विश्वनाथ त्रिपाठी नामवर जी अभी युवक लगते हैं। तब तो लगता था मानो अभी खेत में कुदाल चला के आये हैं-पसीना पोछकर। सफेद खादी का कुर्ता, धोती, चप्पल पहनकर क्लास लेने। चौड़ा सीना, लमछर शरीर, नातिगौर वर्ण, कसके भांजी हुई दस्सी की तरह तनी खुरदरी खाल, व्यवहार में गंवई आत्मीयता।
आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी कहते-‘कमुन्नों से घिरा रहता है बेकार की बातों में।’ मैं आज तक नहीं समझ पास उनके शब्दकोश में ‘कमुन्ना’ का क्या अर्थ था। एक कविता भी लिखी थी उन्होंने -‘मैं बच्चों का बाप कमुन्ने।’
यह 1953 के आसपास का ज़माना था। नामवर हमें एम.ए (हिंदी में) अपभ्रंश पढ़ाते थे। बेहद विद्यार्थी-प्रिय अध्यापक थे वे। उनकी क्लास खचाखच भरी रहती। जिधर से निकलते -‘नामवर जी आ रहे हैं, नामवर जी आ रहे हैं- की फुसफुसाहट होती। तब नामवर जी काशाी में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अन्यतम प्रिय शिष्य थे और हमारे अध्यापक।
मुझे याद है कि मुझ पर उनकी शीघ्र ही कृपा हो गई थी। शायद मेरी साधनहीनता के कारण। मैं साधनहीन तो था ही तब एकान्तप्रिय भी था। बनारस नया-नया पहुंचा था। किसी से बात करने का मन ही नहीं करता। नामवर जी से खूब चहकता शायद हंसता बहुत था क्योंकि उन्होंने मेरा पहला नामकरण किया था-बालखिल्य मुनि।
एम.ए प्रीवियस की परीक्षा में पहला पर्चा पूरा नहीं कर पाया। बहुत चिन्तित हुआ। एक और विद्यार्थी हनुमान सिंह बघेल का भी पर्चा छूट कया था। दोनों ने निश्चित किया, इम्तहान छोड़ दें। इम्तहान छोड़ दिया। बघेल ने राय दी-”प्याज कांख में दबाकर लेट जाओ, बुखार आ जाएगा।’’ साधा, लेकिन बुखार नहीं आया। रोता हुआ द्विवेदी जी के पास पहुंचा। तार आया है- मां जल गई है। अब इम्तहान कैसे दूं। हाय-हाय! अब क्या होगा।
द्विवेदी जी ऐसे चिन्तित हो गए मानों मेरी बात पर विश्वास ही कर लिया हो- यह तो बड़ा बुरा हुआ। खैर, चिन्ता मत करो। अगल वर्ष परीक्षा देना। मैं तो आशा कर रहा था कि तुम्हारी प्रथम श्रेणी ज़रूर आएगी। माताजी (आचार्य द्विवेदी की पत्नी) आयी। उनके बच्चे आए। सबने सांत्वना दी। मेरे आंसू पोछें। मुझे जाने का किराया दिया।
नामवर जी शाम को बोले- इम्तहान छोड़ दिया आपने। प्रतिभा के बल पर परीक्षा देने से यही होता है। खैर, जो हुआ सो हुआ। जब अगले वर्ष हॉस्टल में रहने के खर्च की चिन्ता मत करिए। कहीं-न-कहीं से इन्तजाम हो जाएगा।
द्विवेदी जी छोटे अपराधों पर डांटते थे, बड़े अपराध क्षमा करते थे। वे व्यक्ति की मन स्थिति समझ कर उपचार करते थे। लोग विद्वान होंगे, तेजस्वी होंगे, माक्र्सवाद के विश्वस्तरीय सि़़द्धांतकार होंगे, किंतु उस देवतुल्य गुरु के समान मनुष्य नहीं हैं। बहुत दिनों बाद लगभग 20 वर्ष बाद पता चला कि मेरे आंसू पोछकर 15 रुपए देकर विदा करने के बाद अंदर जाकर आचार्य अट्टहास करके हंसे थे-”बच्चा है और मुझे भी बच्च समझ रहा है।’’ जब यह सुना तब मैं फिर रोया। पहले की तरह बनकर नहीं, असल में। ऐसे थे हमारे और हमारे सतीर्थों के गुरु।
नामवर जी भी शिष्यों, मित्रों के लिए बहुत वत्सल थे। लोग उन्हें चतुर, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली मात्र समझते थे। वे शिष्य-वत्सल और मित्र-वत्सल भी हंै। मेरा अनुभव और पर्यवेक्षण यही कहता है। उन दिनों काशाी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के लोकप्रिय अध्यापक होना आसान नहीं था। पण्डित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जैसे अध्यापक वहां पढ़ाते थे। नामवर जी में एक गुण आज तक ज्यों-का-त्यों मौजूद है। वे विशिष्ट बन ही नहीं सकते। सब उनसे बाराबरी के स्तर पर मिलते हैं। अब शायद स्वास्थ्य के कारण उन्हें सावधानी बरतनी पड़ती है।
सो हम भी उनके ‘संगी’ हो गए। केदारनाथ सिंह उनके मित्र-शिष्य तब भी थे। मैं उनके घर बहुत जाता। वे न रहते तो काशीनाथ सिंह से बतियाता। मैंने उन दिनों काशीनाथ सिंह को अनेक फिल्मी गाने सुनाए होंगे। काशीनाथ सिंह ने मुझे यह भी बताया-भइया एक बार नौटंकी देर तक देखते रहे थे। मिडिल की परीक्षा में देर से पहुंचे।
नामवर जी की पत्नी ऊपरी हिस्से में रहती। नामवर जी चाय पीते। उसके साथ नाश्ते में कुछ खाते तो काशी को उसमें से कुछ निकालकर पहले देते-”जाओं देवता को दे आओ’’। बहुत दिनों तक मैं देवता का मतलब नहीं समझा। बाद में पता चला कि वे अपनी पत्नी को देवता कहते थे।
नामवर जी की आदत थी जो पढ़ते लोगों को सुनाते, उस पर बातें करते। पता नहीं कितने साहित्यकारों की कृतियों के अंश नामवर जी ने पढ़कर सुनाए होंगे। उस पर बातचीत, बहस की होगी। इससे हमारे साहित्य-संस्कार बने। कुछ दिनों तक वे अगरबत्ती जलाकर हम लोगों को निराला पढ़कर सुनाते। मेरा ख्याल है कि उन दिनों वे छायावाद लिखने की योजना बना रहे थे।
एक बार वे गंगा के घट पर घूम रहे थे-पंत की पंक्ति ”निराकर तम सहसा मानो।’ की व्याख्या बड़ी देर तक करते रहे। वह प्रकाश जिसके कारण विश्व आलोकित हो उठा है। काव्य-दृष्टि छायावादी की है। यह संसार छायावादी कवि को नयी तरह से दिखलाई पड़ रहा है। ‘तम’ गतकालिक काव्य संसार है आदि। बाद में यह सब उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘छायावाद’ में आया।
एक दिन अलसुबह उनके घर पहुंचा। मुझे होस्टल की फीस देनी थी। मैं इस अधिकार से उनके यहां पहुंचा कि उन्होंने ही मुझे होस्टल में रहने के लिए कहा था। वे सो रहे थे। आंखे मींचते हुए उठे। मैंने कहा, मुझे फीस देनी है, मेरे पास पैसे नहीं हैं। उन्होंने बक्सा खोला। 60 रुपए निकाले, मुझे दिए ले जाइए और फिर सो गये।
