कथा और कहानी का विस्तार ज्यों-ज्यों आकार लेता गया त्यों-त्यों कहानी के शिल्प की बुनावट बदलती गई। कहानी के विषय बदले और कहानी में सघनता, प्रभाव की बात महत्वपूर्ण हो गई। कहानी सन 70 के बाद वैश्विक समस्याओं से ही नहीं जूझती बल्कि अकेलेपन और नगरीय जीवन की बहस में भी शामिल होती है। इसी काल में क्षण की अनुभूति या कौंधने वाले क्षण के महत्व से जुड़ी कहानियाँ भी सामने आईं।
छठे-सातवें दशक में सचेतन कहानी, समानांतर कहानी, अकहानी आन्दोलन आकार लेते हैं जो आगे जाकर जनवादी कहानी, सहज कहानी में तब्दील होते नजर आते है। इस काल के प्रमुख कहानीकार अमरकांत, दूधनाथ सिंह, ज्ञान रंजन, रवीन्द्र कालिया, गंगा प्रसाद विमल हैं वहीं आंचलिक कहानियों में फणीश्वर नाथ रेणु, शिवप्रसाद सिंह, मार्कंडेय आदि महत्वपूर्ण हैं।
क्षेत्रीयता का समावेश इस काल से कहानियों में दिखता है और इसी क्रम में पहाड़ इस काल की सम्वेदना में दाखिल होता है और आर्थिक कठिनाइयों के कारण बनते वर्ग संघर्ष को पहाड़ की श्रमशील जिन्दगी में भी जगह मिलने लगती है। शेखर जोशी की कहानियाँ एक ओर दाज्यू के माध्यम से बच्चे की आहत सम्वेदना और अलगाव को दर्शाती हैं तो दूसरी ओर बदबू कहानी मात्र बदबू के अहसास से ही जीने के अहसास को दिखाती है असल में अलगाव और मध्यवर्गीय संस्कारिकता के कारण त्रिशंकु हो जाने की पीड़ा इस काल से कहानी का मुख्य स्वर बनकर उभरने लगती है।
अकेलेपन का यह विस्तार नगर से वैश्विक धरती तक निर्मल वर्मा की कहानियों में आता है। समाज से असम्पृक्त व्यक्ति, रहस्य और मृत्युबोध निर्मल के साथ ही चला आता है और रूनी की शक्ल में ‘दहलीजÓ से गुजर कर हमारी चेतना पर छा जाता है और रूनी की तरह जैसे चेतना यह घोषणा करती है कि ‘देखती नहीं,मैं मर गई हूँ!Ó बहुत बाद में यह मृत्यु बोध अपनी पूरी भयावहता के साथ स्वदेश दीपक की कहानियों में मूर्त हो उठता है।
आंचलिक कहानियों में रेणु कहानी का शिल्प बदलते हैं। प्रेम की रोमानी छुअन और लोक का मिश्रण हिरामन और हीराबाई से होते हुए लाल पान के बेगम के माध्यम से एक केवल लोक जीवन की भाषा और सहजता का आभास ही नहीं कराता बल्कि गाँवों देहातों के भीतर के आदमी की तरलता को मूर्त कर देता है । रेणु की दुनिया में आदमी सहज है जिसकी बहुत कम जरूरतें हैं जो मेले जाने से लेकर सीता मैया की नौटंकी देखकर जी सकता है और हार जाने पर तीसरी कसम उठा सकता है, कभी नौटंकी वाली औरत को साथ न ले जाने की, और गीत बजता रह जाता है ‘सजनवा बैरी हो गए हमारÓ।
