वर्ष 2012 निर्भया काण्ड! वर्ष 2019 हैदराबाद की पशु चिकित्सक रेप काण्ड! और इसके बीच हज़ारों युवतियों, औरतों, बच्चियों, प्रौढ़ाओं, बूढ़ी औरतों से सामूहिक बलात्कार, हत्या और जलाकर मार देने की जघन्य घटनाएँ! मन बहुत बेचैन है। कहीं कुछ नहीं हिल रहा, कहीं कुछ नहीं बदल रहा! हर बार कभी एक उदास मन के साथ, तो कभी जोश और क्रोध से भरकर कैंडल मार्च निकाला जाता है। यूँ ही कुछ दिन तक आन्दोलन और गुस्सा सोशल मीडिया से लेकर सडक़ों तक दिखाई देता है। कुछ दिन में फिर सब कुछ वैसा ही चलने लगता है; सब कुछ थम जाता है। क्या होगा इस समाज का, इस सोसायटी का, जो एक तरफ भागती हुई दुनिया की चकाचौंध के साथ चलना चाहती है? लेकिन किसी भी चीज़ के साथ तालमेल बिठाने में पूरी तरह अक्षम हो चुकी है।
निर्भया काण्ड ने मेरे और मेरे जैसे हज़ारों लोगों के दिल और दिमाग को दहला दिया था। स्तब्ध और आक्रोश से भर कैंडल लाइट मार्च में हम सबने भाग लिया। कितनी ही पेटीशन पर हस्ताक्षर किये, हत्यारों के लिए फाँसी की माँग की और फिर इस बहस को भी सुना कि नाबालिग होने पर फाँसी देना कितना उचित होगा या अनुचित? अपराधियों को सुधरने का मौका देना ही चाहिए! निर्भया तो सिर्फ एक नाम है; पर ऐसी ही घटनाओं की जघन्यता पर हम सब बहसों का हिस्सा बनते रहे कि फाँसी की माँग ऐसे जघन्य अपराधों में भी होनी चाहिए या नहीं? प्रक्रिया विचाराधीन रही और मौन आँखें इन्तज़ार करती हुई पथरा गयीं।
कठुआ की मासूम बच्ची को कैसे भूल जाएँ! हम बलात्कार और हत्या आर जितना स्तब्ध हुए, उससे •यादा बहस यही हुई कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान? एक तरफ यह बहस चली कि नाम सोशल मीडिया पर उजागर करना कानूनन गलत है; दूसरी तरफ जाति, धर्म के नगाड़े बजाने वाले अपनी रोटियाँ सेंकते रहे! और फिर सब कुछ शान्त हो गया। लोग अपने-अपने कामों में लग गये। सडक़ें वैसी ही असुरक्षित बनी रहीं। यहाँ तक घर भी असुरक्षित हो रहे हैं। आजकल बहुत तेज़ी से, पर यहाँ मैं अपनी बात से भटकना नहीं चाहती और इन घटनाओं की जघन्यता पर ही बात केन्द्रित रखना चाहती हूँ। लड़कियाँ हर रोज़ साहस जुटाकर पढऩे-नौकरी करने निकल रही और हर रोज़ अखबार दुष्कर्म-सामूहिक दुष्कर्म की खबरों से पटे रहे! और फिर अब हैदराबाद की पशु चिकित्सक से गैंगरेप कर निर्मम हत्या की घटना सामने आयी। एक लम्बे समय से जो क्रोध, तनाव और आक्रोश मेरे भीतर इन घटनाओं ने भर दिया था, इस घटना ने उसे स्तब्धता में बदल दिया पूरी तरह! एक स्तब्धता में जहाँ मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि एक सज के रूप में हम हार चुके हैं, फेल हो गए हैं।
कैसे समाज की उम्मीद में हैं हम? जहाँ लडक़ी किसी भी उम्र की हो, केवल एक शरीर है और कुछ नहीं! हम अपराधियों के प्रति रुख में ही उलझे रहेंगे, जैसा हमेशा करते आये हैं; पर इन लड़कियों का काया दोष—जिनके साथ सडक़ पर चलते हुए, ऑटो में बैठते हुए, रिक्शे में, अपनी ही गाड़ी के खराब होने पर कहीं मदद माँगने के क्रम में कहीं भी कुछ हो सकता है। इस पर हम नाराज़ होंगे, क्रोध से भर जाएँगे; पर फिर वैसा ही सब कुछ चलता रहेगा।
यकीन मानिए इनमें से किसी लडक़ी को मैं नहीं जानती। पर हर बार ऐसी खबर पढक़र लगता है, जैसे आत्मा का कोई कोना बिलकुल सुन्न हो गया हो। कैसे वीभत्स समाज का हिस्सा हैं हम, जहाँ दुष्कर्मी ताकतवर होने के दम्भ से भरा हुआ है और लड़कियाँ अनजाने डर से सहमी हुई। ऐसे बनेंगे हम शक्तिशाली और बड़े? फिर कहती हूँ कि अब हम समाज नहीं रहे! इस समाज को एक बड़े बदलाव की ज़रूरत है, जहाँ बलात्कारियों के भीतर कानून का डर हो और सरेआम दंड के व्यवस्था भी करनी पड़े, तो वह भी हो।
अहिंसा पर अटल विश्वास है मेरा! इतना कि किसी के अहम को तुष्ट करने के लिए भी उससे माफी माँगकर उसे माफ करना जानती हूँ मैं। पर आज मैं इन और इन जैसे कितने ही बलात्कारियों के लिए अहिंसा का समर्थन नहीं कर पा रही। हैदराबाद में जहाँ यह घटना हुई, ठीक उसके अगले ही दिन वहीं एक और युवती का अधजला शव मिला! आज सुबह जब ये मैं लिख रही हूँ, तो दो खबर और पढ़ी कि मध्य प्रदेश के दतिया •िाले में एक परिवार ने अपने बेटे को मार दिया, क्योंकि वह शराब पीकर अपने परिवार की स्त्रियों से दुष्कर्म करता था। दूसरी खबर उड़ीसा की कि पुरी क्षेत्र में एक आदमी ने बस स्टैंड से लडक़ी को पुलिस होने का दावा करके सहायता के नाम पर जबरन कार में बिठाया और फिर कहीं ले जाकर गैंगरेप किया। कोई डर नहीं! कोई घबराहट नहीं इन अपराधियों के मन में! हैदराबाद के घटना में डॉक्टर की बहन एक थाने से दूसरे में भटकती रही पर अपने क्षेत्र की घटना न होने की बात कहकर समय टलता रहा। जिन घटनाओं को सुनकर प्रो-एक्टिव एप्रोच होनी चाहिए, वहाँ मजबूर आदमी गुहार लगाता रह जाता है; कोई नहीं सुनता। जिन्हें रखवाला माना जाए, उससे भी डर लगने लगे तो इस समाज का क्या होगा?