वे नये-नये लेक्चरार लगे थे, टेम्परेरी। उनकी पारिवारिक जिम्मेदारियां थीं। कितनी तनख्वाह उनकी रही होगी उस वक्त- 1954 में। वातावरण में नामवर जी के विरोध की भी गूंज थी। लोग तरह-तरह की बातें करते। टुच्ची और ओछी बातें। लेकिन नामवर जी हमारे हीरो थे। हम वही ठीक समझते थे जो वे बताते। यह तो कोई नहीं कह सकता था कि वे प्रतिभाशाली नहीं हैं। और उनके भाषण तब आज से भी ज़्यादा कारागर होते थे।
नामवर जी को आप अपने बारे में अपने लेख, अपनी किताब के बारे में बातचीत करते हुए कम पाएंगे। सिर्फ अपने भाषण के बारे में कुछ लोगों से ज़रूरअकेले में पूछते हैं- ठीक -ठाक रहा न्!कुछ अनुचित तो नहीं कहा न् ! उनके भाषण कैसे होते हैं यह लिखने की ज़रूरत नहीं। वे हिन्दी के श्रेष्ठ वक्ता हैं इस समय। मेरा ख्याल है शायद किसी भारतीय भाषा में इस समय उनके टक्कर का कोई वक्ता नहीं है। यह बात अपनी सीमित जानकारी के आधार पर कह रहा हूं। नामवर जी के भाषण की प्रंशसा स्वंय इंदिरा गांधी ने ‘बच्चन अभिनन्दन’ पर की थी- यह पूरे हाल के श्रोताओं ने देखा था। इस तरह इंदिरा जी किसी के भाषण की तारीफ कम करती थीं। उन्होंने नामवर जी का भाषण पहली बार सुना था।
उनकी वक्तृता-क्षमता की चर्चा जानबूझकर सबसे पहले की है। समकालीन हिंदी आलोचकों में नामवर जी के पहले केवल डॉ. रामविलास शर्मा का नाम लिया जाता है। डॉ. शर्मा की तुलना में नामवर जी ने बहुत कम लिखा है, उनके अल्प लेखन के साथ उनकी वक्तृता-प्रचुरता को जोड़ दीजिए। न जोड़ेंगे तो उनकी व्यापक ख्याति का आधार ढूंढऩे में बहुत निराश होंगे।
उनकी ख्याति के बारे में एक बात को ध्यान में रखना चाहिए। अगर आप उन्हें सफल व्यक्ति मानते हैं तो भी उसी बात पर ध्यान देना होगा। नामवर जी किसी महापुरूष या नेता या प्रोफेसर या सम्पादक के सहारे सफल या प्रसिद्ध नहीं हुए हैं। उनकी पीठ पर हाथ रखने की कोशिश किसी ने की भी हो तो पीट ज़्यादा चिकनी थी। फितरत यह थी कि जहां जिस शहर में होते वहां उस शहर के सबसे प्रसिद्ध एवं समर्थ शुभचिन्तक से ठान लेते। काशी में तत्कालीन समर्थ रामव्यास ज्योतिषी, पं. रामअवध द्विवेदी, अक्षयबरलाल, के पास नहीं हुए। त्रिलोचन शास्त्री के सहचर, अनुचर, प्रशंसक थे। सागर गए तो पं. नन्ददुलारे वाजपेयी से ठन गयी। असकी उम्र सिर्फ 27-28 साल की। वाजपेयी जी अध्यक्ष, पं. रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद से बैंसवाड़े के कुलीन कान्यकुब्ज। उन्हीं के सहारे आप टेम्परेरी लेक्चरार बने। उन्हीं से ठान ली। कहीं ऐसा भी होता है कि वाजपेयी जी जिस सभा की अध्यक्षता करें आप उसी का उद्घाटन करने जाएं। तब अशोक वाजपेयी वहां बीए के विद्यार्थी थे। सुनते हैं नामवर जी से काफी सत्संग था। शायद पढ़ाया भी है। बी.ए., एम.ए में प्रथम श्रेणी। नतीजा यह हुआ कि साल भर में वह नौकरी भी छूट गयी। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग के टॉपर, आचार्य हजारी प्रसार द्विवेदी के अन्यतम प्रिय शिष्य, दो जगहों से-खुद काशी विश्वविद्यालय से और सागर विश्वविद्यालय से नौकरी छूट गयी। नामवर जी उस समय तक ‘हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग’, ‘छायावाद’ ‘इतिहास और आलोचना’ पुस्तकें लिख चुके थे। ‘हिन्दी के विकास में ‘ अपभ्रंश का योग की भूमिका प्रो. पीएल वैद्य ने लिखी थी
कोई न हो, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी तो थे। द्विवेदी जी उस समय हिंदी साहित्य के सर्वाधिक यशस्वी प्रोफेसर थे। वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष थे। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष थे। साहित्य अकादमी में हिन्दी के कनवीनर थे। विश्वभारती, शान्ति निकेतन कोर्ट के सदस्य थे। सरकारी भाषा आयोग के सदस्य थे। वे यशस्वी बहुत थे, शक्तिशाली बहुत कम। समिति पुरूष (कमेटी मैन) बिल्कुल नहीं थे। विश्वविद्यालयों में जो राजनीति प्रवेश कर गई थी, शिक्षकों में जो काइयांपन आ गया था, उससे वे बेहद घबराते थे। वे ज्ञान एवं मानवता के साधक थे। लेकिन पूरी ताकत लगाने के बावजूद वे नामवर जी को काशी विश्वविद्यालय में नौकरी नहीं दिलवा सके। द्विवेदी जी विभागाध्यक्ष थे, लेकिन उन्हीं के विश्वविद्यालय की चयन-समिति में वाजपेयी जी की चलती थी। वे इस क्षेत्र में डॉ. श्यामसुन्दर दास , डॉ. धीरेंद्र वर्मा, पं. नन्ददुलारे वाजपेयी और डॉ. नगेन्द्र से भिन्न-भिन्न नहीं विपरीत थे। निम्न मध्यवर्गीय छोटे ब्राह्मण किसान परिवार के थे। व्यवस्थित शिक्षा नहीं मिली थी। बचपन घोर अभावग्रस्त था। जो कुछ किया-धरा था, स्वंय अपने आप। समाज की सदाशयता पर बहुत आस्था थी। अपनी सन्तानों और शिष्यों से बेहद लगाव था। अपने शिष्यों के लिए तो वे समय निकाल लेते थे, अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की चिन्ता करते थे उसकी उचित व्यवस्था नहीं कर पाते थे। शिष्यों की तरक्की की भी चिन्ता बहुत करते थे। लेकिन उन्हें वह दांव-पेंच नहीं आता था कि हर जगह सबको फिट कर सकें। नामवर जी ने उनके अध्यक्षता काल में अनेक इंटरव्यू दिए। सब कहते थे कि नामवर जी को चुना जाना निश्चित है। द्विवेदी जी उन्हें इतना मानते हैं। लेकिन भाई लोग ऐसी गोटी बिठाते थे कि निराशा ही हाथ लगती थी। मुझे याद है एक बार तो नामवर जी आदरणीय विजयशंकर मल्ल जी जैसा लंबा कोट-(ऐसा लंबा कोट डॉ. राधाकृष्णन धोती के साथ पहनते थे) पहनकर इंटरव्यू देने गए। हम लोग आश्वस्त थे। केदारनाथ सिंह का विचार था कि जब ऐसा लंबा कोट पहनकर गए हैं तब चयन होना निश्चित है। पर चयन श्री भोलाशंर व्यास का हुआ। वहां तो द्विवेदी जी कुछ कर-धर नहीं पाये। मिलने पर नामवर जी को काफी डांटा-अपनी किताबें क्यों नहीं ले गये। वहां पूछा गया, कौन सी किताबें लिखी है तो दिखाने को एक भी नहीं। ऐसे इंटरव्यू दिया जाता है?