ज्ञानरंजन की कहानियों में पिता और घन्टा जैसी कहानियाँ संबंधों के एक नए दायरे को विस्तार देती हैं जहाँ शहर की अजनबियत सम्बन्धों पर हावी हो जाती है। नई कहानी से अलग होने की इच्छा यहाँ अकहानी के रूप में दिखाई देती है जहाँ पुरानी सी लगने वाली कहानी से मुक्ति की इच्छा भी प्रबल है और शहरी संवेदनहीनता के प्रति असहजता भी! ज्ञानरंजन की कहानी अनुभव इसी तिक्त और खोखले अनुभव को मूर्त करती है जहाँ क्लर्क के भीतर चिपचिपाहट है और भैंस के समान उसका पाँव भी! लेखक उसे मनहूस मानता है और अपने घर को आश्रम। जहाँ रहने से उसका मन घबराता है। वेश्याओं के पास जाने से लेकर हँसने और शोर मचाने के सारे असफल प्रयास उसके कड़वे अनुभव को और विस्तृत करते हैं ।
उदय प्रकाश की कहानियाँ मानव के क्षितिज को विस्तार देती हैं। कल्पना की दुनिया से यथार्थ को बदलने की मुहिम यथार्थ के दु:ख को और अधिक सघन कर देती है। ये कहानियाँ अपनी पूर्ववर्ती कहानियों की कल्पना से इस अर्थ में भी भिन्न हैं कि पहले कल्पना लोक की दुनिया हमें यथार्थ की भयावहता से निकलने में सहायता करती थी और परियों की दुनिया के माध्यम से कुछ क्षणों के लिए यथार्थ से मुक्त कर देती थीं पर उदय प्रकाश की कहानियाँ दु:ख और अन्धकार के भीतर ले जाती हैं छप्पन तोले की करधन पढ़ते हुए ह््रदय काँप जाता है और दादी का जादू टोना (जो कहानी में कहीं नहीं दिखता) हमारी चेतना पर छा जाता है शायद इसीलिए वह किसी और को अपनी चपेट में नहीं लेता पर पिता उससे निकलते नहीं खुद ही उसके भीतर समा जाते हैं। समाज का कालापन उनकी कहानियों पर छा जाता है और आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती। तिरिछ कहानी के पिता का मरना हमारी संवेदना पर गहरी चोट करता है और कहानी हतप्रभ कर जाती है। इसे जादुई यथार्थ की संज्ञा दी गई। निराशा और उदासी के बीच पिता का मरना जैसे मजबूर करता है कि हाथ बढ़ाकर पिता का मरना रोक दिया जाए बैचेनी भी होती है कि अंत तक कहीं कोई भी पिता को पहचानने वाला नहीं आता पर बाद में हर कोई दावा करता है रपट की तरह कि वह घटना का साक्षी है। साक्षी और साक्ष्य की यह लड़ाई पिता को मरने से नहीं बचाती बल्कि हर सपने को और भयावह कर देती है। गैब्रिएला मार्खेज की तरह जिसकी कहानियों से गुजरना एक ऐसे जादू से गुजरना है जिसके शिकार होना आपकी नियति है और आप स्वयं उस नियति का शिकार होकर कुछ और संवेदनशील हो उठते हैं।
कहानियों की इस बदलती भाषा और शैली ने एक नए कठोर यथार्थ के लिए जगह बनाई। अब भी कहानियों के पात्र आम मध्यवर्गीय पात्र ही थे, मजदूर और गरीब ही थे पर प्रेमचंद की परम्परा की भांति अब कहानी किसी निष्कर्ष को प्रस्तावित नहीं करती बल्कि जूझने के लिए मजबूर करती है आप उससे मुक्त नहीं हो सकते मुक्तिबोध के शब्दों में ‘उठाने ही होंगे सारे खतरे, तोडऩे ही होंगे सारे दुर्ग और मठÓ
