भारत में अंग्रेजी शासन के दौरान सरकार हमेशा यह सावधानी बरतती थी कि सामाजिक मामलों में वह दखल न दे. मुसलमानों के साथ-साथ हिंदुओं को भी अपने सामाजिक मसलों में धार्मिक नियमों के आधार पर फैसले लेने की आजादी थी. हालांकि किसी धार्मिक समुदाय के एक बड़े तबके द्वारा मांग करने पर सरकार इस दिशा में पहल जरूर करती थी. इस आधार पर 1941 में सरकार ने हिंदुओं में विधवा उत्तराधिकार कानून की समीक्षा के लिए राव समिति का गठन किया था और इसी समिति ने पहली बार हिंदू कोड बिल का मसौदा तैयार किया था.
नेहरू के नेतृत्व में जब भारत में पहली नामित सरकार बनी तब उन्होंने कानून मंत्री बीआर अंबेडकर को दोबारा हिंदू कोड बिल बनाने की जिम्मेदारी सौंपी. अंबेडकर ने राव समिति द्वारा बनाए गए बिल में कई महत्वपूर्ण संशोधन किए और 1948 में इसे संसद में चर्चा के लिए पेश कर दिया. इन नए संशोधित हिंदू कोड बिल में तलाक और विधवा महिलाओं व लड़कियों के लिए संपत्ति का अधिकार जैसे विषयों पर सुधारवादी कदम उठाए गए थे.
रूढ़िवादी हिंदू पहले से इस बिल के विरोध में थे. इसलिए जब यह बिल संसद में चर्चा के लिए आया तब हिंदूवादी संगठनों ने इसके खिलाफ देश भर में प्रदर्शन शुरू कर दिए. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अकेले दिल्ली में दर्जनों विरोध रैलियां आयोजित कीं. स्वामी करपात्री इस पूरे विरोध आंदोलन के सबसे बड़े नेता थे. वे जगह-जगह रैलियों में धर्मशास्त्रों का हवाला देते हुए अंबेडकर को हिंदू कोड बिल पर सार्वजनिक बहस के लिए आमंत्रित करते थे. इस व्यापक विरोध का असर यह हुआ कि हिंदू कोड बिल संसद से पारित नहीं हो पाया. और इस घटना से आहत अंबेडकर ने आखिरकार नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया.
हालांकि जब 1951-52 में आम चुनाव के बाद नई सरकार का गठन हुआ तब एक बार फिर हिंदू कोड बिल संसद से पारित कराने की कोशिशें हुईं और 1956 तक चार अलग-अलग विधेयकों को पारित कर इसे स्वीकार कर लिया गया.
-पवन वर्मा