खैर,सागर से नामवर जी की नौकरी छूटी तो सोचा कि पंडित जी तो हैं ही। कुछ न कुछ इंतजाम कर देंगे। नामवर जी इलाहाबाद में श्री कृष्णदास के घर मार्कण्डेय के साथ ठहरते थे। श्रीकृष्णदास की पत्नी सरोज जी नामवर जी को राखी बांधती है। सरोज जी के पिता और नामवर जी के पिता मित्र थे। सरोज जी के पिता क्रांतिकारी थे। वहां नामवर जी की बहुत देखरेख होती थी। सभी लोग उनका बहुत ध्यान रखते थे। सो, नामवरजी सागर से नौकरी छूटने के बाद द्विवेदी जी का सहारा ले पाने के लिए बनारस चले। रास्ते में इलाहाबाद पड़ा। सोचा-अब कौन जल्दी है। कुछ दिन इलाहाबाद हो लें। इलाहाबाद उतरने पर शायद प्लेटफार्म पर ही पता चला कि पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी को भी काशी विश्वविद्यालय से सेवानिवृत कर दिया गया है।
वेे दिन बहुत खराब थे। लगभग सात वर्षों तक एम.ए, पीएचडी, ‘छायावाद’, हिंदी की विकास में अपभ्रंश का योग,’ ‘इतिहास और आलोचना’, ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृतियां’के लेखक डॉ. नामवर सिंह बेकार रहे। पत्नी थी, बेटा था, काशीनाथ सिंह की बहुत दिनों तक नौकरी नहीं लगी थी। चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की टिकट से लोकसभा चुनाव हार चुके थे। मैं नैनीताल चला गया था। मेरी नौकरी डीएसबी गवर्नमेंट कॉलेज में लग गयी थी। वहां से छुट्टी में बनारस आया।
नामवर जी सादा खाना खाते हैं। लेकिन खाने की रुचि परिष्कृत है। जल्दी-जल्दी कभी नहीं खाते। सत्तू भी खाएंगे तो ऐसे मानों हलुआ खा रहे हैं खाने की शिकायत सिर्फ अपने घर में करते हैं। मांसाहार लगभग नहीं करते हैं। व्यायाम करके भिगोए चने खाने के बाद दूध पीने का शौक था। नैनीताल से आया तो ताड़ा कि नामवर जी ने दूध छोड़ दिया है। पान जर्दा विशिष्ट अवसरों पर ही खाया जाता है। खैनी-चूना चलने लगा है। नामवर जी की मां मुझे जानती थीं। वे खाना बहुत अच्छा बनाती थी। जैसे बैंगन का भरवां बनाया जाता है वैसे ही तोरी का भरवां बनाती थीं। अपने ज्येष्ठ पुत्र को बहुत प्यार करती थीं। मुझसे धीरे से पूछा- ‘का बबुआ! अब हमरे बचवा की नौकरी न लगी?’
भदैनी पर केदार चाय वाले की दुकान है। शाम को हम सब वहीं एकत्र होते थे- आनन्द भैरव शाही, मेरे हरनाम पं. विश्वनाथ त्रिपाठी, आनन्द बहादुर सिंह, श्याम तिवारी, कभी-कभी विष्णुचन्द्र शर्मा, त्रिलोचन आदि। उस चाय की दुकान का काशी के साहित्यिक जीवन में ऐतिहासिक महत्व है। केदारनाथ सिंह और मैं वहां नामवर जी के साथ जाते थे। नामवर जी सबकी चाय का पैसा नहीं देते थे लेकिन केदारनाथ सिंह और मेरी चाय का पैसा बिना कहे चुपचाप वही देते थे। जब हम लोग अकेल होते और मूड में होते तो चाय के साथ मूंग की दाल भी मिलती। एक बार तो जलेबी भी मिली। बोले-बुटबल के घी की है। कुछ खास बात रही होगी उस दिन।
लेकिन अब मेरी नौकरी थी और नामवर जी का भिगोया चना दुध ही नहीं, पान का जर्दा भी छूट गया था। मैं नैनीताल से आया। शाम का हस्बमामूल नामवर जी चाय की उसी दुकान पर गए। चाय पी। मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी चाय के पैसे देने की। नामवर जी ने कहा- पैसे आप ही दे दीजिए। एक रुपया देना था, मैंने राहत की सांस जी। पैसा दे दिया। एक-दो दिन के बाद जब मैं चलने लगा तो नामवर जी छोडऩे गली से सड़क तक आए। प्रणाम करने लगा तो उन्होंने एक रुपए का नोट मेरी और बढ़ा दिया। मैंने रुपया ले लिया। नामवर जी को मैं देख नहीं सका। एक रुपए का नोट काफी भींचा-भींचा था। ऐसा नोट उनका नहीं हो सकता था।
उन्हीं दिनों नामवर जी ने ज्ञानोदय में नयी कविता पर लेखमाला लिखी थी। उस लेखमाला के लेख सिद्धांत के रूप में अंकित हैं। ‘प्रत्येक कविता कविता होने के पूर्व सार्थक वक्तव्य होती है’, यह उसी लेखमाला की एक पंक्ति है।
यह अभावग्रस्त जीवन लंबा था। लेकिन नामवर जी इसमें बहुत संयत और तेजस्वी थे। नयी कहानियां में ‘हाशिये पर ‘ की उत्कृष्ट लेखमाला उन्हीं दिनों की है। यह बात लोगों को ठीक लगे चाहे न लगे लेकिन सच है कि भैरव जी और नामवर जी का योग न होता तो ‘कहानी: नयी कहानी’ जैसी किताब न लिखी जाती। ‘कहानी नयी कहानी’ अनेक कारणों से मुझे नामवर जी का आलोचना में सबसे महत्वपूर्ण योगदान लगता है। इसके पहले कहानी की गंभीर आलोचना की हिंदी में कोई परंपरा ही नहीं थी।
