हरियाणा सरकार के शौक़ीन मंत्री!

मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने अपने और मंत्रियों के लिए ख़रीदीं फाच्र्यूनर और मर्सिडीज बैंज जैसी महँगी गाडिय़ाँ

सरकारी ख़र्चों में कटौती के दावे के विपरीत हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर अपनी और मंत्रियों की निजी सुविधाओं में कोई कोताही नहीं करते। उनके क़ाफ़िले में पहले ही लग्जरी गाडिय़ों की कमी नहीं; लेकिन बावजूद इसके चार नयी फाच्र्यूनर और जोड़ लीं। उनका कारवाँ अब पहले से बड़ा हो गया है। मुख्यमंत्री और मंत्रियों के बड़े लाव-लश्कर से आम लोगों को क़ाफ़ी दिक़्क़तें झेलनी पड़ती है।

क़ाफ़िले में वाहनों की संख्या में कमी होनी चाहिए; लेकिन विडम्बना यह कि यह संख्या बढ़ती जा रही है। नयी-से-नयी लग्जरी गाडिय़ों को सरकार अपना वाहन बना रही है। नये लग्जरी वाहनों की ज़रूरत कृत्रिम तौर पर पैदा की जाती है और बाद में ऐसी स्थिति पेश की जाती है कि बिना उनके सरकारी दौरों पर निकलना ही मुश्किल है। फाइलें तैयार होती हैं और बिना किसी देरी के प्रस्ताव को मज़दूरी मिल जाती है।

राज्य सरकार ने इसी वर्ष सात करोड़ रुपये से ज़्यादा के 17 लग्जरी वाहनों की ख़रीद की गयी। इसमें 15 फाच्र्यूनर, एक मर्सीडीज बैंज ई-200 और एक मारुति इरटिगा है। फाच्र्यूनर की क़ीमत 36,30,657 रुपये, मर्सीडीज बैंज ई-200 बैंज की क़ीमत 65,75,000 रुपये है और मारुति इरटिगा 8,60,265 रुपये है। इनमें चार फाच्र्यूनर मुख्यमंत्री मनोहर लाल के क़ाफ़िले में जोड़ी गयी हैं। मर्सीडीज बैंच ई-200 गृहमंत्री अनिल विज के लश्कर में रहेगी। फाच्र्यूनर पाने वालों में विधानसभा उपाध्यक्ष रणबीर गंगवा, मंत्री कँवर पाल, मूलचंद शर्मा रणजीत सिंह, जयप्रकाश दलाल, वनवारी लाल के अलावा राज्यमंत्री ओमप्रकाश यादव, कमलेश ढांढा और अनूप धानक हैं। विपक्ष के नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा को भी फाच्र्यूनर दी गयी है। मुख्यमंत्री के ओएसडी सतीश सैनी को मारुति इरटिगा मिली है।

ख़र्च अगर ज़रूरत के हिसाब से हो, तो उचित होता है; वरना तो उसे फ़िज़ूलख़र्ची ही कहा जाएगा। वाहन ख़रीद से ही सरकार पर अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ता, बल्कि ईंधन और उसके चालक आदि से भी क़ाफ़ी फ़र्क़ पड़ता है। बढ़ती महँगाई से ख़र्च में कटौती सरकार की ठोस नीति होनी चाहिए; लेकिन यह सब काग़ज़ों और भाषणों में नज़र आता है। लोगों की गाढ़ी कमायी का हिस्सा जनप्रतिनिधियों की सुख सुविधाओं के लिए नहीं, बल्कि जनकल्याण पर ख़र्च होना चाहिए। सरकारी नुमाइंदों को तो सरकार सुविधाओं का कम-से-कम इस्तेमाल करके मिसाल पेश करनी चाहिए। लेकिन वे तो ज़्यादा-से-ज़्यादा सरकारी सुख-सुविधाएँ चाहते हैं।

