सवाल बहुत ही छोटा है कि ज़िाद बड़ी है या देश? जवाब भी बड़ा आसान है। लेकिन यह इतना आसान है कि गले नहीं उतरता। वजह यह है कि हम अपनी ताकत पूरी तौर पर आजमाना चाहते हैं। आजमा रहे हैं। मुझे एक िकस्सा याद आता है। एक नेता थे; बड़े चतुर और बड़े ही गुस्सैल! एक बार उन्हें दिल का दौरा पड़ा। वे चल बसे। उनकी लाश अस्पताल के पिछले दरवाज़े पर थी। दरवाज़े पर तैनात गार्ड ने चाहा कि वह भी देख ले कि अंतिम संस्कार के कागज़ात पूरे हैं या नहीं? फिर न जाने कैसे उसने इजाज़त दे दी। तभी एक आवाज़ आयी। ठहरो! इस नेता ने लोगों को जीना मुश्किल कर दिया था। मैं इसे आसानी से इस दुनिया से उठने नहीं दूँगा। लोगों ने बहुत समझाया, पर लाश ज़मीन पर पड़ी रही। अंतिम संस्कार का वक्त बीत रहा था। वहाँ एक बच्चा पहुँचा। उसने आँसू पोंछते हुए कहा कि पापा ज़िाद मत करो। चले जाने दो। हमें भाई का अंतिम संस्कार करना है। बच्चे के हाथ में गुुलाब का फूल था। उसने लाश पर उसे रखा और रोते पिता को लेकर चला गया। सभी उन दोनों को आँखों से ओझल होने तक देखते रहे। यह िकस्सा यह बताता है कि एक बड़े इरादे के लिए ज़िाद छोडऩी ही पड़ती है। उस बच्चे ने पिता को न केवल उसके मकसद की याद दिलायी, बल्कि गुलाब के फूल के ज़रिये उसने अपना इरादा भी जता दिया। यह इरादा बड़ा ही नेक था। यह इरादा था प्रेम, सद्भाव और एकता का; देश इसी से बनता है। अलग-अलग भाषाओं, संस्कृति और आपसी सहयोग से एक मज़बूत देश बनता है। एक देश, जहाँ कभी एक भाषा, एक संस्कृति का बोलबाला नहीं रहा। सबका अपना-अपना विकास हुआ; लेकिन आपसी समन्वय रहा। भरोसा बढ़ा, और देश रहा।
दिसंबर महीने में ठंड के बावजूद सडक़ों पर छात्र-छात्राएँ और अधेड़ लोग लगातार प्रदर्शन करते दिखे। दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया, सलेमपुर और दरियागंज छात्र-पुलिस टकराव के बड़े केन्द्र रहे। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया के छात्र, जामिया नगर और दरियागंज के आसपास के इलाकों के निवासी जंतर-मंतर, इंडिया गेट वगैरह जैसे स्थानों पर लगातार प्रदर्शन कर रहे थे, जिनमें कुछ जगह धरना आदि जारी हैं। इन प्रदर्शनों के साथ विभिन्न प्रदेशों के कई-कई नगरों में, चाहे वह वाराणसी हो या इलाहाबाद, जादवपुर विश्वविद्यालय हो या पटना विश्वविद्यालय; हर जगह छात्र आंदोलन चले हैं। उत्तर प्रदेश में मेरठ, बिजनौर, अलीगढ़, रामपुर, कानपुर यानी तकरीबन 21 ज़िालों में प्रदर्शन हो रहे हैं। तकरीबन 15 से ज़्यादा लोग मारे गये। बिहार में भी वैशाली, दरभंगा, चंपारण, नालंदा आदि ज़िालों में भी प्रदर्शन किये गये हैं। बंगाल के कोलकाता में पहले मुर्शिदाबाद, मेदिनीपुर आदि में हिंसक प्रदर्शन हुए। कर्नाटक के बेंगलूरु में प्रदर्शन हुए। मंगलोर में तीन प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज हुआ। वहाँ दो से ज़्यादा मौतों की भी खबर मिली थी। तेलंगाना में हैदराबाद में प्रदर्शन हुए। तमिलनाडु में चेन्नई में प्रदर्शन का खासा दौर रहा। असम, त्रिपुरा और मेघालय में अब भी प्रदर्शन जारी है। पूरे देश में नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजनशिप और सिटीजन एमेंडमेंट एक्ट के िखलाफ ज़बरदस्त प्रतिक्रिया हुई और हो रही है। इसकी वजह है कि देश के नागरिक यह मान रहे हैं कि संविधान में धर्मनिरपेक्षता की जो बात है, उसके विपरीत ये कानून बने हैं। प्रदर्शनों को रोकने के लिए सरकार ने अनेक राज्यों में इंटरनेट सेवा भी बंद कीं, दिसम्बर तक बहाल नहीं गयीं। जामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों के सामने अर्से से चुनौतियाँ आती रही हैं कि वे वाकई देशभक्त हैं या नहीं?