नैनीताल में मेरी नौकरी कच्ची थी। मैं किरोड़ीमल कालेज में लेक्चरर हो गया। डा. नगेप्द्र ने मुझे बेकार नहीं होने दिया। नैनीताल की नौकरी छूटने के पहले ही मुझे किरोड़ीमल कॉलेज में मुझे जगह दे दी। मैं दिल्ली में चैंधियाया था। अध्यापकों को इतना संपन्न मैंने कभी नहीं देखा था। नामवर जीे को पत्र लिखा 1960 में-
मौज में देवी सुरसती है अब
लच्छमी पीछे धावती है अब
देर ही थी नहीं था अन्धेर
सारे विद्वान लखपती हैं अब
नीचे ‘सारे’ को तारांकित करके यानी ‘र’ ‘ल’ में भेद नहीं लिखा। तख़ल्लुस रखा ‘काहिल’। नामवर जी का जवाब मिला तीन-चार दिन
बाद –
जब सारे विद्वान हो गए लखपति लाल
जय जय जय कालिकाल
खुल गये भाग्य हमारे
क्यों न प्रेम से बोलिए जय जय जय कलिकाल
रामराज्य हो गया चमकने लगे सितारे
कह ‘जाहिल’ कविराय सुनो हे ‘काहिल’ प्यारे
रत्न अभेद को देख रहे सारे के सारे।
इसी आलम में 1962 में नामवर जी ने दिल्ली की ओर ताका। भैरव प्रसाद गुप्त ‘नयी कहानियां’ के संपादक थे। हिन्दी के परम कल्पना-प्रवण लेखक- बन्धु और तेजस्वी प्रकाशक ओमप्रकाश जी राजकमल में थे। ‘लिंक हाउस’ में गोष्ठी हुई। श्रीकान्त वर्मा और डॉ. नामवर सिंह ने पर्चा पढ़ा। इस गोष्ठी का आयोजन ओमप्रकाश ने किया था। उसमें कृष्णा मेनन, वीकेआरवी राव, हबीब तनवीर ने भी भाषण दिया। नामवर जी का दिल्ली आना शुरू हुआ। नामवर जी दुबारा 1964 में डॉ. देवीशंकर अवस्थी के यहां रुके। अवस्थी जी ग्रीष्मावकाश में सपरिवार कानपुर चले गये। तब उन्हें मैं अपने यहां ले आया। यह 1984 की बात है। उन दिनों कमलेश जी कवि, संपादक, बड़ौदा डाय-नामाइट केस के अभियुक्त भी मेरे यहां थे।
नामवर जी रहने-सहने में बिल्कुल नखरेबाज़ नहीं हैं। बच्चों के लिए तो लकड़सुंधवा हैं। जिस घर में जाएंगे,बच्चे उनके परम प्रशंसक मित्र हो जाएंगे। नामवर जी ने मुझे दो-तीन बार ही डांटा है। एक बार उसी प्रवास में मैंने अपने पांच-छह साल का जो लड़का रखा था, को पीट दिया। नामवर जी ने गुस्से में लाल होते हुए गंभीरतापूर्वक कहा-विश्वनाथ जी! यह काम मेरे रहते दुबारा किया तो मैं आपके घर से चला जाऊंगा।
मेरा जीवन-स्तर स्टैंडर्ड का नहीं है। यह बात मैं तब भी महसूस करता था कि नामवर जी को मेरे यहां उचित सुख-सुविधा नहीं मिल रही है। मेरे पास दो कमरे थे। एक में फर्श पर गद्दा बिछाकर वे सोते थे। एक बार मैंने उनसे पूछा- आपको रात में दूध पीने की आदत है। नामवर जी बोले-बाबू विश्वनाथ प्रसाद जी, अब नींद ही मेरी टॉनिक है। उन दिनों वे देर से और देर तक सोते थे। बीच में कुछ दिनों के लिए मेरी पत्नी मायके चली गई। सवेरे दो स्लाईस और एक अंडा मैं खाता था और वही नामवर जी। मैं जल्दी-जल्दी खा लेता। नामवर जी आराम से खाते मानो ंनाश्ता पर्याप्त है और बहुत सुस्वादु है। मैं कॉलेज चला जाता चाबी लेकर। नामवर जी दिल्ली शहर में। दिन-भर खाते भी कहीं या नहीं, वही जानते।
जाहिर है कि मुझे जितना ध्यान उन पर देना चाहिए था, नहीं दे रहा था। लेकिन वे इतने सहज, संयत थे कि आज याद करके अपराधबोध का अनुभव होता है। पोशाक का ध्यान उन दिनों भी नामवर जी पूरा रखते थे। खद्दर का कुर्ता, धोती, चप्पल ही उनकी छवि है। किन्तु कपड़े पहनने में पर्याप्त समय लगाते हैं। उतना समय तैयार होने में दो लोग और लगाते हैं। भैरव प्रसाद गुप्त और मैनेजर पांडे। कपड़े ठीक धुले होने चाहिए इस्त्री टनाटन्न। ठीक धुले का मतलब सफेद। लेकिन कपड़े पर नील बिल्कुल नहीं लगाना चाहिए। एक बार मेरे यहां कुर्ते पर नील लग गया था। नामवर जी ने दृढ़तापूर्वक कहा-यह नहीं चलेगा। गोष्ठी में भाषण देना छूट जाये तो छूट जाए, नील लगा कुर्ता नहीं चलेगा।
पोशाक की नफ़ासत का यह हाल है कि सोफिया में कमरे की चाभी मुझे दे देते-काउंटर पर जमा करते समय। मैंने एक बारजऱा तेज़ी से कहा, आप चाभी लेकर क्यों नहीं चलते। चन्द्रजीत यादव, दिनेश गोस्वामी, अब्दुल गफूर, पेरीन , रमेशचन्द्र सब अपनी चाभी लेकर चल रहे हैं। आप इसे अपनी जेब में रख नीजिए। नामवर जी ने शर्माते हुए कहा-चाभी वजनी है, क्रीज बिगड़ जाती है, आपके कपड़ों में क्रीज होती ही नहीं। रख लीजिए। आपका क्या बिगड़ेगा?
