हौसला जगाने वाले जुबानी कौशल से सजे-संवरे संवाद अगर कामयाबी की गारंटी है तो यकीन मानिए, आने वालीे विधानसभा के चुनावी नतीजे भाजपा की सेहरा बंदी करने वाले होंगे। कहने की जरूरत नहीं कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह इस अंदाजे बयां में कितने माहिर है? इन दिनों राजस्थान के धुआंधार दौरे कर रहे अमित शाह की जुबानी कौशल की बानगी तो देखते ही बनती है। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे समेत तमाम भाजपाइयों के लिए तो इतराने वाली होती है, जब शाह कहते हैं, भाजपा की प्रदेश सरकार राजस्थान में ‘अंगद का पांव’ है। इतने उर्जावान अल्फाज न सिर्फ सुरीले संगीत के तराने की तरह लगते हैं बल्कि भाजपा के नेता और कार्यकर्ताओं को काल्पनिक जीत के हिंडोले पर झुलाते नजर आते हैं कि,’बारात सज चुकी है और विजय श्री भाजपा का वरण करने के लिए छटपटा रही है। लेकिन शाह के इस भव्य कूटनीतिक चुनाव अभियान में क्या अतीत को ओझल कर दिया जाना चाहिए? जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अजमेर में हुए चिंतन शिविर में राजस्थान के प्रभारी वी. सतीश को मिले फीडबैक में वसुंधरा राजे की उपलब्धियों के तथाकथित मिथक टूटते नजर आए थे। सूत्रों की मानें तो चिंतन शिविर में संघ के सह सरकार्यवाह भैयाजी जोशी ने बड़ी बेबाकी से कहा था कि,’सरकार लक्ष्य के अनुरूप प्रदर्शन करने में विफल रही है। अगर वसुंधरा राजे के नेतृत्व में प्रदेश विकास की राह पर चल रहा था और राजा और प्रजा के बीच सब कुछ ठीक-ठाक था तो, नेतृत्व से लेकर संगठन के मुखिया तक को बदलने की जरूरत क्यों आन पड़ी थी? क्यों भाजपा आलाकमान और वसुंधरा राजे एक दूसरे के सामने टकराव की मुद्रा में डटे हुए थे? मनुहार की हजार कोशिशों के बावजूद राजे ने घुटने नहीं टेके और यह काम पार्टी आलाकमान को ही करना पड़ा। राजे भाजपा की पहली क्षत्रप साबित हुई जिन्होंने मोदी और शाह की जुगल जोड़ी के आगे आत्मसमर्पण नहीं किया। राजे का अपनी मनमानी चलाने का यह अनूठा उपक्रम था तो पार्टी आलाकमान को राजहठ की आंच में झुलसाने का भी अनूठा उपक्रम था। इससे बढ़कर अनूठा उपक्रम था पार्टी आलाकमान का जो क्षत्रप द्वारा अपमानित किए जाने के बावजूद उसके स्तुतिगान में जुटा था?
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं,’ताज्जुब है कि प्रदेश की भाजपा सरकार की तर्जुमानी ‘अंगदी पांव’ से करने वाले अमित शाह अंगदी पांव की मिथक ही नहीं बांच पाए-आखिर क्यों चुनावी सफलता स्वमूल्यांकन से तय करने पर तुले हुए हैं? विश्लेषक कहते हैं कि,’फतह की फसल भरम के बीजों से नहीं बोई जाती और न ही पहेलियां बुझाने से? इस मुकाम पर सवालों की शृंखला बढ़ती चली जाती है। रेगिस्तानी इलाके बाड़मेर से जैसलमेर तक अच्छी पकड़ रखने वाले भाजपा विधायक मानवेन्द्र सिंह अपने पिता जसवंत सिंह के अपमान से इस कदर उखड़ गए कि,’कांग्रेस का दामन थाम चुके हैं और इन दिनों ‘स्वाभिमान यात्रा’ निकाल कर राजे की ‘गौरव यात्रा’ को अंगूठा दिखा रहे हैं। विश्लेषक कहते हैं, कि ‘प्रदेश भाजपा सरकार के तथाकथित अंगदी पांव को तो कर्मचारियों की हड़ताल ही तोडऩे को काफी है। असंतोष तो इस कदर भड़का हुआ है कि रोड़वेज कर्मचारियों ने गाडिय़ों का आवागमन ही ठप्प कर दिया है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट भी वसुंधरा राजे की गौरव यात्रा को लेकर ‘गौरव’ की सार्थकता पर सवालों की झड़ी लगाए हुए है। अभी एक ताजा सवाल में पायलट का कहना था, ‘नीति आयोग द्वारा घोषित पिछड़े जिलों की अनदेखी कर अपने चुनाव क्षेत्र झालावाड़ के विकास के झूठे दावे, क्या गौरव का अहसास कराते हैं?
