उदय प्रकाश हिंदी के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले लेखकों में से हैं. अपने रचनात्मक जीवन तथा मौजूदा सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों पर पूजा सिंह से उनकी बातचीत.
आपके लेखन या कहें रचनात्मक जीवन की शुरुआत कब हुई?
मैं काफी लंबे समय से लिख रहा हूं. जब मैं करीब 6-7 साल का था तभी से लिख रहा हूं. उस समय कविता और पेंटिंग का शौकीन था. एक पुराना कैमरा था, उससे फोटोग्राफी करता था और खूब घूमता था. कविताएं मैंने छंदों और गीतों में लिखीं. पढ़ता खूब था क्योंकि वहीं मेरी दुनिया थी. किताबों और चित्रों की दुनिया में रहता था. मेरे पिता जी बीमार थे और कोमा में जाने से पहले उन्होंने मेरी मां को लिखा था कि वो सबसे अधिक मुझे लेकर परेशान रहते हैं कि इसका क्या होगा. एक लेखक का दुनिया को देखने का अलग बोध होता है. वो अपनी क्रिएटिविटी के जरिए दुनिया को देख और समझ पाता है.
हिंदी साहित्य के सांस्थानिक स्वरूप से आपका विरोध जगजाहिर है. यह विरोध क्यों है? इसका आपको क्या खामियाजा उठाना पड़ा?
विरोध इसलिए है क्योंकि मैंने वहां की स्थापित मान्यताओं को चुनौती दी है. मैंने जाति व्यवस्था को कठघरे में खड़ा किया. मैं हिंदी समाज की आंखों का तारा कभी नहीं रहा. मुझे हाशिये से भी धकेलने की हर संभव कोशिश की गई. अगर आप पीली छतरी वाली लड़की कहानी पढ़ें तो आप पाएंगे कि आज हमारे देश में कोई ऐसी जाति नहीं है जो यह दावा कर सके कि वह शुद्ध है. मेरी उस रचना को लेकर इतना विष वमन किया गया कि मैं आपको बता नहीं सकता. हिंदी में इन लोगों का पूरा गिरोह है. वे अगर ठान लें तो आपको कहीं काम नहीं करने देंगे. आप अगर पहले से कहीं काम कर रहे हैं तो आपको निकलवा दिया जाएगा. मुझे जेएनयू में करीब 25 साल की उम्र में दाखिला मिला. पीली छतरी वाली लड़की किसी दूसरे की कहानी नहीं है. उसमें मेरे खुद के अहसास हैं. लेकिन मुझे मेरी ही भाषा से लगातार निष्कासित करने की कोशिश की गई. मुझे निरंतर अपमानित किया गया. लेकिन मैं लगातार उनके खिलाफ मुखर रहा. आज भी मैं अपनी प्रिय भाषा को उनकी जकड़बंदी से मुक्त कराने में लगा हूं.
इन सब बातों के बावजूद आप हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखकों में से हैं.
यह तो आम पाठकों का स्नेह है जिसके भरोसे मैं खड़ा हूं. उस वक्त की एक बात आपको बताता हूं. उस कहानी को लेकर मुझे जो समस्या हुई है उसके बारे में केवल मैं ही महसूस कर सकता हूं. कुछ साल पहले की बात है. मुझे जेएनयू से नौकरी ऑफर हुई लेकिन ऐन वक्त पर अड़ंगा लगा दिया गया कि यह नौकरी तो एससी एसटी के लिए है. अगर मैं इसका विरोध करता तो मुझे एंटी एससी एसटी मान लिया जाता. इसके बाद डीयू में मेरी नौकरी की बात चली तो एचआरडी मिनिस्टर तक को साधा गया ताकि मुझे नौकरी न मिल सके. तो यह नेक्सस इतना करप्ट हो चुका है कि क्या कहूं? इसी के बाद मैंने मोहनदास लिखी.
एक लेखक या कहें एक रचनाकार की संवेदनशीलता अन्य लोगों से किस तरह अलग होती है?
एक लेखक का दुनिया को देखने का अलग बोध होता है. वो अपनी क्रिएटिविटी के जरिए दुनिया को देख और समझ पाता है. यही वजह है कि वह स्वभाव से क्रांतिकारी होता है. वह बेहद संवेदनशील होता है और एक तितली की मौत से भी विचलित हो सकता है. इतना ही नहीं, उस मौत के पीछे वह न केवल पर्यावरण संबंधी खामियों को बल्कि पूरी व्यवस्था की असफलता को पहचान सकता है. यह पॉलिटीशियन नहीं समझेगा. आपको याद होगा किसी कवि ने कहा है कि जो सरकारें बाघ को बचाने का दावा करती हैं वे झूठ बोलती हैं क्योंकि वे घास के बारे में चुप हैं. क्योंकि घास बचेगी तभी बाघ बचेगा. हम सबका जीवन बहुत छोटी-छोटी चीजों से बना है…
आप पर आरोप है कि आप अपने आस-पास के लोगों पर रचनाएं लिखते हैं. कहानी राम सजीवन की प्रेम कथा के बारे में कहा जाता है कि वह मशहूर कवि गोरख पांडेय पर केंद्रित है.