बेरोजग़ार नामवर जी आज से कम नहीं ज़्यादा तेजस्वी थे। मैंने शुरू में कहा था कि नामवर जी जहां होते थे वहां के सर्वाधिक समर्थ साहित्यिक व्यक्तित्व से उनकी ठन जाती थी। सो डॉ. नगेन्द्र से भी अन्तत: उनकी नहीं पटी और यह कलह अपेक्षाकृत दीर्घकालीन थी। लेकिन नामवर जी जब दिल्ली में आये तो शुरू-शुरू में डॉ. नगेन्द्र ने उनकी सहायता करने का प्रयास किया। कुछ दिनों तक ऐसा भी रहा है कि गोष्ठियों में डॉ. नगेन्द्र और डॉ. नामवर सिंह एक-दूसरे की प्रशंसा करते थे।
नयी पीढ़ी के आलोचकों में डॉ. नगेन्द्र ने उन्हें ही प्राणवान आलोचक कहा था।
डॉ. नगेन्द्र उस समय शक्ति के शिखर पर थे। प्रो. उदयभानु सिंह का कहना है कि भारत के किसी विश्वविद्यालय के किसी विभाग का अध्यक्ष डॉ. नगेन्द्र जैसा प्रतापी एवं शक्तिशाली नहीं हुआ। विभाग के वरिष्ठ अध्यापक भी उन्हें बैठ कर फोन नहीं करते थे। खड़े हो जाते थे और खड़े रहते थे। हिन्दी विभाग में वे जब रीडर अध्यक्ष बनकर आए थे तब कुल चार अध्यापक थे। उनके रिटायर होते समय 700 अध्यापक थे। इनमें से 90 प्रतिशत को उन्होंने नियुक्त किया था। डॉ. साहब नामवर जी की सहायता सचमुच करना चाहते थे।
एक दिन मुझे और नामवर जी को साथ-साथ डॉ. साहब ने यहां बुलाया गया। डॉ. साहब ने करीब आधे घंटे तक विविध विषयों पर बातें कीं। वे बहुत प्रसन्न हो सहज लग रहे थे। वे उन दिनों किसी अध्यापक से प्रसन्न हों तो वह उडऩे लगता था। फिर उन्होंने मुझ से यूजीसी में डॉ. आरसी गुप्त को फोन मिलाने केा कहा। मैंने फोन मिलाया। डॉ. नगेंन्द्र ने उनसे कहा कि नामवर सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी आ रहे है इन्हें पोस्ट डाक्टोरल फैलोशिप का फार्म दे दो। मुझ से कहा कि नामवर सिंह को यूजीसी ले जाओ। तुम डॉ. गुप्त को जानते होंगे। वे किरोड़ीमल कॉलेज में अंग्रेजी के अध्यापक थे। मैं बहुत खुश हुआ कि चलो नामवर जी की कुछ आर्थिक व्यवस्था हुई। मेरा अनुमान है डॉ. नगेन्द्र ने नेशनल पब्लिशिंग हाउस से किसी काम के लिए कुछ एडवांस भी दिला दिया था।
नामवर जी मेरे साथ यूजीसी के लिए डॉ. नगेन्द्र के घर से निकले तो चेहरा गंभीर था और चाल धीमी।दस-पांच मिनट की चुप्पी के बाद बोले-मैं यूजीसी न जाऊंगा। दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी प्रोफेसर के तहत काम करूं यही बाकी बचा है अब। जिसका शिष्य होना था हो चुका।
’65-66’ में नामवर जी ‘जनयुग’ के सम्पादक होकर दिल्ली आ गए थे। वे आते ही दिल्ली के साहित्यिक वातावरण पर छा गए और अब तक छाए हुए हैं। ‘जनयुग’ में जितनी तनख़्वाह, सोचा था नहीं मिली। वहां वेज यानी दिहाड़ी मिलती थी। बताया- इतने दिन के कुछ 100 रुपए मिले थे। अमुक को दे आया हूं। ‘जनयुग’ से राजकमल प्रकाशन जाने का कारण यह था।
सातवें दशक में मॉडल टाउन, दिल्ली की साहित्यिक हलचल का प्रमुख अड्डा था। यह कॉलोनी विश्वविद्यालय के निकट है, खुली भी, सस्ती थी। विश्वविद्यालय के कम-से-कम सौ अध्यापक वहां रहते थे। मकान-मालिक अध्यापक बहुत कम थे, किरायेदार ज़्यादा। ज़्यादातर लोग उत्तरप्रदेश या बिहार के कॉलेजों से यहां आकर नौकरी करने लगे थे, अधिकांश युवक थे। कई साहित्य में उल्लेखनीय हो चुके थे या उल्लेखनीय हो चले थे। उल्लेखनीय होने को आतुर तो बहुत थे। डा. देवीशंकर अवस्थी, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, अजित कुमार, रामदरश मिश्र, बालस्वरूप राही, रमेश गौड़, उदयभानु मिश्र, प्रयाग शुक्ल, डा. भोलानाथ तिवारी, रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, कर्णसिंह चैहान, सुधीश पचैरी, चंचल चैहान, डा. मुहम्मद हसन, डा. कमर रईस, शहाब जाफऱी, शारिब रूदौलवी आदि। रवीन्द्र कालिया मेरे घर के पास ही रहते थे। उनकी कहानी ‘नौ साल छोटी पत्नी’ छपी तो परिचय हुआ। डा. भरत सिंह उपाध्याय और अर्श मलसियानी पड़ोसी थे। प्रो. सावित्री सिन्हा और डा. सत्यदेव चैधरी भी पड़ोसी थे। कमलेश जी कुछ दिनों मेरेे साथ फिर एक कमरे में अलग पास ही रहने लगे थे। शमशेर बहादुर सिंह, मलयज, प्रेमलता वर्मा, पेरू देशीय, डा. तोला एक साथ रहते थे। इसी माहौल में मेरे यहां से नामवर जी.डी-1/16 में गए। दो कमरे के किरायेदार। साथ में बधिर भृत्य शिवमूरत। शिवमूरत जी की विशेषता थी नामवर जी के अटूट फरमाबरदार और एक शब्द नहीं बोलते थे। श, स को च बोलते थे। लोग उन्हें ‘चिवमूरत’ कहते थे। वे भरसक नामवर जी की रखवाली करते थे। भोजन बनाते और मालिश करते थे। नामवर जी पढ़ते-लिखते तो भरसक आने वालों को भगा देते। नामवर जी के साथ आग्नेय और रामधार सिंह थे। आग्नेय ‘जनयुग’ में काम करते थे। वे सब नामवर जी के यहां खाते-पीते रहते थे। चिवमूरत जी ‘चमचेर जी’ के यहां ज़्यादा बैठते थे, चर्वेचर जी के यहां कम। चीपीआई के समर्थक थे। ‘जनयुग’ के नियमित पाठक थे। ज़रूरत से ज़्यादा ही सीधे या चतुर रहे होंगे। एक बार कमर में दर्द उठा। कोई था नहीं दबाने वाला। कहते हैं कि उन्होंने जमादारिन से कमर को पैर से दाब देने के लिए कहा। हल्ला मचा। पिटाई नहीं हुई। सीधे थे, बच गये।