कहानी का यह अंदाज विकसित होता है काशीनाथ सिंह की लोक जीवन की लोक कथाओं से उपजी कहानियों में! काशीनाथ की कहानी जंगल जातकम एक किस्सा कथा या जातक कथा की तरह चलती है और ठीक उसी अंदाज में बूढ़े पेड़ के द्वारा नए युवा पेड़ों को शिक्षा दी जाती है ‘बेंत न बननाÓ पर युवा पेड़ बहकने और कटने की स्थिति में आ चुके हैं ये कहानी धन्य हैं श्रीमान धन्य हैं। आपको घोड़ा खींच रहा है। आप समेत घोड़े को मनुष्य खींच रहा है फिर यह कैसे मान लें कि आप मनुष्य के हित के लिए यहाँ पधारे हैं? जैसे किस्सात्मक वाक्यों के जरिये देहाती ठाठ को बरकरार रखते हुए आबादियों के विस्थापन और मनुष्य की स्वार्थपरता का उद्घाटन करती है जहाँ घमोच जैसे लोग वर्गीय हित साधन के लिए युवा पेड़ों को बहकाकर अपनी ओर करते हैं- ‘जब पेड़ हाथ मिलाता है आदमी से। पेड़ के खिलाफ लोहा। लोहे के खिलाफ आदमी। आदमी के खिलाफ सबके सब कटते हैं जंगल पेड़ों से पटते हैं लम्बी तानते हैं, श्रीमानÓ।
इसी क्रम में दो अन्य महत्वपूर्ण कहानीकारों अखिलेश और विजयदान देथा का जिक्र करना आवश्यक है गल्पकार के लिए जिस किस्सागोई का बुनना अनिवार्य है उस किस्सागोई के माध्यम से जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं को मूर्त करने का गुण इन कहानीकारों के पास है। अखिलेश की एक कहानी है ‘चि_ीÓ। किस्सागोई के अंदाज में यह कहानी युवा लड़कों के झूठे स्वप्नों और सपनों में जीते इन लडकों के हाथ से निकलती जिन्दगी यहाँ क्षण-क्षण क्षरित होती साफ दिखती है। पढ़ाई और स्त्रियों के यौवन के सपने देखते यह दोस्त दुनिया को बदलने की इच्छा भी रखते हैं। एक क्षण के लिए याद आ जाते हैं अपने साथ पढ़े-लिखे वो सारे चेहरे जो गाँव-देहात और दूर-दराज के इलाकों से आए, संघर्ष किया पर व्यवस्था के क्रूर हाथों में पिसकर वे लौट गए अपनी अपनी कंदराओं में! ये दोस्त भी इसी व्यवस्था के हाथों टूटते है और लौटते हैं कभी दुबारा न मिलने के लिए!
‘उस दिन अलग होने के पहले हमने तय किया ‘हममें से यदि कोई कभी सुखी हुआ तो सारे दोस्तों को खत लिखेगा।लंबा समय बीत गया इंतजार करते, किसी दोस्त की चि_ी नहीं आई। मैंने भी दोस्तों को कोई चि_ी नहीं लिखी है।Ó (चि_ी)
कहानी की परिणिति अत्यंत उदासी में होती है पर यही तो सत्य है और यही उदासी जीवन में दिखाई देती है
वहीं दूसरी ओर विजयदान देथा की कहानियाँ एक अलग तरह के तेवर और शिल्प की जमीन तैयार करती हैं जहाँ राजस्थानी बोली की मिठास भी है और लोक जीवन की जीवन्तता भी! उनकी कहानी है ‘वैतरणीÓ जिसका अंश है…
उसके बाद घर में किसी से कहे सुने बिना ही छोटे बेटे ने आसपास के गाँवों और ढाणियों में ढूँढ़-ढाँढ़कर हूबहू अपने सपने सरीखी सफेद गाय खरीदी। गीतों से बधाकर घर में लिया। हाथ के गुलाबी छापे लगाए। नाम रखा बगुली। बगुलों को भी मात करे जैसा सफेद रंग। रेशम जैसी कोमल रोमावली। छोटा मुँह। कुण्डलिया सींग। छोटे कान। छोटी दन्तावली। सुहानी गलकंबल। चौड़ी माकड़ी। छोटी तार। पतली लम्बी पूँछ। एक सरीखे गुलाबी थन।Ó
गोदान की कथा-भाषा का स्मरण कराती यह भाषा लोक जीवन की बानगी ही नहीं देती बल्कि शोषण के चित्र भी साकार कर देती है साथ ही शोषण के खिलाफ खड़े होने का साहस भी!