अब जनवरी में सुप्रीम कोर्ट यह सुनवाई करेगा कि सिटीजन एमेंडमेंट एक्ट संवैधानिक है भी या नहीं। पूूरे देश में इस पर अमल उचित है या नहीं? क्योंकि मूलत: यह असम के लिए था; बाद में पूरे देश में इसे लागू करने की बात हुई। उससे देश भर के हज़ारों मुसलमानों में भय छा गया है।
हैदराबाद की सेंट्रल यूनिवर्सिटी में कुछ साल पहले एक युवा दलित ने आत्महत्या की थी। जाँच-पड़ताल से पता चला कि विश्वविद्यालय प्रशासन और सत्ता में बैठै कुछ हठधर्मी नेताओं के चलते उस युवक ने आत्महत्या की थी। सत्ता के प्रति नाराज़गी का यह छात्रों में बड़ा आधार बना। इसी तरह जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी नई दिल्ली, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी आदि में पढऩे वाले युवाओं के प्रति प्रशासनिक दुव्र्यवहार बढ़ता दिखा। शिक्षा संस्थानों में इस तरह की दखलंदाज़ी क्यों होनी चाहिए कि वहाँ टैंक और पुलिस ही रहे। आज़ादी की लड़ाई के दौरान इन्हीं विश्वविद्यालयों में पढक़र निकले छात्र देश के कुशल नेता और प्रशासिक भी हुए हैं। इन विश्वविद्यालयों के छात्रों में आज राष्ट्रवाद या देश भक्ति की तलाश करना निहायत बेतुकी हरकत है। 100 साल पुराने जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली में देश के दूर-दराज़ के इलाकों से पढऩे और छात्रों से नागरिक संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण पर ठीक तरह से बातचीत करने की बजाय पुलिस से पिटवाना, गोली चलवाना कतई सराहनीय नहीं कहा जा सकता। उनसे बातचीत की बजाय आन्दोलनकारी छात्रों को गिरफ्तार करना ज़्यादती है। पूरे देश में विभिन्न नगरों-विश्वविद्यालयों में ही पर खासी मुद्दों पर बातचीत कर प्रतिक्रिया हुई। जबकि मामले को संवेदनशीलता के साथ सँभाला जा सकता था। लेकिन ज़िाद, अहंकार और ताकत दिखाकर छात्रों का असंतोष बढ़ाया जाता रहा। पूरी दुनिया का ध्यान भारत में इस छात्र आन्दोलन की ओर आकृष्ट हुुआ। निन्दा भी हुई। आज सडक़ों पर चाहे राजधानी दिल्ली हो या वाराणसी, मुर्शिदाबाद हो या भागलपुर, चेन्नई हो या गोरखपुर मंगलोर हो या रामपुर; हर कहीं से हिंसा, आगजनी, पथराव की खबरें हैं। हर तरफ पुलिसिया दङ्क्षरदगी है। आँसू गैस, लाठीचार्ज और गोली चलाने के दृश्य हैं, वीडियो हैं। सडक़ें लड़ाई का मैदान बन गयी थीं। इस आन्दोलन में महिलाएँ और बच्चे भी दिखे। यानी अत्याचारों के बाद नागरिकों में अब डर नहीं है। नागरिक सिर्फ एक कानून का ही तो विरोध कर रहे हैं। वे सडक़ों पर उतरे हैं। वे युुवा हैं। वे संवाद करना चाहते हैं। संवेदना के साथ उनकी बात सुनी जा सकती थी। लेकिन सत्ता ने बात करने या उनकी सुनने की बजाय ज़िाद पकड़ ली। राज्य प्रशासन और केन्द्र के नौकरशाहों को विरोध इतना नागवार गुज़रा कि उसे कुचलने पर आमादा हो गये। अध्यापक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा जब बेंगलूरु की सडक़ पर अपनी बात कहने आये, तो पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उनकी तरह अलग-अलग राज्यों में बुद्धिजीवियों और समाजसेवियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया गया। दिल्ली में बैठी केन्द्र सरकार ही एक ऐसी सरकार है, जो इस देश में अब बुद्धिजीवियों और युवाओं की बात सुनने और उस पर गौर करने के िखलाफ है। वह इसे सिर्फ कुचलना चाहती है। किसी को भी पकडक़र जेल में बन्द कर देना चाहती है। कश्मीर में इंटरनेट बन्द करने का इसे पुराना अनुभव है। लेकिन क्या मसला इससे हल होगा?