नामवर जी के यहां भीड़ लगी रहती। दिल्ली शहर के और बाहर के भी साहित्यकारों का जमघट लगा रहता। कई लोग-जिनमें मुरली बाबू, रमेश गौड़ और मैं ज़रूर रहे होंगे, सवेरे का चाय-नाश्ता वहीं करते। दातुन या ब्रश करते पहुंच जाते। जलपान करते। आग्नलेय, रामधार, चिवमूरत वहां रहते ही। एकाध साहित्यकार भी रहता। इसमें कोई हर्ज नही था, गड़बड़ सिर्फ यह थी कि ब्रश करते हुए पहुंचने वाले निम्य कर्म भी वहीं करते। बाथरूम एक ही था। यह काबिले-बदार्शत नहीं था। सन्तों के चरण-रज जो ठीक लेकिन इस समस्या का क्या हो? यह यातना दीर्धकालीन नहीं हुई क्योंकि इसी बीच कुछ ऐसा घटित हुआ कि नामवर जी ने मॉडल टाउन छोड़ दिया।
मैंने नामवर जी का किसी से झगड़ा होते हुए नहीं देखा। मार-पीट के कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए देखा है। लेकिन खुद उलझते नहीं। कठिन-से-कठिन स्थिति में वह बहुत संयत एवं सन्तुलित रह सकते हैं। भाषण के बीच उन्हें टूट करने के प्रयास असफल होते ही देखे हैं। विकटतम घटना उन्हीं दिनों मॉडल टाउन की ही है। एक बार स्व. सर्वेश्वर सक्सेना नामवर जी से उलझ गए।
होली का दिन था। सर्वेश्वर जी की पत्नी होली में नाना प्रकार के पकवान उत्साह से बनाती थी। आग्नेय, रमेश गौड़ आदि की टोली थी। सर्वेश्वर जी के यहां पहुंचे तो वे सफेद बुर्राक वात्स्यायनी पोशाक में गम्भीरतापूर्वक गेट के पास खड़े थे। हम लोगों की ओर उन्होंने देखा ही नहीं। जिस निश्चिन्तता और गम्भीरता में वे खड़े थे उसमें किसी का उन पर रंग छोडऩे का साहस नहीं हुआ। धीरे से बोले -अन्दर अपनी भाभी से खा-पी आआ। तभी-
अजित कुमार के घर धमा-चैकड़ी की आवाज़ आयी। अजित कुमार सर्वेश्वर जी के साथ वाले मकान में ऊपर रहते थे। वहां से नामवर जी, अजित कुमार और डा. निर्मला जैन के ज्येष्ठ पुत्र रंग से सरोबार नीचे दौड़ते हुए आय। मैं डरा कि आज कुछ ज़रूर होगा। नामवर जी ने सर्वेश्वर पर रंग डाला। सर्वेश्वर जी ने डा. निर्मला जैन के पुत्र की पिचकारी छीनकर फेंकी- वह सड़क के पार गिरी। और वे नामवर जी से गुंथ गये। अपना सर नामवर जी के पेट में घंसा दिया और पीछे की ओर धक्का देने लगे। नामवर जी उनके दोनों हाथ पकड़े रहे और कहत रहे-सर्वेश्वर जी मैंने किया क्या है? आप पर रंग ही तो डाला है। सर्वेश्वर जी उन्हें धकियाते रहे-थककर छोड़ दिया- बोले, हो गयी न होली। हम सब अवाक् दर्शक चुपचाप होली खेलना मुल्तवी करके नामवर जी के साथ उनके घर लौट आये।
उस दिन पता नहीं कैसे नित्यानन्द तिवारी भी साथ थे। डी.-1/16 पहुंच नामवर जी पलटकर बोले-नित्यानन्द तिवारी और विश्वनाथ त्रिपाठी के अलावा सब लोग चले जाएं।
नामवर जी की सहनशीलता से हम लोग अभिभूत हो गये। उनकी शारीरिक शक्ति से भी। बनारस में सुना था नामवर जी त्रिलोचन शारूत्री के साथ गंगा सीधे तैर जाते हैं। सर्वेश्वर जी को जिस तरह वे संभाले रहे और विनम्र करते रहे , उससे लगता था कि इस विनम्रता और उनकी शारीरिक मज़बूती में अन्योन्याश्रित संबंध है।
सर्वेश्वर जी के आक्रोश का कारण था। उसी वर्ष जनवरी में डा. देवीशंकर अवस्थी की मृत्यु। वे आशा करते थे कि इस वर्ष कम-से-कम उनके मित्र होली नहीं खेलेंगे।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय और सागर से हटने के बाद नामवर जी को जैसे रहना पड़ा उसका असर बाहरी तौर-तरीके पर नहीं दिखाई पड़ता है। लेकिन ‘ग़मे दौरां’ और ‘ग़मे जाना’ की जो काकटेलिंग हुई उसने अन्दरूनी तौर पर उन्हें काफी तोड़ा- मरोड़ा या पुननिर्मित किया होगा। नामवर जी ने ही बताया है कि वे राहुल जी से मिले थे कि अब क्या करें। उनका इरादा सोलहों आना राजनीतिमें चले आने का था। राहुल जी ने उन्हें उत्साहित नहीं किया। नामवर जी ने निष्कर्ष निकाला ‘नहीं सकूंगा’।
आदमी में शक्ति हो, क्षमता हो और उसकी योग्यता के कारण ही उसके वास्ते विश्वविद्यालयों के दरवाजे बंद कर दिये जाए। लेखन पर नामवर जी को बहुत भरोसा था।लेखन के लिए जीने भर की सुविधाओं की तलाश वे लगभग सात वर्षों तक करते रहे। उनका नाम था उनके पीछे नवयुवक थे, उनके लेखन और भाषण में तेजी थी, बस सामान्य जीवन बसर करने की सुविधा नहीं थी। ऐसी सुविधा जिसमें स्वाभिमान बना रहे।