अब्दुल बिस्मिल्लाह की कहानियों में निम्न मध्यवर्गीय समाज नजर आता है ऐसा समाज जो अपने ही भीतर जूझ रहा है धर्म को वे समाज में साम्प्रदायिकता फैलाने का आधार मानते हैं उनकी ग्राम सुधार कहानी का पात्र कहता है ‘पहले दंगे शहरों में ही हुआ करते थे। गाँव उससे अछूते ही थे किन्तु गाँवों में अब यह बीमारी फैल गई है। गाँव में इस बीमारी को फैलाने में धर्म के ही ठेकेदारों का ही हाथ है ऐसे लोग लोगों के दिलों में साम्प्रदायिकता की भावना को इस कदर भर देते हैं ……लोग जल और पानी में भी फर्क करने लगते हैंÓ भोगे हुए यथार्थ की पीड़ा ने उनके अनुभव और कैनवास को विस्तृत किया है जहाँ वर्ग संघर्ष, जाति और मजहब की पीड़ा और वर्ण भेद इस सीमा तक फैले हुए हैं कि मनुष्य इससे चाह कर भी पार नहीं पा सकता। उनकी कहानियों में सिर्फ धार्मिक भेद ही नहीं बल्कि एक धर्म के भीतर भी तनाव की हदें यहाँ दिखाई देती हैं । एक कहानी ‘जीना तो पड़ेगाÓ का पात्र किसी अस्पताल में नहीं जाना चाहता क्योंकि उसके भीतर यह डर है कि उसके मुस्लिम होने के कारण उसे हिन्दू डॉक्टर जहर की सुईं लगाकर मार देगा पर तभी एक पात्र रहस्य-उद्घाटन करते हुए जैसे कहता है ‘अरे मामू अभी मैंने क्या कहा? तुम्हें किसी मुसलमान औरत ने भी तो मारा हैÓ कहानियों का यह क्षण जैसे कौंध कर रह जाता है और कहानी बस रुक जाती है और सोचने पर मजबूर करती है कि कब तक जाति और धर्म की इस बहस के आगे मनुष्यता हारती रहेगी ।
ब्रेख्त ने एक स्थान पर लिखा है कि मनुष्य के साथ सबसे बड़ा खतरा सत्ता को यही महसूस होता है कि वह सोच सकता है आज की कहानियाँ इसी सोच और वैचारिकता की कहानियाँ है ।
इसी सोच और वैचारिकता से अस्मिता मूलक कहानियों का जन्म होता है जहाँ अपनी अनुभूति को अपनी जिह्वा से कहने और व्यक्त करने की जद्दोजहत भी है और अपना सौंदर्यशास्त्र स्वयं रचने की इच्छा भी! स्त्रियाँ अपने अस्मिता बोध को अपने अकेलेपन और संसार के समानांतर सूत्र तलाशते हुए ढूंढती हैं।इस सूत्र की तलाश मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग, उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती प्रमुख हैं । मन्नू भंडारी की कहानियों में यही सच है जहाँ स्त्री मन और क्षण के सत्य को जोड़ती है । वहीं एक कमजोर लड़की की कहानी स्त्री को पुरातन बने बनाए नियमों में बंधे रहने और प्रेम के द्वंद्व को दर्शाती है। यह कहानियाँ बदलते समाज और पुरातन समाज की द्वंद्वात्मक स्थिति को दिखाती है जहाँ बदलने की इच्छा भी है और पुरातनता का दबाव भी!