संकट में ख़रीदीं गाडिय़ाँ

इस वर्ष 17 लग्जरी वाहनों की ख़रीद उस दौरान की गयी, जब देश में कोरोना की दूसरी लहर चरम पर थी। दवाइयों और ऑक्सीजन की कमी से लोग मर रहे थे। लगभग चार माह राज्य में लॉकडाउन जैसी स्थिति रही। सामान्य जीवन बुरी तरह से प्रभावित हो रहा था। रात में कफ्र्यू और दिन में लॉकडाउन, लगभग सब कुछ बन्द जैसी हालत में था। ऐसे में लग्जरी वाहनों की ख़रीद प्रक्रिया ज़रा भी प्रभावित नहीं हुई। इसी वर्ष जनवरी से जुलाई तक सात माह के दौरान मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री और विभिन्न मंत्रियों की गाडिय़ाँ ख़ूब दौड़ीं।

मोटा ख़र्च

नारनौल से भाजपा विधायक और राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) ओमप्रकाश यादव के क़ाफ़िले की गाडिय़ों ने तो सात माह (लगभग 210 दिन) में 56,000 किलोमीटर की दूरी नाप दी। अकेले मार्च माह के दौरान इनकी गाडिय़ों ने 21,000 किलोमीटर की दूरी तय कर ली। इस माह औसत तौर पर उनकी गाड़ी प्रतिदिन 700 किलोमीटर चली। सात माह में उनके क़ाफ़िले के वाहनों का ईंधन ख़र्च 11,56,000 से भी ज़्यादा रहा। सात माह के दौरान उनकी सक्रियता मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री या किसी अन्य मंत्री से कहीं ज़्यादा रही। इस दौरान मुख्यमंत्री खट्टर 21,000 से कम और उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला 27,000 किलोमीटर से कुछ ज़्यादा पर ही सिमट गये।

किसान आन्दोलन में जब सरकार के प्रतिनिधियों का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो रहा था। सरकारी परियोजनाओं के उद्घाटन वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से हो रहे थे। निजी कामों से जाते प्रतिनिधियों का घेराव हो रहा था। ऐसे में राज्य सरकार के दो प्रतिनिधियों ने सात माह के दौरान एक लाख किलोमीटर की दूरी पार कर ली। इस दौरान ज़्यादा दूरी तय करने वालों में बिजली मंत्री रणजीत सिंह भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने क़रीब 92,000 किलोमीटर, मंत्री मूलचंद शर्मा ने 88,000 और राज्यमंत्री अनूप धानक ने 80,000 किलोमीटर की दूरी नाप डाली।

विधानसभा उपाध्यक्ष रणबीर गंगवा की तीन गाडिय़ों ने लगभग 1,08000 का सफ़र पूरा कर लिया। इस दौरान उनका ईंधन ख़र्च लगभग 11,00,000 तक पहुँच गया। किलोमीटर और ईंधन ख़र्च में यादव और गंगवा में मुक़ाबला तक़रीबन काँटे का ही रहा; लेकिन अव्वल राज्यमंत्री ही रहे। इसके विपरीत इस अवधि में विधानसभा अध्यक्ष ज्ञानचंद गुप्ता के क़ाफ़िले की गाडिय़ों ने 53,000 किलोमीटर की दूरी नापी। उनका ईंधन ख़र्च साढ़े पाँच लाख रुपये से कुछ ज़्यादा ही रहा। मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री, मंत्रियों और राज्यमंत्रियों को अपने विधानसभा क्षेत्र के अलावा विभिन्न सरकारी कामों से जाना पड़ता है। कोरोना-काल की वजह से जनवरी से जुलाई के दौरान सामान्य हालात न होने की वजह से ईंधन ख़र्च कुछ कम हुआ, जबकि सामान्य समय में यह ख़र्च बहुत ज़्यादा होता है।

सरकारी ख़जाने पर कम-से-कम असर हो, इसके लिए वाहनों के क़ाफ़िले को बड़ा से बड़ा नहीं, बल्कि छोटा से छोटा करने का प्रयास होना चाहिए। इसकी वजह से कोई काम प्रभावित नहीं होता; लेकिन रुतबे के लिए बड़ा लश्कर लेकर चलना शान समझा जाता है। केवल वाहन ही क्यों हर मद में कटौती होनी चाहिए। लेकिन सुख सुविधाओं में कमी रहे, तो फिर सरकार में रहने का फ़ायदा ही क्या हुआ? जितना ज़्यादा सरकारी पैसे का इस्तेमाल हो जाए वही कम है।