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भले ही राजस्थान में पार्टी को ‘अंगदी पांव’ की तरह स्थापित करने में जुटे हैं, लेकिन बेतरतीब बंदोबस्त से उनकी पेशानी की सलवटों में लगातार इजाफा हो रहा है। इस मुद्दे पर अगर प्रदेश अध्यक्ष मदनलाल सैनी की बात मान ली जाए कि,’शाह की नाराज़गी जैसी कोई बात नहीं है तो जिस वक्त शाह जयपुर में प्रदेश कार्य समिति की बैठक में विस्तारकों की बैठक लेे रहे थे तो बीच में ही छोड़कर क्यों चले गए? क्यों उन्होंने नाराज़गी जताई कि विस्तारकों को जो काम दिया जाना चाहिए था, वो नहीं दिया गया?
जयपुर के बिड़ला सभागार में कार्यक्रम के दौरान अमित शाह क्यों भड़के कि,’सरकार के मंत्री दूसरी पंक्ति में जबकि संगठन के नेता पहली कतार में बैठे हुए थे? शाह ने क्यों आयोजकों को जमकर लताड़ पिलाई कि,’चुनाव मंत्री लड़ेंगे या संगठन के नेता? नागौर में भाजपा के किसान सम्मेलन में तो 20 फीसदी किसान भी क्यों नहीं जुटे? इसके पीछे सांसदों और विधायकों का विवाद था, लेकिन आयोजकों ने इस बात को छिपाए रखा? जोधपुर का कार्यक्रम तो बुरी तरह फ्लाप रहा, जहां करीब पांच हजार खाली कुर्सियां शाह का मुंह चिढ़ा रही थी? विश्लेषक कहते हैं कि, ‘ओम माथुर को चुनावों से अलग रखना भाजपा को बहुत भारी पड़ा। अब समझ आने के बाद अमित शाह अपने कार्यक्रमों में ओम माथुर को साथ रखने लगे है, लेकिन माथुर के मन की खटास तो नहीं मिट पाएगी?
शेखावाटी संभाग तीन जिलों को लेकर बना है- सीकर, झूंझनू और चुरू और इस संभाग में विधानसभा की 21 सीटें है। यहां वोट किसी लहर में नहीं बहते। इन सीटों पर राजनीतिक समीकरणों की बात करें तो चेहरा मुख्य रूप से वोट तय करेगा जबकि काबिलियत और जातीय गणित तो आखिरी पैमाना है। शेखावाटी को तो किसान आंदोलन ने ही बुरी तरह खदबदा दिया था। यहां बड़े मुद्दों में मेडिकल कॉलेज और स्मृति वन का विकास मुख्य है। जयपुर भाजपा का बड़ा गढ़ है, इसे भेद पाना कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन फिलहाल भाजपा विरोध के अंधड़ में फंसी हुई है, लिहाजा अगर चेहरों में बदलाव किया जाए तो थोड़ा सुकून मिल सकता है। कांग्रेस का जहाज जयपुर में गुटबाजी के भंवर में फंसा हुआ है, देखना होगा कि कांग्रेस आलाकमान कैसे इस कांटे से निजात पा सकती है?
राजस्थान में धर्म से ज्यादा जातिगत वोटों के ध्रुवीकरण की राजनीति होती रही है। राज्य में 272 जातियां है, लेकिन राजे की सियासत हर चुनाव में बड़ी जातियों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। राजस्थान की राजनीति में एक मिथक ज्यादा चर्चित है कि,’सरकार उसी की बनी, जिसने आदिवासी बहुल मेवाड़ इलाके में फतह का झंडा गाड़ा। भाजपा सरकार यहां हर मुद्दे पर विफल रही है, लिहाजा आदिवासियों में वसुंधरा सरकार के प्रति गहरी नाराज़गी है। जाहिर है कि इस नाराज़गी का फायदा कांग्रेस की झोली में ही गिरेगा। भाजपा इस बार 180 सीटों का मिशन लेकर चल रही है, लेकिन पूर्वी राजस्थान में तो मौजूदा 17 में से 12 सीटें गंवाने का खतरा साफ नजर आ रहा है। पूर्वी राजस्थान में बसपा पार्टी का खासा असर है और इस बार भी बसपा और कांग्रेस में गठबंधन हो गया है तो कंाग्रेस की तो मौज ही मौज है। भाजपा से अलग होकर नई पार्टी भारत वाहिनी बना चुके घनश्याम तिवारी इस बार निर्णायक भूमिका गढ़ सकते हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि, वे आरक्षण का नया फार्मूला लेकर आए हैं। अलबत्ता उनका रुझान भी कांग्रेस की तरफ ही है। विश्लेषक कहते हैं कि, ‘विकास और वादों से मुकर चुकी वसुंधरा राजे की वापसी सिर्फ हसीन ख्वाब के अलावा कुछ नहीं? उधर संघ से मदद की उम्मीद लगाए वसुंधरा राजे की आस पर उनके मंत्री ही निराशा को आमंत्रित कर रहे हैं। अभी हाल ही में चित्तौड़ प्रांत की गोपनीय बैठक में आरएसएस के पदाधिकारी वसुंधरा के मंत्रियों को यह कहते हुए कोसते नजर आए कि,’वे जब उनकी बातों की अनसुनी करेंगे तो हमसे मदद की उम्मीद क्यों? विश्लेषक कहते हैं कि,’वसुंधरा तो क्या, खुद पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ही वक्त की आवाज नहीं सुन पा रहे।