अब इन घटनाओं के बाद कैसे मदद माँगी जाएगी सडक़ पर किसी से, जब दरकार होगी। पहले-पहल तो यही भाव आता है मन में कि घर पहुँच जाएँ किसी तरह। न जाने कितनी ही औरतें महानगरों में अकेली रहती हैं, नौकरी करती हैं, देर रात तक काम करके वापस आती हैं। लेकिन अब इस डर के साथ हम इस समाज में रह रहे हैं, जहाँ सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। किसी कानून व्यवस्था का कोई ठिकाना नहीं। ऐसी ही 21वीं सदी की परिकल्पना थी हमारी? जहाँ औरतें घरों में खुद को कैद करने पर मजबूर हो जाएँ या फिर किसी की सुरक्षा में निकलने की स्थिति के अलावा कोई चारा न हो; क्योंकि बाहर अब कुछ सुरक्षित दिखाई नहीं देता। तो किया क्या जाए? क्या सब औरतों-बच्चियों को एक आइलैंड पर अलग और पुरुषों को अलग छोड़ दिया जाए? क्या यह समाज साथ चलने लायक भी नहीं रह गया? जेंडर एक विमर्श है और इस विमर्श को संस्थाओं में चलाया जाता है और चलाया भी जा सकता है; पर बाकी तबकों को कैसे शिक्षित किया जाए? यह एक बड़ा सवाल है, जिसे बहुत गम्भीरता से देखा जाना ज़रूरी है। यह मानते हुए भी कि एक समाज के रूप में हम लगातार फेल हो रहे हैं, हमें ही इसके पुनर्निर्माण में लगना होगा। मुझे हैरानी होती है कि चुनाव में किसी भी दल के मुद्दे में बलात्कार और स्त्री से जुड़े मुद्दे क्यों नहीं होते। क्या ये इच्छाशक्ति की कमी है अथवा ये मुद्दा लोकलुभावन नहीं लगता? राजनीतिक दलों को इस पर विचार करने की ज़रूरत है।
कानून के हाथ कम-से-कम इन मामलों में कैसे मज़बूत हों? यह विचार करने की ज़रूरत है। कानून की रक्षा करने वालों से गुहार लगाने वालों को भी कानून के रखवालों से भय होने लगे, वहाँ निरंतर सम्वाद की ज़रूरत है—नये सिरे से संवाद की। एक बार फिर से इस समाज को थोड़ा मध्यकालीन करने की ज़रूरत है। आज जानकारी, शिक्षा के अभाव के साथ आसानी से उपलब्ध सूचनाओं का जंजाल है। अपराधियों के लिए सारा डाटा, जानकारी, सूचना से लेकर हर तरह की सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध है। क्या इस पर एक बार फिर से सोचा जा सकता है? सोचा जाना चाहिए। अगर सब कुछ बाहर से आयात करने की इतनी जल्दी है, तो कुछ समझदारी भी बढऩी चाहिए। अगर नहीं, तो फिर मान लीजिए कि भस्मासुर पैदा करना तो बहुत आसान है; पर उससे मुक्ति पाना बहुत मुश्किल।
इंटरनेट की दुनिया और तकनीक की माध्यम से सब कुछ उपलब्ध है, मनोरंजन के सारे साधन मौज़ूद हैं। स्मार्ट फोन हर एक के हाथ में है, पर उसके इस्तेमाल की मर्यादाएँ हम नहीं जानते। ठीक वैसे ही जैसे हथियार चलाने की योग्यता न होने पर भी हथियार दे दिए जाएँ और उसका इस्तेमाल करने की छूट मिल जाए। रुकिए, ठहरिए, सोचिए, अब हर तबके से एक नये सिरे से संवाद करना होगा, वरना एक संवेदनहीन समाज के रूप में हम खड़े रह जाएँगे और शॄमदा होते ही रहेंगे। पता नहीं किस ओर जा रहे हैं हम! मैं यह सब लिखते हुए बहुत उदास हूँ, परेशान हूँ। बहुत-सी बच्चियों को हँसते-खेलते देख रही हूँ। काश ये खिलखिलाती रह सकें! कोई कविता नहीं लिखूँगी अभी, यह अत्यंत गम्भीर मसला है, मिलकर सोचते हैं… और हाँ, कुछ दिन बात करके इस बार छोडऩा नहीं है। लगातार बहस करनी है, जो भी हो सके, करना है; इन घटनाओं के विरोध में! मैं अकेले तो कुछ नहीं सोच पा रही हूँ। आप लोग सोचिए और बताइए कि एक जागरूक नागरिक के रूप में हमें क्या करना चाहिए?