धरातल से जुड़े नेता भी सत्ता में आने के बाद सुविधाएँ चाहने लगते हैं। आवास से लेकर पेंशन तक उन्हें भरपूर सुविधाएँ मिलती हैं। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर तो जनसभाओं में दावा करते रहे हैं कि उनके कार्यकाल में बहुत-सी सरकारी परियोजनाएँ तय अवधि से पूरी हुई, जिसमें सरकार को फ़ायदा मिला। अक्सर देरी से पूरी होने वाली परियोजनाओं का ख़र्च निर्माता पर कम सरकार पर ही ज़्यादा पड़ता है। सरकार को फ़ायदा हो, यह तो अच्छी बात है; लेकिन जहाँ तक अपनी सुख सुविधाओं का सवाल है, उसमें किसी तरह का समझौता नहीं किया जा रहा।

समय-समय पर जनप्रतिनिधियों के वेतन और भत्ते बढ़ते रहते हैं। इसका कहीं कोई विरोध नहीं होता। विपक्ष चाहे हर मुद्दे पर राजनीति करे; लेकिन जहाँ निजी लाभ की बात हो, वहाँ हाथ उठाकर सर्वसम्मति से फ़ैसले हो जाते हैं। वेतन, भत्तों और अन्य सुविधाओं का प्रस्ताव रखने वाले प्रतिनिधि और उन्हें बिना बहस के पास करने वाले जनता के नुमाइंदे ही हों, तो देर कहाँ होती है? ‘चट मँगनी, पट ब्याह’ जैसी उक्ति लागू हो जाती है। जल्द-से-जल्द अधिसूचना जारी होकर सुविधाएँ लागू हो जाती हैं।

नयी व्यवस्था के तहत सरकारों में संख्या बल के हिसाब से मंत्रियों की संख्या निश्चित है; लेकिन उनकी सुख सुविधाएँ तय नहीं हैं। यही वजह है कि पहले से ही लग्जरी वाहनों की भरमार होने के बावजूद राज्य सरकार ने करोड़ों रुपये के वाहन ख़रीद डाले। लोगों के कर (टैक्स) आदि से होने वाली सरकारी कमायी को जनप्रतिनिधियों की शान-ओ-शौक़त के लिए लुटाना ठीक क़दम नहीं माना जा सकता।

 

पैसे की बर्बादी

स्वास्थ्य शिक्षा सहयोग संगठन के प्रदेश अध्यक्ष बृजपाल परमार ने सूचना के अधिकार-2005 के तहत जनवरी से जुलाई के दौरान हरियाणा सरकार के नये वाहनों की ख़रीद और मंत्रियों और राज्य मंत्रियों के ईंधन ख़र्च के बारे में जानकारी माँगी थी। सामाजिक कार्यकर्ता परमार शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में वंचित लोगों को लाभान्वित करने की इच्छा रखते हैं। उनका संगठन इस दिशा में क़ाफ़ी सक्रिय भूमिका भी निभा रहा है। उनके मुताबिक, सरकारों को जनप्रतिनिधियों की सुख-सुविधाओं के लिए नहीं, बल्कि समाज के दबे-कुचले और वंचित लोगों के कल्याण पर ध्यान देना चाहिए। योजनाएँ हैं; लेकिन वे अन्तिम व्यक्ति तक पूरी नहीं पहुँच पा रही हैं। निजी स्कूलों में आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चों का कोटा तय है; लेकिन इसका पूरी तरह से पालन नहीं हो पा रहा। शिक्षा और स्वास्थ्य की दिशा में सरकार काम कर रही है। उपलब्धि के आँकड़ें भी बहुत है; लेकिन यह तस्वीर का दूसरा पक्ष है। पहला पक्ष जो उपेक्षित है, उसके लिए धरातल पर काम करने की ज़रूरत है।