ऐसी स्थिति में उनका मूल्य श्रीमती शीला सन्धू ने पहचाना। नामवर जी ने ‘आलोचना’ संभाली। वे सांसारिक सफलता भी प्राप्त करते गए। जोधपुर से क.मा. विद्यापीठ आगरा गये, वहां से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय आये, साहित्य अकादमी में अपने गुरू हजारी प्रसाद द्विवेदी के उत्तराधिकारी बने। अनेक बार विदेश की यात्रा की। इस समय वे हिन्दी के सर्वाधिक यशस्वी और प्रतापी प्रोफेसर हैं। लेकिन कहीं कुछ टूट-छूट गया। इस अभावग्रस्त जीवन में स्वाभिमान तो बना रहा। क्या कमल पर विश्वास भी अक्षुण्ण रहा? वैसा ही-
सारी परेशानियों का मुकाबला करने के लिए नामवर जी के पास एक ही अचूक साधान था- तेजस्वी, अप्रतिम वाग्मिता। लेखन भी था। लेकिन लेखन का प्रभाव स्थायी ज़्यादा होता है तात्कालिक कम। गोष्ठियों में, सभाओं में जिस तेज से नामवर जी विपक्षियों को ‘हनते’ हैं, लगभग मुशायरों जैसी वाहवाही और करतल ध्वनि प्राप्त करते हैं- वह लेखन से संभव नहीं। लेकिन नामवर जी की जो स्थिति थी उसमें उन्हें तात्कालिक प्रभावशली शस्त्र की ज़रूरत थी। अभी समय है, इसलिए कह रहा हूं कि यह कुल मिलाकर अच्छा नहीं हुआ।
आस्कर वाइल्ड अमेरिका पहुंचा तो चुंगी-थाने पर बोला- मेरे पास प्रतिभा के अलावा और कुछ नहीं है। नामवर जी अपने विस्द्ध सारी विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला सिर्फ अपनी प्रतिभा से करते रहे हैं। उनके विरूद्ध आप चाहे जितनी बातें कहिए, चाहे जितने तर्क दीजिए- यह नहीं कह सकते कि वे विभागाध्यक्ष, प्रोफेसर बनने के लायक नहीं, या कि ‘छायावाद’ , ‘कहानी: नयी कहाल’ उत्कृष्ट पुस्तकें नहीं है या वे अच्छे अध्यापक नहीं हैं। लेकिन साहित्य जगत में उनकी आज जो प्रतिष्ठा है वह अद्भूत वाग्मिता के कारण है। ठीक वक्त पर ठीक सूत्र याद आना
युत्वन्नमति, सूत्र को उपयुक्ततम शब्दों, स्वर के उचित आरोह-अवरोह, स्वर भंगिमा के साथ प्रस्तुत कर पाना। समर्थ तर्क पाश जो यथोचित विक्षोभ भी उद्बुद्ध कर सके- ऐसी वाग्धारा। बोलने में भी वाक्य-गठन चुस्त एवं व्याकरण-सम्मत भाषण में आदि, मध्य, अन्त का अनुपात।
इस वाग्मिता से उनका लेखन भी धीरे-धीरे प्रभावित होता गया है। साहित्य में किसी मूल्य या सिद्धांत की खोज-यात्रा करने की जगह अपना विपक्षी पहले से ही निश्चित करके फिर उसके विरोध में सारी क्षमता-वाग्मिता बिछा दी जाती है।इसलिए ‘छायावाद’ या ‘कहानी’: नयी कहानी’ के बाद आलोचक नामवर सिंहक को लेखन-प्रेरणा के लिए कोई-न-कोई ऐसा आलोचक या रचनाकार चाहिए जिसे वे खलनायक बना सकें। मूल्य का स्थान बेध्य ने ले लिया है। ‘कविता के नये प्रतिमान’ में खलनायक डॉ. नगेन्द्र थे। ‘दूसरी परम्परा की खोज’ में रामचंद्र शुक्ल। आसार हंै आगामी पुस्तक के डा. रामविलास शर्मा होंगे।
जऱा -सा ध्यान देने पर साफ हो जाता है कि यह प्रवृति डॉ. नामवर सिंह ने जिस आलोचक से ग्रहण की है वह डॉ. रामविलास शर्मा है। विपक्षी तय हो जाये फिर बुद्धि क्या नहीं कर सकती। यहां तो बुद्धि नहीं प्रतिभा है। विपक्षी भिन्न हों लेकिन पद्धति डॉ.शर्मा और डॉ. नामवर सिंह की एक है -पोलेमिक्स की पद्धति। ‘दूसरी परम्परा की खोज’ पढ़कर मुझे लग गया था कि अब डॉ. रामविलास शर्मा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पर ज़रूर लिखेंगे। डॉ. रामविलास शर्मा उत्तेजित होने का कोई मौका नहीं चूकते-पं. बिशनाथ परशाद ‘काहिल’ ने ‘दूसरी परम्परा की खोज’ पढ़कर कविता लिखी-
मैं धौला कुंआ से 511 नं. की बस पकड़कर
सीधे जे.एन.यू पहुंचा।
बहुत उत्तेजित था
उत्तराखंड मकान नं. 109 में
पहुंचते-पहुंचते हांफ रहा था।
नामवर जी सोफे पर लेटे
चश्मा लगाए कुछ पढ़ रहे थे।
मैंने कहा-
कुछ सुना आपने?अब क्या होगा?
पान घुलाते हुए बोले-
क्या हुआ?
मैंने कहा-
‘दूसरी परम्परा की खोज’ की प्रति किसी
नामाकूल ने रामचन्द्र शुक्ल को दे दी।
वे पढ़ रहे हैं-
अब क्या होगा
नामवर जी ने कहा-
पं. रामचन्द्र शुक्ल की मृत्यु 1940 में हो गयी थी।
कुछ दिनों बाद डॉ. रामविलास शर्मा की पुस्तक ”आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लोक-जागरण और हिन्दी साहित्य’ प्रकाशित हुई। उस पर यह कविता लिखी-
मैं पुन: उत्तेजित था
यों भी डा. नामवर सिंह से मिलने वाले की अनिवार्यता है
कि वह डॉ. रामविलास शर्मा से मिले
धौला कुआं से 628 नं. बस पकड़कर विकासपुरी पहुंचा-
डॉ. साहब
‘प्रगतिशील साहित्यकारों का सत्यानाश और माक्र्सवाद’
लिखने में तन्मय थे।
डॉ. साहब से कौन नहीं डरता-
मैंने धीरे से कहा- आचार्य शुक्ल ने यह
क्या गज़ब किया
महान अक्तूबर क्रांति के वर्षों बाद
प्रेमचन्द के समकालीन होकर लिखा।
‘लेनिन नीचों का महात्मा बन बैठा’
सुुनकर डॉ. शर्मा ने
गहरी सांस खींचते हुए कहा-
काश! यह बात
उस कथा-वाचक द्विवेदी ने लिखी होती
तब देखते मेरी आलोचना का सूर्य कितना प्रखर होता!