मुझे सच बोलने के लिए तमाम यातनाओं से गुजरना पड़ा है. उनमें से एक हैं ये आरोप. मोहनदास से लेकर पीली छतरी वाली लड़की और राम सजीवन की प्रेम कथा तक पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं, लेकिन इनमें से ज्यादातर मेरे निजी अनुभवों पर हैं. गोरख मेरे बहुत अच्छे मित्र थे. यह कहानी पढ़कर हम दोनों खूब हंसा करते थे. वैसे भी राम सजीवन की प्रेम कथा को जो लोग किसी का मजाक उड़ाने वाली कहानी मानते हैं उनकी समझ में समस्या है.
गोरखपुर जाकर योगी आदित्यनाथ के हाथों पुरस्कार लेने का विवाद भी जब तब प्रेत की तरह उठ खड़ा होता है.
यह अनायास नहीं है कि मैं यहां पुरस्कार लेता हूं और वहां हिंदी साहित्य जगत के खेमेबाज मुझ पर टूट पड़ते हैं. मैं एक बार फिर कहता हूं. मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जिस पर मुझे सफाई देनी पड़े. वह एक नितांत पारिवारिक समारोह था. कुंवर नरेंद्र प्रताप सिंह मेरे फुफेरे भाई थे और उनकी मौत के बाद पहली बरसी पर पहला नरेंद्र स्मृति सम्मान मुझे दिया गया और यह उनके परिवार की इच्छा थी. हां, मेरी गलती यह जरूर रही कि मैं एक नितांत पारिवारिक आयोजन के व्यावहारिक राजनीतिक पक्ष के बारे में नहीं सोच सका.
‘आप जिन्हें हिंदी के बड़े आलोचक कहते हैं वे छोटी-छोटी चीजों पर बिक जाने वाले लोग हैं. वे किसी को भी प्रेमचंद, मुक्तिबोध या टैगोर कह सकते हैं’
आप देश के आदिवासी बहुल इलाके से आते हैं. इस वक्त आपकी नियुक्ति भी इंदिरा गांधी जनजातीय विश्वविद्यालय, शहडोल में है. तो प्राकृतिक संसाधनों को लेकर आदिवासियों के साथ ज्यादती का जो सिलसिला है उस पर एक लेखक के रूप में आपका क्या नजरिया है?
जो लोग आज आदिवासी इलाकों में बॉक्साइट या कोयले के लिए अतिक्रमण कर रहे हैं वे यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि वे बॉक्साइट तो निकाल लेंगे लेकिन उसकी कीमत कितनी ज्यादा होगी. आप सोच रहे हैं कि केवल आदिवासियों का ही विस्थापन हो रहा है तो ऐसा नहीं है. विस्थापन और भी कई चीजों का हो रहा है जिसे आम तौर पर लोग देख नहीं पाते हैं. जब मैं जाता हूं तो रास्ते में बाण सागर परियोजना पड़ती है, जिसके लिए सोन नदी को पहाड़ों के बीच में रोक दिया गया है. इसकी वजह से बहुत-से जानवर गए, वनस्पतियां गईं. लेकिन जो विस्थापन हुआ वह वहां के लोगों के साथ-साथ बंदरों का भी हुआ. आज अगर आप रीवा से शहडोल के लिए निकलें तो रास्ते में आप पाएंगे कि लंगूर अपने पूरे कुनबे के साथ सड़क पर बैठे हैं. आप हॉर्न दीजिए, वे नहीं भागते हैं. ऐसा लगता है उन्होंने ड्रग ले लिया है. रोज सड़क पर कई बंदर आपको मरे हुए मिलेंगे. यह एक किस्म की आत्महत्या है जो विस्थापित होने के दुख से उपजी है. इस पर किसी का ध्यान नहीं है. जंगल तो डूब गया वे कहां जाएंगे. वे गांवों में आते हैं और दलहन और फल-सब्जियों को खाते हैं. तो पैटर्न इतना चेंज हुआ है कि अब वहां कोई दलहन नहीं उगाता. वह नकदी फसल थी लेकिन बंदरों के कारण बंद हो गई. अब फलदार पेड़ों की रक्षा नहीं हो पा रही. लोगों ने अब बंदरों की वजह से खपड़े की छत का इस्तेमाल बंद कर दिया क्योंकि वे तोड़ देते थे. अब उनकी वजह से टिन या एस्बेस्टस की छत इस्तेमाल हो रही है. तो आप देखिए कि महज एक बांध बनाने से क्या-क्या बदला? आपका खान-पान बदल गया क्योंकि आपने दलहन व फल उगाने बंद कर दिए. कुंभकार का पेशा खत्म हो गया क्योंकि आपने खपरैल व मिट्टी के बर्तन इस्तेमाल करने बंद कर दिए. आप आंदोलन करते हैं केवल आदिवासियों के लिए. वह ठीक है, अपनी जगह जरूरी है लेकिन इस पर किसी का ध्यान नहीं है कि एक पूरी जीवनशैली खत्म हो रही है.
