धर्म स्वतंत्र रूप से पढऩे और स्वीकार करने के लिए हैं, और होने भी चाहिए। फिर इन्हें पढ़ाने और सिखाने वाले अलग से क्यों हों? धर्मों को तो हर किसी को स्वत: पढऩे, समझने और स्वीकार करने का अधिकार है। ठीक वैसे ही, जैसे ईश्वर को पूजने, समझने और मानने का अधिकार सभी को स्वयं ही होता है। उसके लिए किसी की स्वीकृति अथवा आज्ञा की आवश्यकता नहीं होती। न ही उसे पूजने, मानने अथवा स्वीकार करने के लिए किसी अन्य की सहायता की आवश्यकता होती है। बस अपने मन से मनन करने और मानने की आवश्यकता होती है। लेकिन धर्म, यहाँ तक कि ईश्वर पर भी चंद लोगों ने सदियों से अपना एकाधिकार जताकर इन्हें अपनी बपौती की तरह अपने लाभ के लिए उपयोग किया है। इन लोगों ने दुनिया के शेष लोगों का धर्म और ईश्वर से सीधे-सीधे साक्षात्कार नहीं होने दिया। न ही होने देना चाहते हैं। ये लोग धर्मों के वाहक बनकर बाक़ी लोगों को मूर्ख बनाते ही नहीं रहे हैं, बल्कि मूर्ख समझते भी रहे हैं, और लूटते भी रहे हैं।
ऐसा सदियों से हुआ है, और हर धर्म में ख़ूब हुआ है। आज भी हो रहा है। समझदार और तार्किक लोग इसे स्वीकार करने को राज़ी नहीं होते। इसीलिए पाखण्डियों की आँखों में चुभते रहते हैं। लेकिन किताबों को रटने वाले चंद लोगों के सहारे हमेशा बहुत बड़ी संख्या में लोग धर्म का, यहाँ तक कि ईश्वर का भी मर्म समझने का प्रयास करते रहे हैं। मज़े की बात यह है कि धर्म और ईश्वर के बारे में ज्ञान बाँटने वाले अधिकतर मूर्ख, ढोंगी और पाखण्डी हैं।
लोगों को समझना इस बात को चाहिए कि भले ही कोई सही मायने में ज्ञानी हो, उसे ईश्वर और धर्म का मर्म भी मालूम हो; वह दूसरे को उस ज्ञान और मर्म से तृप्ति कैसे दे सकता है? दूसरे को ईश्वर की प्राप्ति कैसे करा सकता है? दूसरों को मोक्ष कैसे प्राप्त करवा सकता है? वह केवल रास्ता तो बता सकता है। अपने अल्प ज्ञान से सामने वाले को दण्डवत् करा सकता है। हो सकता है कि कुछ हद तक सन्तुष्ट भी कर दे; लेकिन सफ़र तो हर किसी को ख़ुद तय करना है। अन्यथा यह ठीक वैसे ही होगा, जैसे दो भूखों में से एक व्यक्ति खाना खाकर दूसरे को समझाये कि खाने का स्वाद कैसा है? और उस खाने से पेट कितना भर गया? तृप्ति कैसे हुई है? खाने का आनन्द कितना आया? लेकिन दूसरे को असल स्वाद, असल तृप्ति नहीं दे सकता। उसका स्वाद तो हर व्यक्ति को स्वयं ही चखना होगा; स्वयं ही चखना भी चाहिए।
ईश्वर का एहसास भी हर व्यक्ति को स्वयं ही अंत:करण में करना चाहिए। लेकिन अधिकतर अभागे उसका मर्म दूसरों से समझना चाहते हैं। वह भी उनसे, जिनके पास सिवाय रटी हुई चंद किताबों की पंक्तियों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यही वजह है कि आज भी संसार में अधिकतर लोग धर्म और ईश्वर के मामले में प्यासे-के-प्यासे ही रह जाते हैं; और सदियों से ऐसे ही प्यासे हैं।
यही कारण है कि जो सीधे धर्म और ईश्वर से नहीं जुड़े, जिन्होंने इन्हें समझने और पाने में दूसरों का सहारा लिया, ऐसे लोगों को न धर्म का कोई लाभ मिला और न ईश्वर का मर्म ही उन्हें कभी समझ आया। ऐसे लोगों को जीवन का रहस्य भी कभी समझ में नहीं आया, और न ही मृत्यु का। ऐसे लोग न ठीक से जीवन ही जी सके हैं और न ही मृत्यु को ही जी सके। ऐसे लोगों का लोक भी बिगड़ा और परलोक भी नहीं सँवर सका। क्योंकि ऐसे लोग रट्टू तोतों, ढोंगियों, पाखण्डियों के भ्रमजाल में फँसकर अज्ञान के भँवर में जीवन भर चक्कर काटते रहे।
इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि भँवर में फँसा व्यक्ति कभी पार नहीं हो सकता, उसे डूबना-ही-डूबना है। आज भी असंख्यों लोग मूर्खों की तरह ढोंगियों और पाखण्डियों के चंगुल में फँसे हैं; और उनकी कही अर्ध सत्य बातों को न केवल अन्तिम सत्य मान लेते हैं, वरन् उसी अर्ध सत्य को इधर-उधर सुनाकर स्वयं को भी ज्ञानी सिद्ध करने की कोशिश में लगे रहते हैं। वे भी अपने स्तर के अथवा अपने से कम स्तर के अज्ञानियों के बीच ज्ञानी होने का दम्भ भरते रहते हैं।
यह सच है कि संसार में ज्ञानी भी हैं। लेकिन ऐसे लोग बिरले ही होते हैं। वास्तव में जो ढोंगी और पाखण्डी हैं, वो ज्ञानी होते ही नहीं हैं। धर्म ग्रन्थों के नाम पर चंद किताबों को रटने वाले तो बिलकुल भी नहीं। क्योंकि असल ज्ञान तो वही है, जो स्वयं के अन्तर से उपजा हो, जिसे अनुभव से खोजा गया हो। ठीक उसी तरह जिस तरह अपने जीने का अनुभव हर किसी को स्वयं ही होता है। दूसरे तो केवल इनता ही जानते हैं कि सामने वाला ज़िन्दा है; लेकिन उसके जीने का, उसके सुख-दु:ख का अनुभव दूसरे लोग उसी तरह नहीं कर सकते, जिस तरह से वह स्वयं कर सकता है। वैसे ही धर्म और ईश्वर का मर्म वही ठीक से समझ सकता है, जो इन्हें स्वयं जी रहा हो। जो सुनकर इनका आनन्द लेने की इच्छा रखता है, वह कुछ भी हासिल नहीं कर पाता। हाँ, उसे यह भ्रम ज़रूर रहता है कि वह सब कुछ जानता है।