लेकिन सौभाग्यवश यह पक्ष न तो डॉ. शर्मा की आलोचना का वास्तविक रूप है और न डॉ. नामवर सिंह की आलोचना का। नामवर जी की आलोचना का समर्थतम रूप यह है कि वे समकालीन रचनाओं की मार्मिकता पहचानने में अचूक हंै। समकालीन रचनाधार्मिता का ऐसा विश्वासपरायण आलोचक और कोई नहीं। चीनी आक्रमण के समय कैलाश वाजपेयी की कविता की बहुत धूम थी। कविता में कैलाश ने मिथकों की लम्बी माला गूंथी। उसकी तारीफ करने वालों की संख्या बहुत बड़ी थी। उन्हीं दिनों नामवर जी ने या तो कोई टिप्पणी लिखी या भाषण दिया जिसमें कलकत्ते की एक अज्ञातप्राय लघुपत्रिका में प्रकाशित एक कविता का उल्लेख किया। कविता की एक पंक्ति कुछ इस प्रकार थी-‘मझमें भय चीखता है दिग्विजय, दिग्विजय।’ कविता धूमिल की थी। उसके बाद धूमिल प्रसिद्ध हो गये। इसी प्रकार नयी कहानियों के एक लेख से ‘वापसी’ की लेखिका उषा प्रियंवदा प्रसिद्ध हुई। शेखर जोशी की कहानी ‘बदबू’, अमरकान्त की कहानी ‘हत्यारे’ निर्मल वर्मा की कहानी ‘परिन्दे’ की उत्कृष्टता सबसे पहले नामवर जी ने पहचानी। मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ की सबसे पहले नामवर जी ने केंद्रस्त किया। उनकी आलोचना की सबसे बड़ी शक्ति उनकी आस्वाद -क्षमता है। उनके तत्वाभिनिवेश का सुदृढ़ आधार उनकी अचूक ‘कृति’ है।
यह उनके वाग्मी रूप की अपेक्षा अधिक सार्थक है। इस रूप में समकालीन हिन्दी-भाषा जाति के सांस्कृतिक नेताओं में गणनीय है क्योंकि उनके लेखन से हिन्दी पाठकों की साहित्यिक-सांस्कृतिक रुचि विकसित हुई और हो रही है। नामवर जी की आस्वाद-क्षमता हिन्दी पाठकों की आस्वाद-क्षमता में रुपान्तरित हुई है और हो रही है -माध्यम है उनकी आलोचना। इस रूप में उनका कृति आलोचक सार्थक है।
हम किसी रचनाकार या आलोचक का महत्व उसकी विशिष्टता से निर्धारित करते हैं। विशिष्टता से ही उसकी पहचान बनती है। नागार्जुन में कुछ ऐसा है जो निराला में नहीं है। इसी से नागार्जुन की पहचान होती है। ज़्यादातर रचनाकार तो ऐसे ही होते हैं जो किसी बड़े रचनाकार में समाए रहते हैं। ऐसे ही आलोचनात्मक लेखक की समाई रामचन्द्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नगेन्द्र, रामविलास शर्मा-किसी में नहीं हो सकती। डा. नामवर सिंह ने काफी कुछ ऐसा लिखा है जो इनमें से किसी ने नहीं लिखा है। यही आलोचक नामवर सिंह की पहचान, सार्थकता है – यही हिन्दी आलोचना का विकास भी है।
आलोचक डा. नामवर सिंह की पूर्ववर्ती आलोचना मुझे बेहद महत्वपूर्ण एवं सन्दर्भवाल लगती है- उसकी पद्धति भी और भाषा भी। ‘हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग’ शोध-परक पुस्तक है। किंतु उसमें अपभ्रंश-साहित्य का जो विवेचन है विशषत: स्वंयभू और सरहपा का वह अन्यत्र नहीं मिलेगा। स्वंयभू या सरहपा पर कोई पुस्तक नामवर जी लिखते। लिखें तो बेजोड़ होगी। स्वंयभू रचित ‘पउम-चरिउ’ की सीता के चरित्र का जो विश्लेषण उन्होंने किया वह आज भी प्रामाणिक है। हिंदी में अपभ्रंश-साहित्य के शोधकर्ता और विद्वान ही हुए हैं, आलोचक नहीं। नामवर जी अकेले आलोचक हैं जो काम कर सकते हैं लेकिन अपभ्रंश की कुंडली ही ठीक नहीं है। राहुल जी ने भी लिखा था- बेचारी अपभ्रंश मारी गयी।
‘छायावाद’ में आपको आलोचना का कोई खल-पुरूष नहीं मिलेगा। रामचंद्र शुक्ल, वाजपेयी, नगेन्द्र के मतों की अपर्याप्तता बनाई गयी है लेकिन उनकी व्याख्या भी की गयी है ऐसी कि उनका आशय प्रकट हो जाए। छायावाद विभिन्न प्रवृतियों का समुच्च्य है। कल्पना और जिज्ञासा अन्योन्याश्रित है। विभिन्न प्रवृतियों परस्पर सम्बद्ध हैं। इन सबका ऐसा स्पष्ट कथन छायावाद के किसी आलोचक ने नहीं किया था। ‘दूसरी परम्परा की खोज’ में भी जिन अध्यायों में द्विवेदी जी की फक्कड़मस्ती का विश्लेषण किया गया है, रीतिकाल संबंधी उनकी मान्यताओं का विवेचन किया है-रहस्य -भावना की सामाजिक विद्रोही भूमिका को पहचाना गया है, वह नामवर जी के आलोचक के सामथ्र्य का सूचक है।
उनकी आलोचना के बारे में जो कुछ कह रहा हूं उसे मेरी सीमाओं को ध्यान में रखकर देखा जाए। ज़्यादा संभावना इसी बात की है कि चूंकि मेरा विकास रूक गया है इसलिए मैं नामवर जी के निरन्तर एवं बहुपठित आलोचक को नहीं समझ पा रहा हूं। एवमस्तु!
यह बात छद्म विनम्रता में नहीं लिख रहा हंू। हिन्दी-आलोचना की विश्व संदर्भ से नामवर जी जोड़ रहे हैं-यह सब जानते और मानते हैं। ‘आलोचना’ का पाठक होने का मतलब है हिन्दी और विश्व -साहित्य के ऐतिहासिक विकास से बाखबर होना। नामवर जी अक्सर मध्यकालीन संतों के जीवन से ईष्र्या करते हुए रहते थे- जहां गये संत-समागम हुआ-कीर्तन, भजन, गुणगान, निर्मल जल जैसा जीवन। अब वे संतों के इस जीवन की बातचीत तो शायद कम करते हैं। यह जानते हैं कि वैसा जीवन नागार्जुन-त्रिलोचन का है। लेकिन उनकी गोष्ठीप्रियता के पीछे कहीं-न-कहीं वह आकांक्षा सक्रिय है। नामवर जी की गोष्ठियों में भाष्ण दे देकर अनेक साहित्यकार पैदा किए होंगे। गोष्ठियों के भाषण से ही नहीं उनके सत्संग से भी अनेक युवक, विद्यार्थी साहित्योन्मुख हुए हैं। आज की जो युवा पीड़ी साहित्य-कर्म में रत है उनमें से सैकड़ों उनके प्रभाव से इस क्षेत्र में आये हैं।
सभी आलोचकों से इस बात की शिकायत नहीं होती कि उन्होंने कम लिखा है। और अभी तो नामवर जी सिर्फ साठ साल के हुए हैं।
साभार: गंगा स्नान करने चलोगे?
लेखक: विश्वनाथ त्रिपाठी
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