आपके लेखकीय जीवन की बड़ी चुनौतियां कौन-सी रहीं?
मेरा तो पूरा जीवन ही चुनौतियों से भरा रहा. मैं तो एक आम मेहनतकश मजदूर हूं अपनी भाषा का. आप देखिए कि हिंदी पर किसका कब्जा है. हम जैसे लोग कहीं नहीं हैं. 90 के बाद सबसे ज्यादा शोषण भाषा का हुआ है. पूरा कारोबार भाषा का है. मीडिया भाषा का दोहन कर रहा है, विज्ञापन में, इंटरनेट पर हर जगह भाषा का ही खेल है. राजनीति से लेकर पॉप कल्चर तक हर जगह भाषा का इस्तेमाल है, लेकिन लेखक की आवाज इसमें गायब है. जो बात अरविंद केजरीवाल या शरद पवार बोलेंगे, उसको तो पूरा कवरेज मिलेगा. एक लेखक अपने दुख बयान करेगा या एक तितली के मरने की बात करेगा तो उसे कौन सुनेगा. तो भाषा एक कमोडिटी में बदल गई है.
आपने अभी कहा कि मीडिया भाषा का शोषण कर रहा है. इस बात को थोड़ा स्पष्ट करेंगे?
देखिए, एक कविता है जिसका अनुवाद करें तो वह कहती है कि शब्दों को बबलगम की तरह चबाया जा रहा है और गुब्बारे की तरह फुलाया जा रहा है. खूबसूरत एंकर शब्दों को चबाती हैं और राजनेता उनसे दांत मांजते हैं और कुल्ला करते हैं. मास मीडिया झूठ का कारोबार है. वह सच दिखाने नहीं सच को छिपाने का काम करता है. आप सुधीर चौधरी का मामला देखिए या नीरा राडिया का. यह सारा काम भाषा के जरिए ही तो हो रहा है. मीडिया के बारे में किसी को कोई गलतफहमी नहीं है. रोम्यां रोलां कहते हैं कि अथॉरिटी शब्द ऑथर से ही बना है. जो भाषा पर अधिकार रखता था, वह ऑथर था. क्राइस्ट, प्रोफेट मोहम्मद, वेदव्यास ये ऐसे ही लोग थे. लेकिन जब प्रिंट आया तो भाषा पर अचानक बहुतों का कब्जा हो गया. वकील, नेता, डॉक्टर सबका. यही वह वक्त था जब ऑथर की जगह राइटर ने ले ली. ऑथर व राइटर में फर्क है. ऑथर बोलता था और राइटर लिखता था. यह मुश्किल काम था, इसीलिए ऑथर का इतना अधिक सम्मान था. आप अपने यहां ही देखिए कि गांधी और टैगोर को एक ही धरातल पर रखा जाता था. आज क्या स्थिति है? लेखक एक पुलिसवाले के पीछे चापलूस की तरह दौड़ रहा है. आप जिन्हें हिंदी के बड़े आलोचक कहते हैं वे छोटी-छोटी चीजों पर बिक जाने वाले लोग हैं. वे किसी को भी प्रेमचंद, मुक्तिबोध या टैगोर कह सकते हैं. लेखक की अथॉरिटी नहीं रही. आज अगर हम ये सोचें कि सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह आकर कहें कि उदय प्रकाश आप कैसे हैं, आपकी तबीयत तो खराब नहीं तो यह नहीं होने वाला. आज स्थिति यह है कि आप कलेक्टर से मिलने जाएंगे तो आपको चपरासी
रोक लेगा.
पिछले दो दशक में सबसे बड़ा बदलाव आपने क्या महसूस किया है?
आर्थिक असमानता को छोड़ दें तो मनुष्य की मनुष्य से भावनात्मक दूरी बहुत बड़ी है. मेरी कहानी तिरिछ अगर आपने पढ़ी हो तो वह यही कहती है. यह बात सन 82 की है. मैं उस वक्त अशोक विहार से आईटीओ आता था- टाइम्स ऑफ इंडिया. मैं गौर से देख रहा था विकास बहुत तेजी पर था. बड़ी-बड़ी इमारतें बन रही थीं और दिल्ली का नक्शा बदल रहा था. मैं एक मोपेड से आता था. मैंने देखा कि पहाड़गंज के आस-पास ऐसे पोस्टर लगने लगे कि किसी अपरिचित से बात न करें. अपने सामान की खुद देखभाल करें. तो संदेह संदेह संदेह. हर किसी पर संदेह करो. इसकी शुरुआत वहीं से हुई. लोगों ने एक-दूसरे की परवाह करनी बंद कर दी. आज देखिए उस राह पर हम कितना आगे निकल आए हैं.