कृष्णा सोबती का लेखन बने-बनाए नियमों से भिन्न एक मांसल, बोल्ड और साहसी स्त्री की छवि प्रस्तुत करता है जिसे आलोचकों द्वारा सहज स्वीकार नहीं किया जा सका पर खारिज करने का साहस भी जुटाया नहीं जा सका । कृष्णा की स्त्री शाहनी हैं जो सिक्का बदलने का अर्थ जानती है और ‘रब राखाÓ कहकर अपना सब छोड़कर आगे बढ़ जाती है मित्रों अपना निर्णय लेकर उसका भुगतान करने के लिए भी तैयार रहती है पर अपनी देह की सीमाओं को तोडऩे का साहस जुटाती है, इसीलिए मरजानी बनकर जीती है पर समझौता नहीं करती!
राजी सेठ, जया जादवानी, मृदुला गर्ग, अनामिका जैसी सजग और निरंतर लेखन कर रहीं रचनाकार स्त्री स्वप्नों को रच रही हैं और हर रचनाकार स्त्री स्वप्न को तलाशने का अपना सूत्र विकसित कर रही है जैसे राजी सेठ की कहानियाँ धर्म और दर्शन को समाजशास्त्रीय नजरिये से परिभाषित करती है । स्त्री होना और स्त्री होने की जिद से लिखना दो अलग तर्क है, और राजी सेठ अपने संग्रह स्त्री हूँ इसीलिए में रचनामूल्यों और मनुष्यता के आयामों को व्याख्यायित करता है। स्त्री होने के नाते वह स्त्री को ही सही मानकर उसकी पक्षधरता नहीं करती बल्कि क्रूर तटस्थता के साथ हर घटना और परिस्थिति को सामने रख देती है। हर घटना पर वह टिप्पणी नहीं करती बल्कि पाठक के विवेक पर छोड़ देती हैं। पाठ के रूप में इन कहानियों से गुजरते हुए ऐसा लगता है जैसे अपने मन के भीतर की खाइयों से ही गुजर रहे हों और कई बार लगता है जैसे भीतर के सत्य को उधेड़ और अनावृत करके रख दिया हो। अपने विरुद्ध कहानी जहां श्याम के भीतर के पुरुष को अनावृत करती है वहीं एक लेखक (लेखिका!) के खत्म होने और कुछ न कह पाने के दर्द को उभारती हैं । अंधे मोड़ से आगे कहानी ‘उसकेÓ सारे बंधन को तोड़ते हुए जीवन को जीने की पहल की अदम्य इच्छा को रखती है। अनावृत्त कौन जहां स्त्री के भीतर के ममत्व क्षेत्र का विस्तार करती है और पति को ही जीवन के सत्य के रूप में न स्वीकार करके रिश्तों की परिभाषा का विस्तार करती है. वहीं गलत होता पंचतंत्र संतान के दायित्व और माता-पिता की भूमिका को रेखांकित करती है. ‘मेरे मन में किसी सौन्दर्य सूत्र ने जन्म नहीं लिया. मेरा अव्यक्त क्षोभ दूसरों के कन्धों पर सर पीटता रहा और कभी समझ नहीं पाया कि रचना केवल जीवन के हाथों होती है जीवन से बचकर नहीं….Ó
दलित रचनाधर्मिता भी कहानियों के माध्यम से स्व-अनुभूति की राह तलाश रही है आग ही जानती है जलने का दर्द। यह वाक्य ही दलित रचनाकारों के भीतर के आक्रोश को व्यक्त करने में समर्थ है अजय नावरिया, मोहनदास नैमिशराय, ओम प्रकाश वाल्मीकि जैसे कहानीकार इस पीड़ा को व्यक्त कर रहे हैं। अजय नावरिया लिखित एक कहानी की है न्याय- कथा जो जातिगत ढांचे पर बहस करती है इस कहानी का नायक रविदास जो एक दलित है कहता है जब तक हमारी पहचान नहीं खुलती तब तक ही हम योग्य, स्वच्छ और स्वीकार्य होते हैंÓ व्यवस्था के क्रूर चेहरे को अनावृत करती यह कहानियाँ अपने होने की लड़ाई लड़ रही हैं अस्मिता का यह बोध कहीं कहीं अत्यंत व्यंग्यात्मक हो उठा है पर जातिगत पीड़ा से गुजरकर लिखी यह कहानियाँ आत्म अभिव्यक्ति का मार्ग तलाश रही हैं जिसका आरंभिक रूप निजता की पहचान का संघर्ष और समानता के अधिकार के लिए संघर्ष ही हो सकता है ।
