने के साथ-साथ ज़मीन की उर्वरता बढ़ाने का भी काम करता है।