हिंसा का बखान क्या नहीं है हमारे महाकाव्यों में?

भारतीय राजनीतिक दलों के नेताओं के लिए सच बोलना अक्सर कठिन होता है। कारण जो भी आप मानना चाहें, मानें मगर माक्र्सवादी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी ने भोपाल में एक सेमिनार में कड़वा सच बोल दिया।

हालांकि यह इतना कड़वा सच भी नहीं है। मगर हिंदुत्ववादियों के राजनीतिक असर ने इस सीधे-सादे सच को भी कड़वा बना दिया है। येचुरी ने कहा, यह कहना गलत है कि हिंदू कभी हिंसक(भाजपा के शब्दों में आतंकवादी) नहीं हो सकते। इसके तमाम उदाहरण हमारे महाकाव्यों और इतिहास में भरे पड़े हैं कि हिंदू शासक हिंसा के विरूद्ध नहीं थे।

 इतिहास और महाकाव्यों में न भी जाएं तो भी हमारे प्रधानमंत्री, भाजपा अध्यक्ष, मंत्री गिरिराज सिंह जैसे हिंदुओं के हज़ारों ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने हिंसात्मक भाषा में हुंकार लगाई और बात की है। यह बात अलग है कि हिंसा और नफरत से भरी यह भाषा कोई हिंदुत्व वादी बोले तो हम इसे स्वाभाविक मान लेते हें।

असम के एक भाजपाई विधायक ने तो कहा कि मुसलमान उस गाय की तरह है जो दूध नहीं देती। ऐसी गाय को चारा खिलाने से क्या फायदा। यह भाषा उस पार्टी के रक्षक की है जो उस पार्टी का विधायक है जो कथित तौर पर गौरक्षा का दावा करती है। क्या यह अहिंसक भाषा है। क्या यह भाषा सांप्रदायिक हिंसा की राह दिखाने वाली भाषा नहीं है।? क्या यह संविधान और कानून के खिलाफ नहीं है? मध्यप्रदेश के धार संसदीय क्षेत्र के भाजपा प्रत्याशी ने कहा, मुझे कलम से भी मदद करनी आती है और बंदूक की नोक से भी। क्या यह गांधीवादी भाषा है?

इन पांच सालों में हिंदुत्वादी हिंसा के असंख्य उदाहरण है। झूठ तो मानो उनकी दैनिक खुराक है। जब ये कहते हैं कि हिदू आतंकवादी नहीं हो सकता या हिंसक नहंी हो सकता तब ये यह भी कह रहे होते हैं कि मुसलमान हो सकता है या कि होता ही है। जो लोग पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी जैसे विद्वान को नहीं बख्शते। जो शायर जावेद अख्तर पर निशाना साधते हों। जो चुनाव में अपना उम्मीदवार आतंकवादी होने के आरोप में जेल में बंद और जमानत पर छूटी और साध्वी कही जाने वाली प्रज्ञा ठाकुर को खड़ा करते हों जिनके पास चुनाव में एक ही मुद्दा है मुस्लिम विरोधी बकवास करना। वे किस मुंह से यह कह सकते है, कि हिंदू हिंसक हो नहीं सकता।

हिंसा या अहिंसा का ठेका किसी एक धर्म के ही लोगों ने नहीं ले रखा है। जिस ज़मीन में गांधी जैसा अहिंसक पैदा होता है वह नफरत का मसीहा भी पैदा करने की क्षमता रखती है। यह बात हर राज्य, हर भाषा, हर धर्म के बारे में सही है।

सभी धर्मो के साधारण लोग आमतौर पर सहज स्वाभाविक जीवन ही जीते हैं। शोषित और उत्पीडि़त होते हैं। इसका अपवाद कोई नहीं है। जो समाज और अर्थव्यवस्था की जितनी निचली सीढ़ी पर है वह उतना ही ज़्यादा सहता है और वक्त आने पर हक के लिए लड़ता भी है।

विष्णुनागर

पूर्व संपादक ‘शुक्रवार’