एक अन्य रचनाकार स्वदेश दीपक का जिक्र किए बिना यह लेख पूरा नहीं हो सकता। उनकी कहानियाँ किसी एक पेड़ का नाम लो, बाल भगवान, रफूजी, क्योंकि हवा पढ़ नहीं सकती, महामारी, किसी अप्रिय घटना का समाचार नहीं जैसी कहानियाँ व्यवस्था के विरोध की कहानियाँ मात्र न होकर आंतरिक अवरोध और अंतर-बहस का माध्यम बन कर आती हैं। स्वयं स्वदेश ने एक साक्षात्कार के दौरान मुझसे कहा था कि उनकी कहानियाँ पढ़कर पीजीआई के डॉक्टर ने कहा था कि यह आदमी या तो जीनियस हो सकता है या पागल! देश विदेश में जीनियस क्षमता को पागल कहकर ही तो खारिज किया जाता रहा है और यही स्वदेश के साथ हुआ पर उनकी कहानियाँ बेचैनी की कहानियाँ हैं जो होंट करती हैं परेशान करती हैं और कुछ न बदल पाने की स्थिति में होने पर कायर होने का अहसास भी दिलाती हैं । उनकी कहानियों की आत्मा और पाठक की आत्मा की साझेदारी होना निश्चित है और ऐसे में ये कहानियाँ हम-कदम हो उठती हैं मात्र एक उदाहरण देकर अपनी बात समाप्त करूँगी —किसी एक पेड़ का नाम लो कहानी, यूं तो माया बख्शी और स्क्वार्डन लीडर अजय के मध्य प्रेम और अंत में अजय को फांसी देने के मध्य की स्थितियों को बयाँ करती है पर कथा कहने का अलग अंदाज एक आत्मा के तप्त सोखे को दूसरी आत्मा के संकेत चिह्न पहुंचा देता है।
न पेड़ों की टहनियाँ हिलती हुई, न हवा उन्हें छेड़ती हुई आकाश ने पेड़ों की ऊपरवाली टहनियाँ को छुआ-कि-छुआ। सब कुछ स्तब्धत-शिथिल इस दो एकड़ में बनी कोठी में अजय को कहाँ तलाशे? एक हिस्से में सब्जियाँ, दूसरे हिस्से में फलों के पेड़। कोठी की आयु साठ वर्ष से ऊपर, कई भीमकाय पेड़ भी इतने ही बूढ़े। दिसंबर की हवा चले-न-चले। होती तो निर्दय है न। घात लगा कर बैठी हवा। उसने साँस रोकी। आत्मा से संकेत मिले। लेकिन मस्तिष्क आत्म संकेतों को ग्रहण नहीं कर रहा। दोनों में तादात्मय नहीं हुआ न।
कहानी कला का विकास अनेक रूपों और शैलियों में लगातार होता रहा है और आज भी हो रहा है । नए-नए रचनाकार इस क्षेत्र में सक्रिय हैं और सभी अपने अपने अंदाज में युग बोध से लेकर आत्म बोध तक कहानियों की दुनिया का विस्तार कर रहे हैं। यह रचनात्मकता की अपनी दुनिया है जिसमें आखिरी कही जा चुकी कहानी को भी फिर एक नए रचनात्मक अंदाज में कहा जा सकता है …सदी के अंत तक कहानियाँ रची जाती रहेंगी और इनका विशद संसार यह भरोसा मजबूत करता रहेगा कि कहानी अपने यथार्थ और कल्पना के मिलन बिन्दुओं से एक नया संसार बनाती रहेगी जिसमें हम सब का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा होगा ।
अगले अंक में एक नई विधा पर।