क्या यह एक लोकहित वाली सरकार के कामकाज का यही तौर-तरीका है? यह शिक्षक रामानंद तिवारी पूछते हैं। दरअसल, यह छात्र आंदोलन अब तक नेता विहीन रहा। यह नागरिक आंदोलन बन गया। सवाल यह है कि क्या इनसे संवाद जनप्रतिनिधियों को नहीं करना चाहिए? क्या वे धमकाकर, डराकर, अत्याचार करके खुद को कामयाब मानते रहेंगे।
देश में बढ़ते छात्र आंदोलनों, प्रदर्शनों के चलते आज एनडीए के ज़्यादातर सहयोगी दल मसलन जद(यू), अकाली दल, बीजू जनता दल वगैरह ने भी किनारा कर लिया है। असम में जिस तरह नागरिक पहचान के कई-कई दौर चले। सुप्रीम कोर्ट की ओर में नागरिकता प्रमाणों की छानबीन हुई। राज्य में अवैध रूप से रह रहे लोगों के लिए ‘डिटेंशन सेंटर्स’ बनाये गये। कर्नाटक तक में बने ऐसी खबरों के लिए भारत में रह रहे हिन्दुओं, मुस्लमानों, सिखों, ईसाइयों और धर्म के लोगों में अब यह संदेह घर कर गया है कि ये कानून संविधान सम्मत नहीं हैं और देश के संघीय ढाँचे के विकल्प हैं। आिखर क्यों देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब और संस्कृति को भुला देना आज उपयुक्त माना जा रहा है? शायद पूरे देश में फैले हिंसा-प्रदर्शन को शान्त करने के लिहाज़ से प्रधानमंत्री को 22 दिसंबर को रामलीला मैदान में आना पड़ा। अपनी बात शुरू करने के पहले उन्होंने एक पुुराना नारा- ‘विविधता में एकता है’, लगाया और उनके आग्रह पर वहाँ मौज़ूद सभी लोगों ने उसे दोहराया भी मंच पर बैठे नेताओं में केन्द्रीय गृहमंत्री, रक्षामंत्री और वित्त मंत्री नहीं थे। अपने भावना प्रधान भाषण में प्रधानमंत्री ने बड़े साफ शब्दों में कहा कि 2014 में सत्ता में आने के बाद कभी उन्होंने सुना नहीं। इसका कोई ड्राफ्ट नहीं बना, कैबिनेट में इस पर कोई चर्चा नहीं हुई।
संसद में प्रस्ताव नहीं आया। उन्होंने कहा कि भारत में और रह रहे मुसलमानों को डरने की ज़रूरत नहीं है; जिसके पुरखे यहीं रहे। उनका यह कहना कि गृह मंत्री के राज्यसभा में दिये गये उस बयान के ठीक उलट है, जिसमें उन्होंने कहा था कि असम में अभी और फिर पूरे देश में इसे अमल में लाया जाएगा। यह विरोधाभास आश्चर्यजनक इसलिए है, क्योंकि पूरे देश में अलग-अलग शहर में शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों का सिलसिला अब भी जारी है। उत्तर प्रदेेश में मुख्यमंत्री ने राज्य में सरकारी सम्पत्ति के नुुकसान पर कैमरों के चित्रों के आधार पर गिरफ्तारी और नुुकसान की भरपाई की धमकी दी, जिस पर अमल भी शुरू हो गया है। देश के विभिन्न राज्यों में छात्र आन्दोलन और अल्पसंख्यक वर्गों का आन्दोलन चल रहा है। इस आन्दोलन की गवाह हैं- सडक़ें, मस्जिद और कॉलेज। पुलिस की बर्बरता दिल्ली, रायपुर, गोरखपुर, वाराणसी और लखनऊ में जमकर दिखी। सडक़ों पर एक किनारे कर दी गयीं चप्पलें, खून से सनी कमीज़ों, कुर्तों के सूखे फटे टुकड़े, टूटे चश्मे नज़र आते हैं। धीरे-धीरे छात्रों का विरोध पूरे समुदाय का विरोध हो गया। नमाज पढक़र लौटने वालों में किसी एक नौजवान को लाठियों से मारकर गिरा देना और उस पर बुरी तरह लाठियाँ भाँजना, पुलिस की दङ्क्षरदगी का न भुलाये जा सकने वाला चित्र है। दिल्ली की जामिया मिल्लिया लाइब्रेरी में जाकर पुलिस के जवानों द्वारा शीशों को तोडऩा मेज-कुर्सियाँ तोडऩा, पढऩे वाले एक लडक़े की आँख पर लाठी मारकर उसे अन्धा बना देना और हॉस्टल में पढ़ रहे बच्चों की किताबें फाड़ डालना, आग लगा देना बताता है कि पुलिस में ही एक विशेष समुदाय ज़्यादा सक्रिय भूमिका में था। पुलिसिया दङ्क्षरदगी के चलते अब इस छात्र आन्दोलन से महिलाएँ, बच्चे वकील ओर कुछ नेता भी जुड़ते दिख रहे हैं। आज़ादी के 72 साल तक इस देश की बहुलतावादी वैचारिक सोच को ज़ोर-ज़बरदस्ती से एक भाषा, एक राष्ट्र और एक समुदाय बनाने की कोशिश के िखलाफ उठे प्रतिवाद को यदि संवेदनशीलता के साथ नहीं थामा गया, तो यह मानवीयता के िखलाफ होगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और उपरोक्त उनके अपने विचार हैं।)