लोकसभा चुनावों में मिली पराजय से पस्त होकर पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के इस्तीफे के प्रस्ताव को मशहूर पत्रकार प्रसन्न राजन के टिप्पणी के संदर्भ में देखा जाए तो यह कहना प्रासंगिक होगा कि,’वैचारिक भ्रम में खोए हुए नकारवाद पर उतारू दक्षिण पंथ ने इस बात को सत्य सिद्ध कर दिया है कि,’साहसिक विचारों के अभाव में राजनीतिक संगठन सड़ांध मारने लगता है।’ राज्यों के शीर्ष नेताओं को राहुल गांधी की फटकार उनके आक्रोश को पूरी तरह प्रतिध्वनित करती है कि,’राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ और पूर्व केन्द्रीय मंत्री चिदंबरम ने अपने बेटों को पार्टी के ऊपर रखा। बेटों को टिकट दिलाने और उन्हीं को जिताने में लगे रहे। जबकि दूसरे क्षेत्रों पर ध्यान देने में विफल रहे। विश्लेषक राहुल की नाराजग़ी को यह कहते हुए जायज बताते हैं कि कांग्रेस बुरी तरह हारी जबकि बेहतर प्रदर्शन कर सकती थी। तीनों राज्यों में लोकसभा की 65 सीटें हैं, लेकिन कांग्रेस के खाते में सिर्फ तीन सीटें आई। एक मध्यप्रदेश और दो छत्तीसगढ़ से। राजस्थान में कांग्रेस सभी 25 सीटें हार गई, मुख्यमंत्री गहलोत अपने बेटे वैभव गहलोत को भी नहीं जिता सके? तमिलनाडु की 37 सीटों में चिदंबरम बेटे कार्तिक सहित केवल आठ सीटें ही जिता पाए। लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि राजनीति में जय-पराजय को आत्ममंथन से समझा जाना चाहिए। क्या राहुल ऐसा कर पाए। सवाल है कि राहुल क्या जनता के साथ भावनात्मक संवाद स्थापित कर पाए? संगठन बुरी तरह लडख़ड़ा रहा था, क्या उसे देख पाए? नए वोटों को साधने में पहल करनी चाहिए थी, राहुल नहीं कर पाए? चुनावों में बूथ प्रबंधन तो सिरे से गायब था। जिन नेताओं पर संगठन को सक्रिय करने की जिम्मेदारी थी, वे कहां थे? बेशक कांग्रेस कार्य समिति के जबरदस्त दबाव में राहुल गांधी ने इस्तीफा वापस ले लिया है लेकिन कई सवाल तो अब भी मुंह बाए खड़े है कि, जिन राज्यों में कांग्रेस और भाजपा में सीधी टक्कर रही, वहां कांग्रेस 20 प्रतिशत से ज़्यादा वोटो से पीछे रही। उनके कुल वोट 35 प्रतिशत से कम रहे? विश्लेषकों की मानें तो इसका सीधा अर्थ है कि, कांग्रेस वामदलों और क्षेत्रीय दलों के खिलाफ बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। लेकिन भाजपा के खिलाफ नहीं। बेशक राहुल गांधी ने गहलोत समेत शीर्ष नेताओं पर ऊंगली उठाई। लेकिन सवाल तो उठता है कि कांग्रेस की यह हार कितनी बड़ी है? कांग्रेस ने थोड़ा ही सही, कहां बेहतर प्रदर्शन किया? क्यों ओर किस कीमत पर?
विश्लेषकों का कहना है कि ‘क्या अपने बेटों को राजनीति में उतारने का काम क्या सिर्फ कांग्रेस के नेताओं ने ही किया है? भाजपा में तो इसके ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे। वसुंधरा राजे ने क्या अपने बेटे दुष्यंत को राजनीति में नहीं उतारा? क्या उनकी चुनावी कमान नहीं संभाली? राजनाथ सिंह के अलावा अन्य दलों राजद या रालोद के संयोजक रामविलास पासवान का नाम भी लिया जा सकता है। पासवान के बेटे चिराग पासवान भी चुनाव जीते हैं। सवाल जीत-हार का भी नहीं है। लेकिन चुनावी मंजर को समझे ंतो ‘यह सिर्फ मोदी के लिए जबरदस्त रेफ्रेंडम था……मतलब पौराणिक तर्ज पर कृष्ण उवाच की तरह कि,’मैं ही विश्व…। मोदी नही ंतो कोई नहीं?
उधर लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार को लेकर कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे मंथन और इस्तीफों के दौर में रविवार 27 मई को कृषि मंत्री लालचंद कटारिया का इस्तीफा भी सामने आया है। लेकिन उन्होंने इस्तीफा क्यों दिया? यह बात अभी समझ से परे है?
अलबत्ता राजस्थान में सरकार होने के बावजूद इतनी बड़ी हार न तो कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का पच रही है और न ही कांग्रेस आलाकमान को? इसके लिए न तो कोई नेता आगे बढ़कर जिम्मेदारी लेता नजऱ आ रहा है ओर न ही आलाकमान कोई कार्रवाई करता लग रहा है। फिलहाल तो हर बात को लेकर संशय का कुहासा छाया हुआ है। बहरहाल इस गंभीर मुद्दे पर गहन मंथन होना तय है। इस बैठक में कांग्रेस के प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे, के अलावा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट समेत अन्य नेताओं को बुलाया गया है। इस बैठक में क्या होगा? अंदरूनी सूत्रों की बात करे ंतो इस हार का ठीकरा संगठन के सिर ही फूटेगा।